एक इमरजेंसी लाइट, एक हॉटकेस, एक कुकर और भी न जाने क्या-क्या सुलू ने अलग-अलग कॉम्पीटिशन में पुरस्कार के रूप में जीता है। नीबू रेस में फर्स्ट आने से ज्यादा जरूरी है कि नीबू चम्मच से न गिरे। बैलेंस भी तो बड़ी बात है! यह सुलू का दर्शन है। सब्जी काटने जैसे फालतू काम में भी सुलू परफैक्ट है, इतनी कि कॉम्पिटिशन में पुरस्कार ले आती है। आम गृहिणी सुलू जो बताती है कि उत्साह हो तो जीवन का हर काम आसान है।
निर्देशक सुरेश त्रिवेणी ने सुलू के रूप में ऐसी मजबूत गृहिणी रची है जिसके लिए डिग्री के कोई मायने नहीं हैं। सालों साल विद्या बालन सुलू के रूप में याद की जाएंगी। फिल्मी परदे पर बिजनेस सूट पहन कर मीटिंग करने वाली, वर्दी पहन कर आत्मविश्वास दिखाने वाली तमाम स्त्री पात्रों को पीछे धकेल कर साड़ी पहनने वाली सुलू ने फिल्मी इतिहास में अपनी जगह बना ली है। इसे सिर्फ शब्दों की जादूगरी मत समझिए क्योंकि किसी गृहस्थन को अभी तक हिंदी सिनेमा ने इतनी तवज्जो नहीं दी है। सुलू ने बताया है कि जज्बा हो तो हर सपना पूरा होता है, कदम बढ़ाए बिना यह शिकायत आम है, ‘हमें मौका नहीं मिला।’
सुरेश त्रिवेणी ने जितनी सहजता से वातावरण रचा है उतने ही सहज उनके किरदार हैं। सुलू के पति बने मानव कौल अशोक के रूप में कंपनी की यूनीफॉर्म पहने ऐसे लगते हैं जैसे वह कभी मानव कौल थे ही नहीं, हमेशा से अशोक दुबे ही रहे हैं। सुलू की जुड़वां बहने, ‘हां दीदी, जी दीदी’ के तकिया कलाम लिए जब भी आती हैं माहौल कभी हल्का तो कभी भारी हो जाता है। रेडियो स्टेशन की मैनेजर मारिया के रूप में नेहा धूपिया भी फिल्म में सधे हुए कदमों से चली हैं।
सुलू की कहानी बताना जरूरी नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि सुलू ने सब कैसे हासिल किया। कुछ बातें फिल्मी लग सकती हैं, लेकिन लगने दीजिए, अर्जुन की तरह उस लक्ष्य पर नजर रखिए कि सुलू ने अपनी हिम्मत नहीं हारी बाहरवीं फेल होने के बाद भी। उसे सब कुछ करना है, हर दिन कुछ नया करना है, तभी तो वह कहती है, ‘मैं ये कर सकती है।’ वाकई सुलू तुमने कर दिखाया।
आउटलुक रेटिंग 3 स्टार