आठ साल का छोटू (कृष छाबरिया) की आंखें उसकी बड़ी बहन परी (हेतल गढ़ा) है। भाई को सलमान पसंद है तो बहन को शाहरूख। स्कूल जाते वक्त दोनों के रास्ता काटने का साधन एक ही है सलमान या शाहरूख खान को नायक बना कर काल्पनिक कहानियां सुनाना। कहानी सुनाने का चुनाव एक सिक्का करता है जिसमें अक्सर छोटू जीतता है। नागेश कुकनूर ने इसमें भी बहुत दूर की सोच बरती है क्योंकि पूरी फिल्म में सलमान खान की कहानियां चलती हैं और अंत में नायक बन कर शाहरूख खान उभरता है।
परी ने छोटू को वादा किया है कि उसके नौवें जन्मदिन से पहले वह उसे आंखें ठीक करा देगी। आंखों को ठीक करने की जिद में वह अपने भाई को लेकर निकल पड़ती है एक यात्रा पर। बिना सोझे। अगर इस फिल्म को बहुत दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो यह साहस की कहानी है। क्या कोई बड़ी उम्र का व्यक्ति ऐसा फैसला ले सकता है। बिना व्यवस्था के धुंधली और अनिश्चित यात्रा पर जा सकता है। यानी यदि आपको कुछ पाना है तो बच्चे के निश्छलता के साथ कुछ सोचे बगैर बस बढ़ने के लिए निकल पड़ो। बहुत सोच समझ कर नागेश ने चाची को दुष्ट दिखाया है। बिना माता-पिता के बच्चों के जीवन में उससे बुरा कुछ नहीं हो सकता था, शायद यही परी की हिम्मत का राज है।
दोनों बच्चों ने ऐसे अभिनय किया है जैसे वे उसी परिवेश में पले-बढ़े हैं। कृष अपने बातूनीपन से तो हेतल अपनी गंभीरता से लुभाती हैं। कई दृश्यों में आंखों में पानी आता है तो किसी संवाद पर हंसी आ जाती है। बेशक मध्यांतर के बाद फिल्म थोड़े हिचकोले खाती है। शायद इसका कारण नागेश के दिमाग में व्यावसायिक दर्शक होंगे। नागेश ने माहौल, संवाद और संगीत तीनों पर ही बहुत मेहनत की है। यह सार्थक फिल्म है जिसे देखने पर निराशा नहीं होगी।