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यह कैलेंडर बदल दो

साल तो आप नहीं बदल सकते, मगर पसंद न आने पर कैलेंडर तो बदल ही सकते हैं। तो यकीन मान कर चलिए यह ‘कैलेंडर’ अगला हफ्ता आते-आते तक बदल जाएगा।
यह कैलेंडर बदल दो

मधुर भंडारकर के पास अब न कहने को कुछ नया बचा है न दिखाने को। मधुर के ‘सामाजिक विषय’ में केवल और केवल ग्लैमर जगत है। इससे ज्यादा समाज में क्या हो रहा है उन्हें ट्रैफिक सिग्नल के बाद से दिखाई नहीं पड़ा है।

नई फिल्म कैलेंडर गर्ल्स में कहानी जैसा तो कुछ नहीं है। बस वही पुरानी घिसी पिटी कहानी- लड़कियां, उनके सपने, संघर्ष और ग्लैमर जगत का चेहरा। पांच अलग-अलग लड़कियों का चयन एक नामी कंपनी के कैलेंडर के लिए हुआ है। सभी की अपनी-अपनी स्थति है और एक पृष्ठभूमि है। मधुर लड़कियों की पृष्ठभूमि से ही कहानी शुरू करते हैं। एकदम उबाऊ तरीके से। पुरानी घिसी-पिटी फिल्मों की तरह।

कई कहानियों को एक साथ चलाना अपने आप में चुनौती होती है। इसके बजाय मधुर एक कहानी बुनते और उसमें लड़कियों की जिंदगी झांकती तो ज्यादा बेहतर होता। कम से कम कहानी पैबंद लगी न दिखती। साथ ही मधुर को अखबार में चल रही खबरों को दिखाने का भी बड़ा शौक है। जो भी अखबारों में फिल्मी जगत के बारे में छपता है, वह उसे दिखाने की कोशिश करते हैं। क्रिकेट का सट्टा, बिग बॉस शो का मसाला, एक मॉडल का एस्कॉर्ट बन जाना, पाकिस्तानी कलाकारों पर विरोध प्रर्दशन जैसे मसाले कहानी का जायका बिगाड़ देते हैं।

कुल मिलाकर यह मधुर की बासी कढ़ी का उबाल है। यह सब उनकी फिल्मों में पहले भी हो चुका। मियां मधुर अगर कुछ नया नहीं ला पाए तो उन्हें दिक्कत होगी। और हां सुभाष घई की तरह परदे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का लालच भी वह छोड़ दें तो अच्छा होगा। 

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