इरशाद कामिल समकालीन फिल्म गीत लेखन के सबसे बड़े स्तंभ हैं। वह मौजूदा दौर के उन चुनिंदा गीतकारों में शामिल हैं, जिन्हें उनके शब्दों के साथ साथ, उनके नाम और उनके चेहरे से जाना जाता है। मगर शोहरत और कामायाबी की यह दास्तां इतनी हसीन नहीं है, जितनी नजर आती है।
जब इरशाद कामिल काम की तलाश में मुम्बई आए तो उनके सामने एक बड़ा संघर्ष था। इरशाद कामिल का फिल्म जगत में कोई जान पहचान का नहीं था। उनके खानदान से कभी कोई फिल्मी कलाकार बनने नहीं गया था। यानी इरशाद कामिल हर ढंग से सिनेमाई दुनिया के लिए नए और अपरिचित थे।
संघर्ष के इन दिनों में ऐसे कई मौके आए, जब इरशाद कामिल टूटने लगे। मगर उन्होंने हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा है। हौसला बरकरार रखा और मुसीबतों का सामना किया। संघर्ष, हौसले और हिम्मत की एक ऐसी ही घटना इरशाद कामिल के जीवन में दिखाई देती है, जो भावुक भी करती है और इरशाद कामिल के लिए सम्मान का भाव भी पैदा करती है।
इरशाद कामिल मुंबई में संघर्ष कर रहे थे लेकिन सफलता नहीं मिल रही थी। उनकी आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर हो गई थी। मुंबई जैसे महानगर में रहना दुश्वार हो रहा था। एक रोज इरशाद कामिल को उनकी माताजी ने फोन किया। फोन पर माताजी ने इरशाद से जिद की कि वह किसी भी तरह से ईद पर घर आएं। मां की जिद पर इरशाद कामिल का मन भावुक हो गया। वह भी संघर्ष के बीच में मां की ममता की छांव महसूस करना चाहते थे। मगर इरशाद कामिल ने मां को मना कर दिया।
इरशाद ने मां से कहा "मां, यहां काम बहुत है, इस बरस ईद पर आना न हो पाएगा।" फ़ोन रखकर इरशाद कामिल बहुत देर तक फूट फूटकर रोए। दरअसल बात यह थी कि इरशाद कामिल के पास कोई काम नहीं था, बदहाली का दौर था। उनके बैंक में कुल 430 रुपए थे और गांव जाने के लिए टिकट का किराया था 470 रुपए। इरशाद कामिल में खुद्दारी भरी हुई थी। वह किसी के आगे हाथ फैलाकर, उधार लेकर मां के पास ईद मनाने नहीं जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मां से झूठ बोलते हुए, मां की जिद अस्वीकार कर दी। इरशाद कामिल पूरे समर्पण, ईमानदारी से अपने काम में लगे रहे और आने वाले वर्षों में हिन्दी सिनेमा के सफल गीतकार के रुप में स्थापित हुए।