गुलजार को इंसान कहना, उनकी शख्सियत को सीमित करना होगा। गुलजार हवा की तरह हैं, जिन्हें कोई सरहद बांध नहीं सकती। गुलजार बनना नामुमकिन है। जब ईश्वर का करम होता है तो सदियों में कोई गुलजार अस्तित्व में आता है। गुलजार ईश्वर की वह संतान हैं, जिन्हें ईश्वर ने अपनी कलम देकर दुनिया में भेजा है। वगरना किसी इंसान के लिए शब्दों से ऐसा सम्मोहन रच पाना मुश्किल है।
गुलजार का जन्म 18 अगस्त 1934 को मौजूदा पाकिस्तान के इलाके दीना में हुआ। गुलजार ने जब होश संभाला तो भारत का विभाजन उनकी तरफ देख रहा था। विभाजन की घटना इतनी भयानक थी कि गुलजार अक्सर नींद से जग जाते थे। उन्हें डरावने सपने आते थे। गुलजार को नींद में वो मंजर दिखाई पड़ते थे, जब सड़क पर से जिंदा जलाए गए इंसानी जिस्मों को खुरचकर निकाला जाता था और फिर एक गाड़ी में भरकर उनकी अंतिम क्रिया होती। इस पीड़ा, इस खौफनाक घटना का असर गुलजार की कलात्मक अभिव्यक्ति में खूब महसूस होता है। गुलजार को किताबों का बड़ा शौक था। वो अफसाने और कविताएं शौक से पढ़ा करते। उनके पिता की नजर में यह फिजूल का काम होता। वो हमेशा गुलजार को शायरी से दूर रहने की हिदायत देते।
विभाजन के बाद जान बचाकर,अपने परिवार के साथ हिंदुस्तान आए गुलजार पढ़ना चाहते थे। मगर घर के आर्थिक संकट इसकी इजाजत नहीं दे रहे थे। गुलजार को अपने बड़े भाई के पास मुंबई जाना पड़ा। मुंबई में गुलजार ने मोटर गैराज में काम शुरू किया। गुलजार उन गाड़ियों की रंगाई करते, जिनका एक्सीडेंट हुआ होता था। इस काम में गुलजार को पढ़ने लिखने का समय भी मिलता और उनका खर्चा भी चलता रहता। गुलजार तरक्की पसंद तहरीक का हिस्सा थे। सरदार जाफरी, कृष्ण चंदर, राजेन्द्र सिंह बेदी को सुनकर गुलजार अदब की दुनिया में कदम रख रहे थे। उनकी इच्छा थी कि वह लेखक बनकर किताबें लिखें। मगर उनके दोस्त और हिन्दी सिनेमा के महान गीतकार शैलेन्द्र ने उन्हें फिल्मी गीत लिखने के लिए कहा। शैलेंद्र बिमल रॉय की फिल्म बंदिनी के गीत लिख रहे थे लेकिन संगीतकार सचिन देव बर्मन से हुई बहस के कारण उन्होंने फिल्म छोड़ दी। तब उन्होंने गुलजार को बिमल रॉय के पास जाने के लिए कहा। गुलजार बिमल रॉय के पास गए और उन्होंने ऐसा गीत लिखा, जो इस बात का सुबूत बना कि गुलजार आम और सतही बात कहने वाले फनकार नहीं हैं। गुलजार ने लिखा " मोरा गोरा अंग लई ले" और यह बताया कि जिस समाज में गोरे रंग के लिए लोग पागल हैं, वहां प्रियतम से मिलने के लिए नायिका उस गोरे रंग को त्याग देने के लिए तैयार है।
बिमल रॉय के साथ गुलजार का आत्मीय संबंध था। गुलजार की प्रतिभा देखकर बिमल रॉय ने उन्हें मोटर गैराज में काम नहीं करने दिया। बिमल रॉय ने गुलजार को अपना असिस्टेंट रख लिया। बिमल रॉय के इस अपनेपन से गुलजार की आंखों में आंसू छलक पड़े। गुलजार ने बिमल रॉय की फिल्मों में काम किया। स्क्रिप्ट के संवाद सुधार से लेकर फिल्म निमार्ण में जो सहयोग मुमकिन था, गुलजार ने दिया। गुलजार के लिए बिमल रॉय पितातुल्य थे। गुलजार ने आखिरी समय तक बिमल रॉय की सेवा की। गुलजार जब संघर्ष के दौर से बाहर निकल कुछ ठीक ठाक काम कर रहे थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई। घरवालों को लगा कि गुलजार ने बड़ी तकलीफें सहकर अपनी मंजिल की तरफ कदम बढ़ाया है। इसलिए उन्होंने गुलजार को पिता की मृत्यु की सूचना नहीं दी। जब तक अन्य माध्यम से गुलजार तक पिता का शोक संदेश पहुंचा, पिता की अंत्येष्टि क्रिया संपन्न हो चुकी थी। पिता की सेवा और आखिरी दर्शन न कर पाने का मलाल गुलजार के मन में कांटे की तरह चुभ गया। जीवन के अंतिम दिनों में जब बिमल रॉय बीमार पड़े तो गुलजार ने एक पुत्र की तरह उनकी सेवा की। बिमल रॉय के निधन पर गुलजार ने एक बेटे की तरह अपने फर्ज निभाए। इस तरह से गुलजार के मन में फंसा हुआ कांटा बाहर निकला।
गुलजार ने अपने गीतों में खूब प्रेम लिखा। मगर इन्हीं गुलजार के गानों में एक अधूरापन भी महसूस होता है। प्यार का अकेलापन दिखाई देता है। इस संदर्भ में गुलजार कहते हैं कि गीतों में वह अपना दर्द, अपना सूनापन, अपनी कमी व्यक्त करते हैं। उनकी कोशिश किसी को भी रुलाने की नहीं होती बल्कि वो स्वयं गीत लिखते हुए जार जार रोते हैं। गुलजार ने राखी का हाथ तब थामा, जब राखी अपने वैवाहिक जीवन से निराश हो गई थीं और अकेलेपन का साथी ढूंढ़ रही थीं। मगर गुलजार और राखी का यह साथ भी अधिक न चला। गुलजार और राखी की बगिया में मेघना नाम का फूल खिला और उसके बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए। दोनों ने कभी एक दूजे पर कीचड़ नहीं उछाला। आज भी दोनों मुहब्बत और खुलूस के साथ मिलते हैं। गुलजार को राखी के हाथ की बनी मछली याद आती है। बंगाल, टैगोर से प्रेम उन्हें राखी के और करीब ले जाता है।
गुलजार का आर डी बर्मन के साथ बड़ा याराना था। दोनों ने हिन्दी सिनेमा को बेहतरीन गीत संगीत के तोहफे से नवाजा। गुलजार और आर डी बर्मन के रिश्ते में एक बेतक्ल्लुफ अपनापन था। यही कारण है कि फिल्म आंधी के लिए गुलजार ने आरडी बर्मन से उनकी भजन की धुन मांग ली और उस पर लिखा " तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं"। गुलजार का यह गीत ऐसी कसक पैदा करता है कि मन में इच्छा उठती है कि कोई कसकर गले से लगा ले।
गुलजार आनंद जैसी फिल्म के संवाद लिखते हुए जिंदादिली की वकालत करते हैं तो मासूम का गीत "तुझसे नाराज नहीं जिंदगी" लिखकर अपने उदार हृदय का परिचय भी देते हैं। गुलजार जब "कोशिश" बनाते हैं तो बताते हैं कि शब्द आज भी वह नहीं कह पाते जो खामोशी कह जाती है। गुलजार "अंगूर" बनाकर अपने सेंस ऑफ ह्यूमर का नमूना पेश करते हैं।
गुलजार गालिब से बहुत प्रभावित रहे हैं। उनकी शख्सियत में जगह जगह गालिब और बिमल रॉय मिलते हैं। गालिब के शेर से प्रेरणा लेकर जब जब गुलजार कुछ लिखते हैं तो उनके चेहरे की खुशी छिपाए नहीं छिपती है। गुलजार की चाहत थी कि वो गालिब पर फिल्म बनाएं। उन्होंने संजीव कुमार के साथ इसकी योजना भी बनाई। मगर संजीव कुमार की असमय मृत्यु के कारण गालिब पर फिल्म नहीं बनी। जब इंदिरा गांधी ने दूरदर्शन को समृद्ध किया तो इसकी पहुंच देशभर में घर घर तक हुई। इसी से बड़े निर्माता निर्देशक दूरदर्शन की तरफ आकर्षित हुए। इन्हीं में एक गुलजार भी रहे, जिन्होंने दूरदर्शन के लिए नसीरुद्दीन शाह के साथ गालिब टीवी सीरियल बनाकर अपना ख्वाब पूरा किया। गुलजार खुद को गालिब की हवेली का एक खादिम ही मानते आए।
गुलजार की शायरी समय से परे है। यह दिन प्रति दिन और जवान और गहरी उतरती जाती है। गुलजार आज भी गीत लिखते हैं। विशाल भारद्वाज के साथ उनका वही संबंध दिखता है, जो संबंध बिमल रॉय और उनके बीच में था। प्रकृति अपना चक्र हमेशा पूरा करती है। इस दुनिया मे जब तक एहसासों को समझने और महसूस करने वाले दिल धड़कते रहेंगे, तब तक गुलजार की शायरी की खुश्बू चमन को महकाती रहेगी।