एक लड़की शादी के मंडप से भाग गई और जनता उसे खोज रही है। बस इतनी सी है यह कहानी। लेकिन इस बार गंगा उल्टी बही है। खोने के बाद पाकिस्तान से भारत आने वाली कहानियों के बीच इस फिल्म की नायिका हैप्पी पाकिस्तान चली जाती है। सरहद पार न आर्मी के बड़े-बड़े संवाद हैं न गुस्सा-नफरत। पाकिस्तान के शॉट्स देखना भी अच्छा लगता है। दर्शकों को लगता है चलो कुछ तो नया है, वरना पाकिस्तान के नाम पर वही पुरानी दिल्ली की गलियां। अगर है तो बस हल्की सी नोंक-झोंक।
मुदस्सर अजीज ने हास्य का ताना और शोखी का बना बुना, इसे बेफिक्री की चाशनी में डुबोया और एक अच्छी फिल्म बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन फिर भी कलाकारों को स्थापित करने में थोड़ी जल्दबाजी हो गई। यही वजह रही कि अदाकार जमे लेकिन छा जाने की स्थिति तक नहीं गए। बिलाल अहमद (अभय देओल) हमेशा की तरह संजीदा रहे और अपनी बॉडी लैंग्वेज से ही जताया कि वह कॉमेडी कर रहे हैं।
फिर भी बूंद-बूंद टपकते इस हंसी से दशर्क अछूते नहीं रहे। यदि कास्टिंग पर कुछ और मेहनत की जाती तो यह जब वी मेट के टक्कर की फिल्म होती। क्योंकि लंबे समय बाद ऐसी फिल्म आई है जिसमें दर्शक फूहड़ चुटकुलों और संवादों के सहारे नहीं हंस रहे हैं। उर्दू के शब्दों को चबा-चबा कर बोलने की अदा में पीयूष मिश्रा खूब जमे हैं। यह फिल्म दमन सिंह बग्गा यानी जिमी शेरगिल और पीयूष मिश्रा की ही है।