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जुनून का उत्सव गोवा फिल्मोत्सव

गोवा फिल्म उत्सव की राह बेसब्री से देखी जाती है। पूरी दुनिया की बेहतरीन फिल्में, मंजे हुए निर्देशक, देश-विदेश के नामी कलाकारों के बीच सीखने को आतुर युवा, फिल्मी दुनिया में नाम कमाने की हसरत लिए हुए लेखक, अभिनेता भी यहां जुटते हैं। इस बार इस आउटलुक के लिए एक फिल्म निर्देशक के नजरिये से देश के सबसे बड़े फिल्म उत्सव का लेखा-जोखा।
जुनून का उत्सव गोवा फिल्मोत्सव

वह बेहद दुबला पतला और दिखने में कमजोर सा लड़का था। गोवा के जे डब्लू मेरियट की लॉबी से उसकी आंखें अरब सागर में न जाने क्या खोज रही थीं। छियालिसवें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह और फिल्म बाजार की चकाचौंध में वह नौजवान कहीं से भी फिल्मी नहीं लग रहा था। गोवा में अपने सपने को जीने आए फिल्मकारों, कलाकारों का वह पहला दिन ही था। मैं बहुत देर से उस नौजवान को देख रहा था। वह कभी फिल्म बाजार में आए बड़े-बड़े चेहरों को ताकता, उनके पास जाने की कोशिश करता, कुछ सहम जाता तो रूक जाता और फिर समंदर की तरफ देखने लग जाता। मुझे जिज्ञासा हुई। इच्छा हुई उस नौजवान से मिलने की। यह कौन है, कहां से आया है और क्यों आया है?  जब मुझ से रहा नहीं गया तो मैं उसके पास गया। उस लड़के ने अपना नाम एनजीएन बताया। मैंने उससे कहा, 'बड़ा फिल्मी नाम है।’ वह हंसने लगा और बोला, 'मेरा पूरा नाम नरेंदर गौड़ नागुलूरी है। इतना लंबा नाम यहां के माहौल के हिसाब से कुछ शायद अजीब सा है, इसलिए मैं सबको एनजीएन ही बताता हूं।’ मुझे बात में दम लगा। धीरे-धीरे पता चला वह तेलंगाना से आया है और उसके इस नाम की प्रेरणा एनटीआर हैं। एनजीएन ने बताया कि उसकी तेलंगाना फिल्मस नाम से एक छोटी सी कंपनी है और वह गोवा में अपनी कहानी, अपनी फिल्मों और अपने सपनों को पंख लगाने आया है। दुनिया भर से आए बड़े फिल्मकारों से मिलना चाहता है, उन्हें अपनी कहानियां सुनाना चाहता है पर कुछ घबरा रहा है। यह उस फिल्म बाजार के पहले दिन की बात थी। पांचवें दिन मैंने देखा वही एनजीएन सुंदर सी विदेशी महिला के साथ बहुत देर से बड़े विश्वास  के साथ बात कर रहा है। बाद में मैने पूछा, 'क्या चल रहा है एनजीएन?’ उसने खुश होकर बताया, अभी-अभी उसने प्रोडक्शन कंपनी की प्रोड्यूसर को अपनी कहानी सुनाई है और शायद बात बन जाएगी।

गोवा में अपनी बात सुनाने और बनाने के लिए एनजीएन जैसे सैकड़ों और लोग थे और मुझे लगता है कि यही है इस फेस्टिवल और फिल्म बाजार की सबसे बड़ी ताकत। मुंबई तो सबसे बड़ा केंद्र है ही पर जो बात सबसे ज्यादा हैरान और खुश करने वाली थी, वह यह कि 25-30 साल के नए-नए कहानीकार, फिल्मकार बनने का सपना संजो कर कोई कोल्हापुर से, कोई अंबाला से तो कोई इंदौर से यहां आया है।  सबसे अच्छी बात यह कि सबके पास न सिर्फ कहानियां हैं बल्कि अच्छी कहानियां हैं। मुझे लगता है, वह वक्त दूर नहीं, जब इनमें से कुछ कहानियां बड़े पर्दे पर दिखेंगी।

इस बार गोवा फिल्म उत्सव में एक बात मुझे और बहुत पसंद आई, नामी फिल्मकारों और इंडस्ट्री के दिग्गज जानकारों के रोज होने वाले सेशन। आपके पास कहानी है, लेकिन प्रोड्यूसर नहीं है, तब भी बहुत कम बजट में आप एक शानदार फिल्म कैसे बना सकते हैं। आपके पास फिल्म तैयार है पर रिलीज करने के लिए डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी नहीं है तो फिल्म कैसे रिलीज की जा सकती है? कुछ फिल्में बताई गईं, दिखाई गईं जो आईफोन से ही बनाई गईं थीं। कुछ ऐसी फिल्मों का भी जिक्र आया जो इंटरनेट पर ही रिलीज होने के बाद धूम मचा चुकी हैं। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, सुजॉय घोष की शॉर्ट फिल्म, अहिल्या को ही ले लीजिए। कुल तीन कलाकार, ज्यादा से ज्यादा दो या तीन दिन का शूट। और इस फिल्म ने कितना नाम कमाया यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।

सौभाग्य रहा मेरा, इस बार अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के एक कार्यक्रम में फिल्मकार श्याम बेनेगल के साथ मंच साझा करने का मौका मिला। बात-बात में मैंने उनसे पूछा, 'आपके वक्त में और आज के माहौल में आपको सबसे बड़ा फर्क क्या लगता है?’ श्याम जी ने कहा, 'आज अगर आपके पास अच्छी कहानी है तो आप फिल्म बना सकते हैं। अब फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के कई जरिये हो गए हैं। इतना ही नहीं, तमाम बड़े फिल्म फेस्टिवल में अब इतने भारतीय फिल्मकार जाने लगे हैं कि वहां भी नाम कमा सकते हैं। किसी कहानीकार या फिल्मकार के लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है।’

जहां तक इस बार समारोह में आई फिल्मों की बात है, तो इसकी तो वाकई तारीफ  करनी चाहिए। छब्बीस देशों की इस साल ऑस्कर अवॉर्ड के लिए नामांकित हुई फिल्में अगर एक ही फेस्टिवल में देखने को मिल जाएं तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। मेरी व्यक्तिगत पसंद तो ब्रिटिश फिल्म,  द डैनिश गर्ल, ईरानी फिल्म दि मैन हू बिकेम हॉर्स और तुर्की फिल्म मुस्तांग रही। इनके अलावा बाकी फिल्में भी अद्भुत हैं। ऐसी फिल्मों को देखने के बाद और इन पर बज रही तालियों की गड़गड़ाहट के बाद एक बात तो तय है कि भारत में भी ऐसी संजीदा फिल्मों के दर्शक हैं। पर भारत में ऐसी फिल्में न के बराबर बनती हैं। बहुत शिद्दत से मैं यह मानता हूं कि चेन्नई एक्सप्रेस, हिम्मतवाला, हाउसफुल, बैंग-बैंग जैसी भारी बड़े बजट की फिल्में बनाने वाले बड़े-बड़े स्टूडियोज को बेहतरीन कहानी और विषय वाली फिल्मों की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। इस पर यह नहीं कहा जाना चाहिए कि दर्शक नहीं हैं। दर्शक सच में बहुत हैं पर उनके पास तक अच्छी फिल्में नहीं पहुंच रहीं। 

एक तस्वीर पर यकीन ही नहीं हुआ। इंडियन पैनोरोमा सेक्शन से नाचोम-ला-कुंपासर नाम की कोंकणी फिल्म का चयन हुआ है। जिस दिन पहली बार यह फिल्म गोवा में दिखाई गई, उस दिन हॉल के बाहर कम से कम एक हजार ऐसे लोग घूम रहे थे जिन्हें फिल्म का टिकट नहीं मिल पाया था। संभव है इस लेख को पढ़ने तक भी ज्यादातर लोगों ने इस फिल्म के बारे में नहीं पढ़ा-सुना होगा। लेकिन यह अच्छी फिल्म की ताकत है। अच्छी फिल्में बनेंगी, तो दर्शक दौड़ा-दौड़ा चला आएगा।

इंडियन पैनोरोमा में इस बार अच्छी फिल्में आई हैं। बस थोड़ा दुख हुआ कि विदेशों में धूम मचा रही कन्नड़ फिल्म- तिथि, तमिल फिल्म विसारनाई और एनएफडीसी की आइलैंड सिटी को जगह क्यों नहीं मिली? ऐसी फिल्में अपने देश में चल रहे फेस्टिवल में ही जगह नहीं पाती हैं तो निराशा होती है। ऐसा ही कुछ पिछले साल मराठी फिल्म, कोर्ट के साथ हुआ था। हैरानी की बात थी कि दुनिया भर में डंका बजाने वाली यह फिल्म 45वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का हिस्सा नहीं थी। वह तो इस साल कोर्ट को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया तो फिल्म अपने आप शामिल हो गई। पर ऐसी चूक बेहतरीन फिल्मों के साथ नहीं होनी चाहिए। यही फिल्म इस साल भारत की तरफ से ऑस्कर अवॉर्ड के लिए भी जा रही है।

इन सबके बावजूद इस तरह के महोत्सव एक अनुभव हैं जो आपको कम से कम दो-तीन महीने की अच्छी खुराक तो दे ही देते हैं। कहते हैं, इंसान के सीखने की कोई उम्र नहीं होती। गोवा से हर कोई कुछ न कुछ लेकर जाता है। चाहे वह बड़ा फिल्मकार हो या मेरे जैसा एकदम कच्चा और नया। इसलिए अगर आप अच्छी फिल्में देखने के शौकीन हैं या अच्छी फिल्में बनाना चाहते हैं तो अगली बार गोवा जरूर पहुंचिए। हम भी फिर से सीखने पहुंच जाएंगे।

(लेखक मिस टनकपुर हाजिर फिल्म के निर्देशक हैं।)

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