देवी (ऋचा चड्ढा) को अपना प्रेम खोना पड़ता है, वह भी एक दुखद वाकये के साथ। वह खुद नहीं जानती कि उसकी उत्सुकता उसके लिए इतनी बड़ी मुसीबत हो जाएगी। पिता को कर्ज में ले आएगी। फिर भी उसका आत्मविश्वास नहीं डगमगाता। तब भी नहीं जब वह खुद से लड़ते हुए उस लड़के के घर जाती है यह बताने कि उस दिन अंतिम समय में वह उनके बेटे के साथ थी।
उसी शहर में दीपक (विकी कौशल) है। बनारस के हरीश्चंद्र घाट पर डोम जाति का यह लड़का पॉलीटेक्निक पढ़ रहा है और उसे पहली ही नजर में शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) से प्रेम हो जाता है। लेकिन प्रेम इतना सच्चा है कि लड़की उसी के साथ रहने को प्रतिबद्ध है। चाहे भागना पड़े। क्योंकि वह जानती है सवर्ण मानसिकता के माता-पिता नहीं मानेंगे।
नीरज ने दोनों कहानियों को अलग रखा है। दोनों कहानियों में कोई साम्य भी नहीं फिर भी दोनों कहानियां इतनी खूबसूरती से परदे पर चलती है कि कहीं कोई असमंजस या उलझाव दिखाई नहीं देता। अंत में बस दो लोगों को उनका दुख ही पास में लाता है।
संजय मिश्रा बेहतरीन कलाकार हैं यह उन्होंने पंडित जी की भूमिका में फिर साबित किया है। इस फिल्म की एक और उपलब्धि है, बाल कलाकार निखिल साहनी जिसने झोंटा की भूमिका निभाई है। निखिल ने बहुत ही सहजता से अभिनय किया है। कहीं-कहीं वह संजय मिश्रा के साथ बराबरी पर नजर आते हैं।
दुष्यंत की गजल, तू किसी रेल सी गुजरती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं को बहुत ही खूबसूरती से संगीत में ढाला है। संगीत और सिनेमेटोग्राफी, बनारस की गलियां सब मिल कर एक अलग सा प्रभाव पैदा करते हैं। मसान में जीवन नहीं होता, लेकिन इस मसान का जीवन दर्शन अलग है।