प्रसिद्ध फोटोग्राफर अतुल कस्बेकर और निर्देशक राम माधवानी ने सन 1986 की उस घटना को अच्छे तरीके से परदे पर उतारने की कोशिश की है। बेशक यह मार-धाड़ के साथ अतिश्योक्तिपूर्ण से ‘हीरोगिरी’ की फिल्म नहीं है पर यह एक लड़की के नायक हो जाने की फिल्म है।
राम माधवानी ने फिल्म को बहुत उलझा कर अतिश्योक्तिपूर्ण बनाने से बच कर अच्छा किया है। किसी एक घटना से शुरू कर फ्लैश बैक में फिल्म के सीन चलते हैं और कहानी के साथ घुलमिल जाते हैं। न उन्होंने नीरजा को इस तरह पेश किया है कि कुछ भी अविश्वसनीय लगे।
फिल्म के लिए कुछ मसाले जरूरी होते हैं वह इसमें भी हैं। अरबी बोलते हुए आतंकवादियों की बात समझने के लिए अंग्रेजी सबटाइटल चलते हैं यदि ये हिंदी में होते या इनका अनुवाद बोला जाता तो सिर्फ हिंदी समझने वालों के लिए यह सुविधाजनक होता। फिर भी राम ने 80 के दशक को परदे पर अच्छे से उतारा और सूझबूझ और बहादुरी की मिसाल नीरजा की बहादुरी को घर-घर में पहुंचा दिया। सोनम कपूर ने नीरजा नाम की लड़की को परदे पर उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह सोनम का अब तक का सबसे अच्छा रोल भी कहा जा सकता है। शबाना आजमी ने नीरजा की मां की भूमिका निभा कर फिर साबित कर दिया है कि किसी भी भूमिका में उनका कोई तोड़ नहीं है।