मुंबई में 60 के दशक में रमन्ना नाम के आदमी की दहशत तारी थी। उसे मनोविकार था और वह सड़क पर सोए लोगों को मार देता था। लेकिन फिल्म शुरू होने से पहले ही एक सूचना आती है कि यह फिल्म उस रमन के बारे में नहीं है। मुंबई की झग्गियों में, खाली सड़कों पर, नाली के आसपास यह फिल्म पनपती है। इस फिल्म का किरदार मनोविकार से ग्रस्त है। उसी के साथ-साथ एक और कहानी चल रही है एक नशेड़ी पुलिस वाले की।
साइको किलर रामन के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दकी ने गजब अभिनय किया है। उनका जैसे परकाया प्रवेश हो गया है। पुलिस वाले राघव की भूमिका में विकी कौशल वैसा प्रभाव नहीं जमा पाए जैसा उनसे पहली फिल्म मसान के बाद अपेक्षित था।
अंतर में जो बात अखरती है, वह बस इतनी कि मनोविकार होने के बाद भी रामन हत्या के तर्क खोजता है, सही दिमागी हालत होने के बाद भी राघव को कोई ग्लानि नहीं न उसे तर्क की जरूरत है। जब हत्या किसी कारण से हुई हैं तो जस्टिफिकेशन की क्या जरूरत। आखिर में रामन का राघव को दिया गया भाषणनुमा संवाद बिलकुल पैबंद की तरह लगता है।
हिंदी दर्शकों के लिए तो 2.0 भी पहेली सा ही है। नई तकनीक के लिए तकनीकी शब्द है 2.0। अनुराग ने इस 2.0 की हर डीटेलिंग का ध्यान रखा है। फिर भी यह एक खास वर्ग की ही फिल्म बन कर रह गई है।