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समीक्षा – टनकपुर का कानून

पत्रकार से फिल्म निर्देशक बने विनोद कापड़ी की पहली फिल्म मिस टनकपुर हाजिर हो बॉक्स ऑफिस के कमाई के रिकॉर्ड तोड़ पाएगी या नहीं यह तो वक्त बताएगा, लेकिन अपनी पहली ही फिल्म में विनोद कापड़ी ने बता दिया है कि यह एक जरूरी फिल्म है।
समीक्षा – टनकपुर का कानून

हरियाणा के किसी टनकपुर गांव में एक गांव प्रधान (अन्नू कपूर), उसके चेले (रवि किशन), एक तांत्रिक (संजय मिश्रा), थानेदार (ओम पुरी) मिल कर एक लड़के (राहुल बग्गा) के खिलाफ ऐसा षडयंत्र करते हैं कि दर्शक उस षडयंत्र में इंटरवल के पहले खूब हंसते हैं। कापड़ी पहले पत्रकार रहे हैं इसलिए खबरों की उनकी समझ ही दरअसल इस फिल्म की ताकत बन कर उभरी है। यह एक राजनैतिक व्यंग्य हैं, जिसका ताना-बाना हमारे समाज, हमारे कानून के उलझे धागे के बीच से ऐसा कुछ तैयार करता है जिसमें हर व्यक्ति फंसा हुआ है।

फिल्म में वकील साहब एक संवाद बोलते हैं, ‘कानून अंधा नहीं काना होता है। उसे एक आंख से जितना दिखता है वह बस वही देखता है।’ दरअसल यह पूरी फिल्म इसी काने कानून के सहारे आगे चलती है। अगर कानून की दोनों आंखें खुली हों तो वाकई ऐसी फिल्म बनना नामुमकिन है।

अन्नू कपूर जबर्दस्त अभिनेता हैं। लेकिन अभी पिछले कुछ दिनों से संजय मिश्रा तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बाऊजी के किरदार के बाद तांत्रिक का किरदार उन्होंने पूरे तमखम से निभाया है। जिस शॉट में भी वह हैं, छाए हुए हैं। कापड़ी ने सभी कलाकारों को काम करने की पूरी स्पेस दी है। यह अलग बता है कि ऋषिता भट्ट और राहुल बग्गा उसका उपयोग नहीं कर पाए हैं।

इस फिल्म में एक लड़के पर भैंस से बलात्कार का आरोप है और पुलिस और अदालत किस तरह इस का तमाशा बनाती हैं यह देखने लायक है। इसी बहाने निर्देशक ने समाज में महिलाओं की स्थिति पर भी गहरा कटाक्ष किया है। समाज में एक स्त्री और एक जानवर की स्थिति में कोई खास अंतर नहीं है। अंत में जब मिस टनकपुर नाम की भैंस अपना खूंटा तोड़ कर भागती है और उसकी शादी की चुनरी और श्रृंगार पीछे गिरता चलता है तो यह एक स्त्री की आजादी का भी परिचायक है। क्योंकि प्रधान की पत्नी (ऋषिता भट्ट) यह काम नहीं कर पाती।

हरियाणी शैली के चुटीले संवाद, ‘इन कुत्तों के आगे नाच बसंती नाच’ जैसा आइटम सॉन्ग, दीवारों पर लिखी इबारतें जैसे, थाने के शौचालय की दीवार पर लिखा है- ‘बाल्टी और मग थानेदार के पास है,’ बस के दृश्य में हाइवे पर सड़क किनारे लिखा है- ‘तेज दौड़ने का शौंक है तो पीटी उषा बनो। तेज रफ्तार में चलना बेवकुफी है’ दर्शकों को कहीं न कहीं अनजाने में गुदगुदा जाते हैं।

वैसे यदि विनोद कापड़ी अपने टीवी दिनों को याद करते हुए कहा को और कस देते तो बढ़िया होता। कहीं-कहीं कहानी झूल जाती है। जैसे, खाप पंचायत वाला दृश्य जिसमें लड़की नाक रगड़ रही है। थानेदार भैंस खोजने तालाब में उतरता है दृश्यों की खास जरूरत नहीं थी। आजकल वैसे भी कट टू कट एडिटिंग का ही जमाना है। फिर भी यह एक बार देखी जाने वाली फिल्म है, बिना उबासी लिए हुए।   

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