आखिरकार,पैडमेन रीलिज हो ही गई। अक्षय की सोशल फिल्मों की कड़ी में यह तीसरी फिल्म है। माहवारी के दौरान सैनेटरी पैड महंगे होने से महिलाएं घर में मौजूद कपड़े इस्तेमाल करती हैं, जिनकी सफाई का दूर-दूर तक लेना देना नहीं रहता। निर्देशक आर बाल्की ने इस समस्या को बिना डाक्यूमेंट्री बनाए दिखा दिया, लेकिन वह उस मेलोड्रामा से नहीं बच पाए जो हिंदी फिल्मों का अनिवार्य तत्व है।
बाल्की कुछ बातों को सहज ढंग से कह सकते थे, लेकिन उन्होंने उसे फिल्मी तरीके कहना ही ठीक समझा। जैसे पड़ोस में रहने वाली बच्ची के पीरियड्स शुरू होने पर रात बारह बजे पाइप पर लटक कर बच्ची को सैनेटरी पैड देना। बावजूद इसके बाल्की ने भारत में सैनेटरी पैड पर बात करने के टैबू को खत्म कर दिया है, इसमें कोई शक नहीं है। अक्षय कुमार और राधिका आप्टे ने बाल्की की स्क्रिप्ट को आत्मसात किया और कहीं से भी नहीं लगा कि दोनों उस परिवेश के पात्र नहीं हैं।
सोनम कपूर ने ग्लैमर का हल्का तड़का लगाया और दिल्ली की आत्मविश्वासी लड़की के रूप में छा गईं। कुल मिलाकर यह एक पारिवारिक फिल्म कही जा सकती है। उन मायनों में कि घर के लड़के भी महिलाओं की परेशानी समझ सकें। बेशक इसका प्रदर्शन ठीक नहीं है पर भाइयों को अपनी बहनों का और पति को पत्नी की इस परेशानी के बारे में पता होना ही चाहिए।
उम्मीद की जा सकती है कि अब खास तौर पर इस पैकेट को काले पॉलीबैग में चुपके से केमिस्ट से नहीं खरीदना पड़ेगा। बाल्की की मेहनत से यह सिर्फ फैलोशिप का विषय नहीं रह जाएगा। यकीनन भारत की ओर से इस साल की ऑस्कर एंट्री यही होनी चाहिए।