फिल्लौरी के निर्देशक अंशई लाल ने पहला प्रयास अच्छा किया है। उन्होंने कहानी को कड़ियां दर कड़ियां जोड़ कर बताया है कि एक घटना के पीछे कितना कुछ घट जाता है। आजादी के इतिहास को जब नई पीढ़ी भूलने लगती है तो वह शायद ऐसे ही याद दिलाई जा सकती है। सन 1919 में हुए जलियांवाला हत्याकांड इस फिल्म में एक प्रेम कहानी का गवाह बना है। इसी फिल्म के बहाने नई पीढ़ी इस क्रूर इतिहास को शायद फिर याद करे। इस हत्याकांड को 98 साल हो गए हैं। जलियांवाला शताब्दी वर्ष में वहां के शहीदों के लिए शायद यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जलियांवाला बाग में सैकड़ों जान गई थीं। इसे हम आज तक सिर्फ आजादी से जोड़ कर जनरल डायर के अत्याचार के रूप में देखते हैं, लेकिन जो सैकड़ों लोग उन गोलियों के शिकार हुए उनके पीछे कितनी कहानियां छूट गईं। फिल्लौरी इन्हीं कहानियों में से एक है।
फिल्म के आखिरी दृश्य में शशि (अनुष्का शर्मा) को अपना प्यार (दलजीत दोसांझ) मिल जाता है। लेकिन उसी बाग में न जाने कितनी अतृप्त आत्माएं खाली हाथ ही रह जाती हैं। कितने प्रेमी, प्रेमिकाएं, मां, बेटे उस बाग में किसी के इंतजार में ही रह गए और वक्त बीतते हुए 98 साल बीत गए। दरअसल अगर इस नजरिये से फिल्म देखी जाएगी तो ही शायद उबाऊ न लगे।
शशि और कनन की कहानी समानांतर रूप से चलती है। दोनों जुड़ती भी नहीं सिवाय इसके कि बेकार के अंधविश्वास के चलते मांगलिक लड़के की शादी पहले पेड़ से हो जाए। सन 1900 की भावनाएं सन 2017 में आकर इतनी बदल जाती हैं कि शशि ने अपने प्रेमी के न आने पर फांसी लगा ली वहीं अनु का प्रेमी शादी को लेकर असमंजस में है तो वह कहती है, कोई भी इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता कि उसके लिए जान दे दो।
लाइफ ऑफ पाई के बाद सूरज शर्मा ने यह दूसरी फिल्म की है। अपने किरदार के सांचे में वह बिलकुल फिट बैठे। मेहरीन पीरजादा ने अपनी मासूमियत और संवाद से वाकई दिल जीत लिया। दो पृष्ठभूमि पर चलती फिल्मों में दर्शक ‘शिफ्ट’ नहीं हो पाते। लेकिन लोकगायक की भूमिका में दलजीत दोसांझ और उनकी प्रेमिका अनुष्का ने इतना सधा हुआ अभिनय किया है कि कहीं असमंजस की गुंजाइश नहीं रहती। बहुत बारीकी से फिल्म यह भी बताती है कि प्रेम खत्म नहीं होता बस उसे बनाए रखने की कोशिश होती रहनी चाहिए।