आखिरकार, पैडमेन रीलिज हो ही गई। पिछले कई महीनों से पैडमेन-पैडमेन के नाम की रट से सोशल मीडिया भरा हुआ था। पैडमेन चैलेंज के नाम पर सेलेब्रिटी हाथ में सैनेटरी नैपकिन लिए अपनी फोटो शेयर कर रहे थे। सोशल मैसेज वाली फिल्म सोशल मीडिया पर छाई हुई थी। सामाजिक फिल्मों की कड़ी में अक्षय कुमार की यह तीसरी फिल्म है। एयरलिफ्ट, टॉयलेट ः एक प्रेम कथा के बाद अब वह पैडमेन लेकर आए हैं।
यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि कम से कम इसी बहाने भारत में सैनेटरी पैड को लेकर बात का टैबू टूटेगा। लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) अपनी पत्नी गायत्री (राधिका) आप्टे से बहुत प्रेम करता है और उसकी सुविधा के लिए नए-नए उपकरण बनाना उसका शौक है। उसकी हर असुविधा को वह सुविधा में बदल देना चाहता है। चाहे फिर वह माहवारी की असुविधा ही क्यों न हो। वह अपना दिमाग लगा कर ऐसी मशीन बनाता है जिससे सस्ते सैनेटरी पैड बन सकते हैं। लेकिन यह यात्रा उसके लिए इतनी कठिनाइयां लेकर आती है कि नौबत तलाक तक पहुंच जाती है। मध्यप्रदेश के महेश्वर में फिल्माई गई इस फिल्म में मध्यप्रदेश बस बीच-बीच में कहीं झांकता नजर आता है। बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी के बाद भी।
यह सच है कि निर्देशक आर बाल्की डॉक्यूमेंट्री या भाषणबाजी से बचे बिना अपनी बात कह गए हैं लेकिन खालिस फिल्मी अंदाज कहीं-कहीं अखर जाता है। वह हिंदी फिल्मों के अनिवार्य तत्व मेलोड्रामा से खुद को नहीं बचा पाए।
बाल्की कुछ बाते सहज ढंग से कह सकते थे लेकिन उन्होंने फिल्मी तरीके से कहने का रास्ता चुना। जैसे पड़ोस में रहने वाली बच्ची के पीरियड्स शुरू होने पर रात बारह बजे पाइप पर लटक कर बच्ची को सैनेटरी पैड देना, पैड के फाइबर और कपड़े का सैंपल इतनी आसानी से आ जाना और गायत्री का शर्म-शर्म की रट लगाए रखना। सफल होने के बाद लक्ष्मीकांत चौहन को यूएन में भाषण देना है। शायद बाल्की ने ‘आय कैन टॉक इंग्लिश, आय कैन वॉक इंग्लिश’ नहीं सुना है वरना लक्ष्मीकांत का अंग्रेजी भाषण और अच्छा (गलत रूप में) हो सकता था। कहीं से भी नहीं लगता कि लक्ष्मीकांत को अंग्रेजी नहीं आती। लगता है कि लक्ष्मीकांत जानबूझ कर अंग्रेजी गलत बोल रहा है।
परी के रूप में सोनम ने आत्मविश्वासी लड़की का रोल अच्छा किया है। लेकिन उनके आने से फिल्म में रोमांस का पुट भी है क्योंकि भारतीय पुरुष पत्नियों का ध्यान रखते हैं उनसे रोमांस नहीं करते। लेकिन फिल्म के विषय के रूप में यह वास्तव में नया और असर छोड़ने वाला है। इसे परिवार के साथ देखा जाना चाहिए ताकि घर के पुरुष महिलाओं की परेशानी के रूप में जान सकें। इस फिल्म के बाद उम्मीद तो की ही जा सकती है कि सैनेटरी नैपकिन अब काले पॉलीबैग में चुपके से हाथ में नहीं पकड़ाया जाएगा। बाल्की की मेहनत से सिर्फ फैलोशिप का विषय बन कर नहीं रह जाएगा। यकीनन भारत की ओर से इस साल की ऑस्कर एंट्री पैडमेन ही होनी चाहिए