“मनोज बाजपेयी महज अभिनय नहीं करते, पात्रों में पूरी तरह रच-बस जाते हैं”
मनोज बाजपेयी के व्यक्तित्व में ऐसा कुछ है, जो आपको उनकी ओर खींचता है; कुछ बेहद सहज, सरल लेकिन आकर्षक। पहली बार मैं आशीष विद्यार्थी के साथ उनसे मिला और फौरन दोस्ती हो गई। यह दोस्ती आज तक जारी है।
पहली बार मैंने उनके साथ 1994-95 में एक टीवी धारावाहिक कलाकार में काम किया था। बतौर अभिनेता उनमें काफी निखार आया है। अपने हुनर के बारे में उनकी समझ लाजवाब है। मैंने उनसे चरित्र चित्रण के महत्व और एक अभिनेता द्वारा चरित्र की व्याख्या करने के महत्व के बारे में सीखा है।
एक अभिनेता के रूप में आपको जो भी किरदार निभाना हो, भले ही आप वास्तविक जीवन का कोई किरदार निभा रहे हों, उसकी नकल नहीं की जा सकती। आपको उस चरित्र में पैठकर उसकी ऐसी व्याख्या करनी होगी और उसे पूरी तरह अपना बनाना होगा कि जब आप उसे स्क्रीन पर देखें, तो आपको एकदम 360 डिग्री बदला हुआ लगे। यह कुछ ऐसा है जो मैंने मनोज में देखा और वर्षों उसकी प्रक्रिया से सीखा है।
दिल पर मत ले यार (2000) से लेकर अलीगढ़ (2016) तक में मैंने यह भी महसूस किया कि मनोज शुरुआती दिनों में अपने पात्र में इतना रम जाते थे कि दिन में शूटिंग पूरी होने के बाद भी उसी रंग-ढंग में बने रहते थे। उसे वे इस तरह अपने ऊपर हावी कर लेते थे, मानो उनका पूरा वजूद उस पात्र में घुल गया हो। जब हमने साथ में अलीगढ़ खत्म की तो मैंने पाया कि वे अपने हुनर में ज्यादा सहज और सुकून के साथ पारंगत हैं। अब भी वे उस प्रक्रिया का पालन करते हैं लेकिन उन लोगों की संगति का भी आनंद लेते हैं जिनके साथ वे काम कर रहे होते हैं। मुझमें यह कहने की हिम्मत है, अब वे बहुत मजा करते हैं।
अलीगढ़ के लिए मनोज पहली पसंद नहीं थे। लेकिन जब कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा ने मनोज का नाम सुझाया तो मैंने उन्हें फोन किया और उनके घर चला गया। जल्द ही, हम उनकी बालकनी में खड़े थे और यह हो गया। मुझे पता था, किरदार चाहे 40 साल का हो या 90 साल का, वे अपने तरीके से ही निभाएंगे। मुझे पता था वे जो भी करेंगे, वह खूबसूरत होगा। मैं उनके बारे में पूरी तरह आश्वस्त था। जो हुआ, वह मेरी उम्मीदों से भी परे था। एक अभिनेता को अपने शिल्प पर पूरे नियंत्रण में देखना बेहद मजेदार था। इसलिए जब मनोज को अलीगढ़ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिला तो मैं गुस्से में था। मैं अभी तक नाराज हूं। मैं इसे शायद अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन मानता हूं। बेशक, उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में एपीएसए पुरस्कार और अलीगढ़ के लिए कई अन्य पुरस्कार जीते लेकिन मुझे लगता है, उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से वंचित किया गया।
हमारे बारे में कम चर्चित वाकयों में एक यह है कि गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012) की कहानी सबसे पहले उसके पटकथा लेखक जीशान कादरी और सह-लेखक हमारे पास लाए थे। मुझे लगा कि यह बहुत अच्छा आइडिया है। मैं सीधे मनोज के पास गया और उन्हें नायक की भूमिका के लिए कहा। उन्होंने हामी भरी और कहा कि फिल्म को लेकर गंभीर हूं, तो वे पैसे भी लगाएंगे। मैं पैसे नहीं जुटा पा रहा था। आखिरकार अनुराग कश्यप ने फिल्म बनाई।
जब अनुराग फिल्म पर काम शुरू करने वाले थे, तो मैंने उनसे कहा, ‘‘उम्मीद है आप मनोज को फिल्म में कास्ट करेंगे।’’ अनुराग ने वादा नहीं किया था लेकिन हां, उन्होंने उस पर ध्यान दिया। मैं इसके लिए खुश था क्योंकि गैंग्स ऑफ वासेपुर मनोज वाजपेयी के पुनरुत्थान की तरह था।
दिल पे मत ले यार के बाद बेवजह मनोज और मेरे बीच बचकानी अनबन हो गई। 2006 में फिर से मिलने तक हमने कई साल बात नहीं की। मैं उस समय संजय गुप्ता की प्रोडक्शन कंपनी संभाल रहा था और मनोज उनकी दस कहानियां (2007) कर रहे थे। मुझे उनसे मिलने के लिए मजबूर किया गया। साल बाद शाम को हम दोनों मिल कर वाइन पी रहे थे और इस बात पर हंस रहे थे कि हम दोनों के बीच क्या हो गया था और आखिर क्यों हम दोनों ने इतने साल आपस में बात न कर बर्बाद कर दिए।
मेरा तरीका लोकतांत्रिक है। मैं अभिनेता को काम करने की आजादी देता हूं। मनोज उस तरह के अभिनेता हैं जो अपने किरदारों को पूरी तरह से खोजते हैं। अलीगढ़ बनाते हुए सर्दियों में बरेली में हमने बहुत मस्ती की। वे इतनी ज्यादा सर्दी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। फिर भी हमने एक गंभीर फिल्म बनाते हुए खूब मजा किया।
अभिनेता मनोज को अब ओटीटी का सुपरस्टार कहा जा रहा है। यह एक विश्वव्यापी रुझान है। यह जोनाथन हैम जैसे अभिनेता के साथ हुआ है, जिन्होंने अमेरिकी शृंखला मैड मेन (2007-15) में डॉन ड्रेपर की भूमिका निभाई है। अभिनेता स्टार बन रहे हैं और ओटीटी के कारण उन्हें उनका हक मिल रहा है। स्कैम 1992 के बाद प्रतीक गांधी स्टार बने और ओटीटी की वजह से मुझे भी मेरा हक मिल रहा है।
वास्तव में मनोज और मैंने लॉकडाउन के दौरान मिलकर खूब मजा किया। हमने एक साथ जीवन शुरू किया। कलाकार के रूप में आप चाहते हैं कि दुनिया आपकी काबिलियत पहचाने। खुशी होती है कि आखिरकार आपका शिल्प बड़े वर्ग तक पहुंच गया। मुझे लगता है वे जो भी हासिल कर रहे हैं वो उसके हर कतरे के, बल्कि उससे भी ज्यादा के हकदार हैं। उम्मीद करता हूं कि जल्द ही हम मिल कर और काम करेंगे।
जैसा गिरिधर झा को बताया
(लेखक फिल्म निर्माता हैं। फिल्म अलीगढ़ और शाहिद और वेब सीरिज स्कैम 1992 के लिए चर्चित)