मन तरपत....हरि दरसन को आज... सुनते ही मोहम्मद रफी के सुर की मसीहाई रूह तक पहुंच जाती है। आवाज का वह जादुई एहसास आपको किसी और दुनिया में ले जाता है, जो बेशक अपने दौर की संवेदनाएं समेटे हुए है। उसमें आजादी के बाद की दौर की उम्मीदें, आकांक्षाएं, प्रेम, सद्भावना, भाईचारे की जैसे मिठास है, जिसमें उस वक्त के प्रभावी गांधी और नेहरूवाद की खनक है। रफी साहब के दुनिया को अलविदा कहे 44 साल हो गए, लेकिन उनके सुर हमेशा वही एहसास जगाते रहेंगे। रफी ने पार्श्व गायकी को नई ऊंचाई दी। उन्होंने गायकी में अदायगी का नया रंग घोला। इस भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसे लोगों की संख्या अब भी लाखों में होगी जिनका मानना है कि हिंदुस्तानी फिल्म संगीत के शहंशाह तो मोहम्मद रफी ही हैं।
रफी को गाने का शौक दस साल की उम्र में लगा। उनके मोहल्ले में एक फकीर आया करता था, जो गाना गाकर लोगों से भीख मांगता था। रफी के ऊपर उस फकीर की आवाज का जादुई असर हुआ। उनके भीतर ललक पैदा हुई कि वह भी ऐसा ही गाएं। एक महान गायक के सांगीतिक सफर की शुरुआत इस तरह से हुई। रफी के लिए यह सफर आसान नहीं था। जब उन्होंने गाना शुरू किया तो सबसे अधिक विरोध उनके पिता ने किया। गाने के कारण घर में उनकी पिटाई भी हुई, लेकिन रफी के लफ्जों में कहें तो जीत संगीत की हुई। समर्पण, जुनून के साथ की गई मेहनत रंग लाई और संगीत जगत के आसमान में उनका चमकता सितारा बुलंद हुआ।
रफी को पहली बार मंच पर गाने का मौका भी जिस तरह से मिला, वह कहानी पूरी तरह फिल्मी है। एक बार हिंदी सिनेमा के महान गायक कुंदन लाल सहगल लाहौर में एक स्टेज शो के लिए पहुंचे। उस शो में रफी भी मौजूद थे। उनकी उम्र तब सिर्फ तेरह साल की थी। उनमें गायकी को लेकर बहुत ललक थी। जब उन्हें पता लगा कि महान गायक सहगल कार्यक्रम में गाएंगे तो वह सबसे पहले आकर बैठ गए, लेकिन नसीब ने तो कुछ और ही तय कर रखा था। सहगल की प्रस्तुति से पहले ही वहां बिजली गुल हो गई। जब काफी देर तक बिजली नहीं आई तो श्रोताओं का धैर्य जवाब देने लगा। आयोजकों को कुछ सूझ नहीं रहा था कि भीड़ को कैसे शांत करें। तभी किसी ने आयोजकों से कहा कि जब तक बिजली नहीं आती, तब तक एक लड़के को गाने का मौका दिया जाए। आयोजकों के पास कोई और विकल्प नहीं था। उन्होंने जिस लड़के को गाने का मौका वह कोई और नहीं, मोहम्मद रफी थे।
रफी स्टेज पर पहुंचे और उन्होंने गाना शुरू किया। उनकी गायकी सुनकर सभी हैरान रह गए। तेरह साल का एक बच्चा इतने सधे हुए सुर में गा रहा था कि उसकी आवाज से सब मंत्रमुग्ध हो गए थे। इसी महफिल में फिल्म संगीतकार श्याम सुंदर भी मौजूद थे। उन्होंने रफी की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें मुंबई आकर प्लेबैक सिंगर बनने का ऑफर दिया। रफी इसी दिन के इंतजार में थे। श्याम सुंदर के न्योते पर वे मुंबई पहुंचे और उन्होंने पंजाबी फिल्म गुल बलोच में गाना गाया। इस तरह फिल्मों में उनके पार्श्व गायन की शुरुआत हुई। आगे चलकर उन्हें पार्श्व गायकी के तानसेन की उपाधि मिली।
प्रतिभा के अलावा उनकी इंसानियत और जमीन से जुड़ी शख्सियत ने उन्हें महान बनाया। उनके करियर के दौरान घटी कई घटनाओं से पता चलता है कि उनके दिल में अहंकार की कोई जगह नहीं थी। रफी और संगीतकार ओपी नय्यर के बीच संबंध बहुत मधुर थे। रफी ने नय्यर के संगीत पर कई यादगार गीत गाए। नय्यर समय के बड़े पाबंद थे। कोई कलाकार देरी से रिकॉर्डिंग स्टूडियो पहुंचता तो उसके लिए उनके दरवाजे बंद हो जाते थे। ऐसी ही एक घटना रफी के साथ भी हुई। एक दिन रफी संगीतकार शंकर जयकिशन की रिकॉर्डिंग के कारण व्यस्त हो गए और नय्यर के स्टूडियो समय से नहीं पहुंच पाए। देरी से आने पर जब रफी ने बताया कि शंकर जयकिशन की रिकॉर्डिंग के चलते देरी हुई तो नैय्यर नाराज हो गए। उन्होंने रफी से कहा, ‘‘आपके पास शंकर जयकिशन के लिए समय था, ओपी नय्यर के लिए नहीं। आज से ओपी नय्यर के पास रफी के लिए समय नहीं रहेगा।” उसके बाद रिकॉर्डिंग रद्द कर दी गई और अकाउंटेंट से कहा गया कि वह रफी का हिसाब कर दे। इस घटना के बाबत जब भी किसी ने रफी से सवाल पूछा, तो उन्होंने हमेशा यही कहा कि नय्यर सही हैं। देर से आकर गलती उन्होंने की थी। रफी ने कभी भी नय्यर की आलोचना नहीं की। इतना ही नहीं, इस घटना के तीन साल बाद रफी खुद नय्यर के पास गिले शिकवे दूर करने गए। रफी जितने बड़े गायक थे, उन्हें कोई जरूरत नहीं थी सुलह करने की लेकिन यही उनकी महानता थी। रफी को देखकर नय्यर के शब्द थे, “रफी, यहां आकर तुमने सिद्ध किया है कि तुम मुझसे कहीं बेहतर इंसान हो। तुमने अपने अहं पर काबू पा लिया जो मैं नहीं कर सका।” ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं हुईं।
रफी ने अपने करियर में देशभक्ति के कई गीत गाए, जो आज तक सुने जाते हैं। हिंदुस्तानी फिल्म संगीत के जानकार बताते हैं कि ऐसे कई मौके आए जब रफी ने देशप्रेम के गीत गाने के लिए कोई मेहनताना नहीं लिया। रफी के देशप्रेम से जुड़ा ऐसा ही एक किस्सा है। वे महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को बहुत पसंद करते थे। जब महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई, तो रफी बहुत आहत हुए थे। इस घटना के बाद गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने गीत ‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’ लिखी। गीत को हुस्नराम भगतराम ने संगीत में ढाला। गीत को गाने की जिम्मेदारी रफी को दी गई। रफी ने बहुत दिल से गीत रिकॉर्ड किया। गीत सभी को पसंद आया और उस गीत की चर्चा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची। गीत को सुनने के लिए नेहरू ने खास तौर से रफी को दिल्ली में अपने निवास पर आमंत्रित किया। गीत सुनकर नेहरूजी की आंखों में आंसू आ गए थे।
रफी की आवाज, उनकी गायकी का ऐसा दीवानापन था कि सभी कलाकार उनकी ही तरह बनना चाहते थे। बाद के वर्षों में मोहम्मद अजीज से लेकर अनवर, सोनू निगम, शब्बीर कुमार उन्हीं के अंदाज की नकल करके पार्श्व गायन में आगे बढ़े। रफी के अंदाज की नकल करने वाले गायक शब्बीर कुमार अक्सर जब स्टेज शो करते हैं तो रफी से जुड़ा एक किस्सा सुनाते हैं। रफी के निधन की खबर जब शब्बीर को मिली तो उनके दिल को गहरा सदमा लगा। शब्बीर किसी तरह खुद को संभाल कर रफी साहब के अंतिम दर्शन के लिए उनके सुपुर्द ए खाक में पहुंचे। तभी एक अनोखी घटना घटी। शब्बीर की जेब से घड़ी और कलम निकल कर रफी साहब की कब्र में गिर गई। वहां इतनी भीड़ थी कि शब्बीर कुछ समझ नहीं पाए। बाद में शब्बीर ने सोचा कि शायद नियति ने उन्हें रफी साहब से जोड़ने के लिए यह घटना रची है। और कुछ ऐसा ही हुआ भी। रफी के जाने के बाद निर्माता और संगीतकार ऐसी आवाज तलाश रहे थे जिसमें उनकी झलक हो। उन्हें यह झलक शब्बीर कुमार की आवाज में मिली। अस्सी के दशक में शब्बीर कुमार कामयाब गायक बनकर उभरे। इसका श्रेय वे आज तक रफी साहब को देते हैं। आज इतने वर्षों बाद भी शब्बीर कुमार जब कहीं स्टेज शो करते हैं तो श्रोता उनसे रफी के गीतों की ही डिमांड करते हैं।
रफी अपने साथ के लोगों का बिल्कुल परिवार की तरह खयाल रखते थे। उनके लिए उनके कर्मचारी, उनके साथी संगीतकार, सब परिवार का हिस्सा थे। रफी जब शोहरत की बुलंदियों पर थे तब उन्होंने अपने लिए इम्पाला कार खरीदी। उस वक्त यह गाड़ी चुनिंदा लोगों के पास ही हुआ करती थी। यह इम्पोर्टेड कार राइट हैंड ड्राइविंग वाली थी, मगर रफी साहब के ड्राइवर को लेफ्ट हैंड ड्राइविंग आती थी। ऐसे में रफी साहब ने नए ड्राइवर की तलाश शुरू की। इस तलाश के दौरान उन्होंने अपने पुराने ड्राइवर का पूरा ध्यान रखा। उन्होंने उसे 70,000 रुपये की टैक्सी खरीदकर दी, ताकि वह अपना जीवनयापन अच्छी तरह से कर सके। इसी तरह संगीतकार रवि ने एक बार कहा था कि वे हर साल जो बिरयानी ईद के मौके पर रफी को भेजते थे, वे उसे अपने घर के कर्मचारियों में बांट देते थे।
शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आया था। एक बार महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन रफी को आकाशवाणी केंद्र से प्रोग्राम का न्यौता आया। रफी आकाशवाणी पहुंच गए। वे अपने साथ गायक महेंद्र कपूर को लेकर गए थे। रफी ने अपनी प्रस्तुति दी। सभी ने उनकी सराहना की। प्रस्तुति के बाद जब रफी और महेंद्र कपूर वापस जाने लगे तो वहां मौजूद कई युवा संगीतप्रेमियों ने रफी को घेर लिया। सभी उनका ऑटोग्राफ चाहते थे। रफी ऑटोग्राफ नाम की चीज से अनजान थे। रफी ने महेंद्र कपूर से पूछा, ‘‘ये लोग क्या चाहते हैं मुझसे?’’ जवाब में महेंद्र कपूर ने कहा, ‘‘ये आपका ऑटोग्राफ यानी साइन चाहते हैं।’’ रफी इतने भोले थे कि उन्होंने महेंद्र कपूर से कहा, ‘‘अच्छा, एक काम कर, तू ही दे दे फिर।’’ महेंद्र कपूर के लिए रफी गुरु थे। वे गुरु की बात को कैसे टालते। महेंद्र कपूर ने तब सभी युवाओं के कागज पर ‘‘मोहम्मद रफी’’ लिख दिया। इस घटना के बाद रफी ने अपना ऑटोग्राफ लिखने की खूब प्रैक्टिस की। वे अपने चाहने वालों को निराश नहीं करना चाहते थे। इस घटना के बाद से जब भी कोई उनसे ऑटोग्राफ मांगता तो वे निराश नहीं करते। वे अपनी सुंदर लिखावट में सभी को ऑटोग्राफ देते।
हिंदी सिनेमा जगत में जहां ज्यादातर लोग पैसे, सम्मान, शोहरत के पीछे भागते दिखाई देते हैं वहीं रफी के भीतर ऐसी कोई कामना नहीं थी। उन्होंने कभी भी किसी निर्देशक, संगीतकार, निर्माता से कोई विशेष मांग नहीं की। जिसने जो भी पारिश्रमिक उनके लिए तय किया, उन्हें वह कुबूल होता था। रफी के निःस्वार्थ भाव के बारे में अभिनेता जितेंद्र एक किस्सा कई मंचों पर सुना चुके हैं। जितेंद्र अपनी प्रोडक्शन कंपनी के बैनर तले फिल्म दीदार-ए-यार बना रहे थे। फिल्म निर्माण के समय जितेंद्र ने रफी की फीस चार हजार रुपये प्रति गाने के हिसाब से रखी। किन्हीं कारणों से फिल्म बनने में देरी हो गई। फिल्म चार साल में बनकर तैयार हुई और तब तक रफी की लोकप्रियता बढ़ गई थी। जितेंद्र ने सोचा कि फिल्म बनने में चार साल का समय गुजर गया है इसलिए रफी को गाने के ज्यादा पैसे देने चाहिए। जितेंद्र ने अपने अकाउंट डिपार्टमेंट के कर्मचारी से कहा कि रफी साहब को बीस हजार रुपये देकर आएं। कर्मचारी ने जितेंद्र के कहे अनुसार बीस हजार रुपये रफी साहब के घर पहुंचा दिए। जब रफी ने लिफाफा खोला तो नाराज हुए। उन्होंने सोलह हजार रुपये जितेंद्र को वापस भेजे और फोन कर पर कहा, “तुम्हारे पास चाहे ज्यादा पैसे आ गए हैं लेकिन मैं तो अपनी तय की गई फीस ही लूंगा।” यह सुनकर जितेंद्र के मन में रफी के प्रति सम्मान दोगुना हो गया।
रफी में असुरक्षा की भावना नहीं थी। वे हमेशा अपने साथी गायकों को प्रोत्साहित करते थे। उन्हें न किसी से जलन हुई और न ही उन्होंने कभी किसी से होड़ की। इसके ठीक विपरीत रफी अपने बाद के गायकों का मनोबल बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहते थे। महेंद्र कपूर यादों के खजाने से एक किस्सा सुनाते हैं। कपूर जब अपनी युवा अवस्था में थे, तब उन्हें हवाई जहाज में सफर करने का बहुत मन था। वे शिद्दत से चाहते थे कि हवाई जहाज में बैठें, मगर किसी भी तरह उन्हें हवाई जहाज में सफर करने का अवसर नहीं मिल रहा था। जब महेंद्र कपूर की इस ख्वाहिश का पता रफी को चला तो उन्होंने महेंद्र कपूर को अपने पास बुलाया। उस वक्त महेंद्र कपूर एक गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जा रहे थे। रफी ने कपूर से कहा कि अगर वे प्रतियोगिता जीत गए तो वे उन्हें हवाई यात्रा करवाएंगे। इस बात से महेंद्र कपूर का हौसला और जोश बढ़ गया। महेंद्र कपूर ने शानदार गायकी के दम पर प्रतियोगिता जीत ली। जीत की खबर रफी तक पहुंची तो वे महेंद्र कपूर को हवाई जहाज से अपने कोलकाता के शो में ले गए।
रफी यारों के यार थे। एक बार किसी से रिश्ता कायम कर लिया तो उसे निभाते भी थे। जब कोई अपना मुसीबत में होता तो सबसे पहले रफी मदद करते थे। अमिताभ बच्चन और रफी की दोस्ती का एक बहुत खूबसूरत किस्सा है। एक बार रफी और अमिताभ एक इंटरनेशनल म्यूजिकल शो में गए। दो दिन का शो था। पहले दिन रफी की गायकी का शो था। दूसरे दिन एक और मशहूर गायक गाने वाले थे। इस दौरान अमिताभ भी मंच पर अपनी परफार्मेंस देने वाले थे। पहले दिन जब रफी ने अपनी प्रस्तुति दी तो हॉल हाउसफुल था। अगले दिन रफी साहब की वापसी की टिकट थी। वे एयरपोर्ट के लिए निकल गए। उधर आयोजन स्थल पर एक बड़ी गड़बड़ हो गई। दूसरे दिन जो गायक प्रस्तुति देने वाले थे, वे नहीं आ सके। इस स्थिति को देखकर आयोजक परेशान हो गए। सारी टिकटें बिक चुकी थीं। लोग कुछ देर में हॉल में आने वाले थे, लेकिन बिना गायकों के शो होता कैसे? जब यह बात अमिताभ बच्चन को पता चली, तो उन्होंने आयोजकों से कहा कि फौरन रफी साहब से संपर्क करते हैं। उनके अलावा कोई मदद नहीं कर सकता। रफी तब तक एयरपोर्ट पहुंच चुके थे। अमिताभ अपने साथ आयोजक को लेकर एयरपोर्ट पहुंचे। अमिताभ और आयोजक को देखकर रफी चौंक गए। अमिताभ ने रफी साहब को पूरा मामला बताया। रफी मुस्कराए और अपना बैग उठाकर बोले, “चलो, आज का शो भी सुपरहिट रहेगा।” रफी वापस आए और उन्होंने प्रस्तुति देकर आयोजकों को मुसीबत से बचा लिया।
उनसे जुड़ी ऐसे न जाने कितने अफसाने हैं जो उनकी महानता को दर्शाते हैं। हिंदी सिनेमा के मशहूर लेखक सलीम खान के अनुसार रफी ईश्वर की आवाज थे और कोई दूसरा मोहम्मद रफी संभव नहीं है क्योंकि ईश्वर की हर कृति अपने आप में विशेष होती है। कुछ साल पहले दिल्ली में मोहम्मद रफी के ऊपर एक किताब का लोकार्पण हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदी के बड़े कवि विष्णु खरे कर रहे थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। अपने अध्यक्षीय भाषण में विष्णु खरे ने एक ऐसी बात रफी के बारे में कही थी जो शायद बीती एक सदी के दौरान जन्मे किसी शख्स के लिए सबसे बड़ा परिचय हो सकती है। विष्णु खरे ने कहा था- "मोहम्मद रफी दक्षिण एशिया की आवाज हैं।" देशों की सरहदों से इतर, दक्षिण एशिया को अगर एक सांस्कृतिक इकाई मानकर हम चलें तो उसकी प्रतिनिधि आवाज रफी का होना अपने आप में कई राजनैतिक मायने रखता है। गोया एक ऐसी आवाज जो सरहदों को, मजहबों को, दिलों को जोड़ती हो, जो विभाजनों को मिटाती हो। यही अंतरराष्ट्रीयतावाद गांधी-नेहरू के दौर का वह प्रतिनिधि भाव था जिसने रफी जैसे दुर्लभ कलाकारों को पैदा किया।