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‘तीन’ तिलंगों की समीक्षा

सुजय घोष की फिल्म ‘कहानी’ ने हिंदी थ्रिलर को नया रूप दिया था। कहानी बहुत ‘पेस’ के साथ चलती है। तीन के निर्माता के तौर पर सुजाय रिभू दासगुप्ता को बताना भूल गए होंगे कि वह उनकी छाया से बाहर जाकर भी फिल्म बना सकते हैं।
‘तीन’ तिलंगों की समीक्षा

सत्तर साल का एक बूढ़ा जॉन (अमिताभ बच्चन) पुलिस की नौकरी छोड़ कर फादर बन गया एक व्यक्ति मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दकी) और एक महिला पुलिस अफसर सरिता (विद्या बालन) एक पुराने मामले से होते हुए नए मामले तक जुड़ जाते हैं। मार्टिन का अतीत जॉन के साथ जुड़ा है और वह दोनों ही एक-दूसरे को न छोड़ पाते हैं न साथ रह पाते हैं।

एक अपहरण कथा को रिभू दासगुप्ता ने जितना हो सकता था कुशलता के साथ फिल्माया है। लेकिन कहानी फिल्म का पीछा उनसे नहीं छूटता है। जैसे वह नहीं सोच पाए कि जिस व्यक्ति ने अपराध किया था यदि ठीक ऐसी ही वारदात उसके साथ होगी तो उसका रिएक्शन कैसे होगा। जिस व्यक्ति का पोता अपहृत हुआ वह पहले किसी की पोती का अपहरण कर चुका है तो उसे क्लू खोजना कहीं ज्यादा आसान नहीं होगा?

जैसे जॉन एक टोपी के सहारे कई चीजों की तफ्तीश खुद करता है, तो क्या मार्टिन जैसे काबिल अफसर जो पहले ऐसा मामला हो चुका है उसमें इतनी जल्दी हार कैसे मान लेता है और पलायन के तौर पर फादर बन जाता है। वह मन की शांति के लिए यदि फादर बनता है तो फिर मार्टिन की दी हुई सूची को इतनी लापरवाही से कैसे एक तरह रख देता है।

बहरहाल कुछ सवाल होने के बाद भी यह फिल्म सीट से हिलने नहीं देती है। इस फिल्म में बांधे रखने की क्षमता है और लगता है कि अंत के प्रति जिज्ञासा बनी रहती है। तीनों कलाकारों ने वास्तविक अभिनय किया है। खास कर नवाजुद्दीन इस फिल्म में कहीं-कहीं अमिताभ से ऊपर निकल गए हैं। अगर इस सप्ताहंत थ्रिलर देखना चाहें तो तीन बुरा विकल्प नहीं है। 

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