निर्देशक बिजॉय नांबियार ने फिल्म का अंत भले ही बहुत आसान कर दिया हो लेकिन फिल्म की गति और एक ‘टू द पॉइन्ट’ दृश्य दिखाती यह फिल्म गहरी छाप छोड़ती है। हालांकि कुछ दृश्यों पर शूजित सरकार की मद्रास कैफे का असर भी देखा जा सकता है। पर फिर यह सराहनीय फिल्म है।
ठाकुर हाथ न होने से मजबूर था तो ओंकार नाथ धर (अमिताभ बच्चन) के पैर नहीं हैं। उसे अपनी बेटी की मौत का बदला लेना है और वह ऐसे ही एक पीड़ित पिता (फरहान अख्तर) को खोजता है और आखिर में बुराई पर भलाई की जीत होती है।
अमिताभ इस उम्र में भी अपनी अदाकारी से दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम हैं। फरहान अख्तर ने एक दुखी पिता, एक सक्षम अधिकारी की भूमिका को बेहतर ढंग से निभाया है। अदिति राव हैदरी का रोल छोटा है पर वह उसके साथ न्याय करती हैं।
दरअसल यह निर्देशक की फिल्म है। कमान बिजॉय नांबियार ने अपने हाथ में ही रखी है। कश्मीर की पृष्ठभूमि, वहां का अतिवाद और उसके दिल्ली से जुड़े तारों को उन्होंने ठीक से बांधे रखने का भरसक यत्न किया है। यह अलग बात है कि इंटरवेल के पहले की फिल्म और बाद के हिस्से में बहुत अंतर है। अंत में दर्शकों की उत्सुकता और रोमांच को वह एक और ट्विस्ट देते हैं पर वह नाकाफी है।
शतरंज के खेल को आधार बना कर बिजॉय ने यह बताने की कोशिश की है कि कैसे जिंदगी भी शह-मात का खेल है। कहानी विधु विनोद चोपड़ा की है। जिस पर स्क्रीन प्ले लिखा गया है। संवाद इस फिल्म का प्रबल पक्ष है।