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मृणाल सेन : भारतीय फिल्मों के महान शिल्पकार

भारतीय सिनेमा एक उर्वरक भूमि रहा है। यहां एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली कलाकारों ने काम किया है। यह सभी...
मृणाल सेन : भारतीय फिल्मों के महान शिल्पकार

भारतीय सिनेमा एक उर्वरक भूमि रहा है। यहां एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली कलाकारों ने काम किया है। यह सभी कलाकार एक दूसरे से भिन्न और विशेष थे। ऐसे ही एक महान कलाकार थे मृणाल सेन। 

 

मृणाल सेन भारतीय समानांतर सिनेमा के ध्वजवाहक थे। मृणाल सेन उन चुनिंदा भारतीय फिल्म निर्देशकों में रहे, जिन्होंने अपनी कला से विश्व पटल पर भारत को ख्याति दिलाई। मृणाल सेन, महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक के समकालीन थे। इन तीनों महान विभूतियों को, भारतीय समानांतर सिनेमा के त्रिदेव भी कहा जाता था।

मृणाल सेन का जन्म 14 मई सन 1923 को , ब्रिटिश इंडिया के फरीदपुर कस्बे में रहने वाले, एक हिन्दू परिवार में हुआ था।आज यह जगह बांग्लादेश में स्थित है। अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद, मृणाल सेन ने मशहूर " स्कॉटिश चर्च कॉलेज " से स्नातक और फिर " कलकत्ता विश्वविद्यालय " से भौतिक विज्ञानं में परास्नातक डिग्री प्राप्त की। कॉलेज के दिनों में ही मृणाल सेन को समाजवादी दृष्टिकोण ने आकर्षित किया। उन्होंने " कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया " की सांस्कृतिक इकाई से जुड़कर कई रचनात्मक कार्य किए। उन्हीं दिनों मृणाल सेन ने " इंडियन पीपल थिएटर एसोसिएशन" यानी इप्टा ज्वॉइन किया। इप्टा में मृणाल सेन की मुलाक़ात कई समाजवादी बुद्धिजीवियों से हुई, जिन्होंने मृणाल सेन की शख्सियत पर गहरा प्रभाव डाला। 

 

जीवन में कुछ ऐसे हालात बने कि मृणाल सेन को कोलकाता के एक फ़िल्म स्टूडियो में बतौर ऑडियो तकनीशियन नौकरी करनी पड़ी। यहीं से उनकी फिल्मी दुनिया की तालीम शुरु हुई। यहीं उन्हें फ़िल्म के निर्माण के विभिन्न पक्षों की जानकारी मिली। इस तरह मृणाल सेन की रुचि फ़िल्मों के प्रति बढ़ती चली गयी। मृणाल सेन ने फ़िल्म निर्माण के भूलभूत सिद्धांतों पर आधारित कई किताबें पढ़ी और तब उनके मन में फ़िल्म बनाने की चाहत कुलबुलाने लगी। 

इसी बेचैनी में मृणाल सेन की मुलाक़ात एक निर्माता से हुई, जिसकी मदद से उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म " रात भोर" का निर्माण किया। 21 अक्टूबर सन 1955 को रिलीज़ हुई इस बंगाली भाषा की फ़िल्म में अभिनेता उत्तम कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई।संगीत की ज़िम्मेदारी मशहूर संगीतकार सलील चौधरी के कंधों पर थी।मृणाल सेन ने बड़ी उम्मीदों से इस फ़िल्म को बनाया। मगर फ़िल्म उतनी कामयाब नहीं हुई। मृणाल सेन निराश हो गये। उन्होंने फ़ैसला किया कि अब वह फ़िल्में नहीं बनाएँगे। लेकिन इस तरह के निर्णय सिवाय कोरी भावुकता के और कुछ नहीं होते। कुछ समय के बाद मृणाल सेन के भीतर का कलाकार फिर से जाग गया। वह कुछ सालों बाद फिर से फ़िल्मी दुनिया में लौटे। मृणाल सेन ने सन 1958 में हिंदी की महान लेखिका "महादेवी वर्मा" की लघु कथा " चीनी फेरीवाला" पर आधारित बांग्ला भाषा की फ़िल्म " नील आकाशेर नीचे " का निर्माण किया। यह फिल्म बेहद कामयाब साबित हुई। यहीं से मृणाल सेन के फ़िल्मी सफ़र ने रफ़्तार पकड़ी। 

मृणाल सेन, उन फ़िल्मकारों में से थे जिनका मानना था कि फ़िल्मों का मनोरंजन से इतर, एक बड़ा योगदान समाज के प्रति होना चाहिए। उनकी हर फ़िल्म, समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करने वाली एक बेहद शानदार कलात्मक कृति होती थी।उनकी फ़िल्मों में समाज के दलित, वंचित, शोषित लोगों की भावनाओं की बड़ी कुशलता के साथ उकेरा जाता था। मृणाल सेन ख़ुद एक विस्थापित थे और उन्होंने विभाजन का दर्द महसूस किया था। यह दर्द उनकी फ़िल्मों के ज़रिये सिल्वर स्क्रीन पर भी दिखाई देता था। उन्होंने अपनी फ़िल्म बाइसे श्रवण ( 1960) और अकालेर संधाने (1980) के ज़रिये बंगाल के भीषण अकाल और दलितों - पिछड़ों के दमन के प्रश्नों को मज़बूती से उठाया। 

मृणाल सेन ने अपनी मशहूर "कलकत्ता ट्राइलॉजी" के अंतर्गत बनाई तीन फ़िल्मों " इंटरव्यू (1971), कलकत्ता 71 (1972), पदातिक (1973) के ज़रिये, बंगाल में सत्तर के दशक में चल रहे नक्सलवादी आन्दोलन के कारणों, चुनौतियों को दिखाने की कोशिश की।इन फ़िल्मों के ज़रिये उन्होंने उन गम्भीर प्रश्नों को उठाया, जो आज़ादी के बाद भी ग़रीबों, पिछड़ों के सामने मुंह खोले खड़े थे और जिनके निस्तारण के अभाव में, नक्सलवादी आन्दोलन आग की तरह पूरे बंगाल को अपनी चपेट में ले रहा था। 

बांग्ला भाषा में अलावा, मृणाल सेन ने अन्य भारतीय भाषाओँ में भी फ़िल्में बनाई। उनकी फ़िल्मों को देश में तो पसंद किया ही गया, इसके साथ - साथ उनकी फ़िल्मों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी बहुत सराहना मिली। उनको कई अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कारों, सम्मानों से नवाज़ा गया। 

मृणाल सेन की साहित्य में भी गंभीर रूचि थी। उन्होंने समय - समय पर कई बड़े साहित्यकारों की रचनाओं पर फ़िल्म बनाई। ऐसी ही एक फ़िल्म से बेहद रोचक क़िस्सा जुड़ा हुआ है। मृणाल सेन ने जब भारत के महान लेखक प्रेमचन्द की कहानी " कफ़न" पढ़ी तो बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने फ़ैसला किया कि वह इस कहानी पर आधारित एक फ़िल्म बनाएँगे।फ़िल्म निर्माण शुरू हुआ। फ़िल्म का नाम रखा गया "ओका उरी कथा"।

 

फ़िल्म की शूटिंग हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश से 100 किलोमीटर दूर एक गाँव में हो रही थी।तभी एक घटना हुई, जिससे मृणाल सेन बहुत गुस्सा हो गये। दरअसल एक सीन के दौरान, अभिनेता वासुदेव राव को "जम्हाई" लेने का अभिनय करना था।मगर बहुत कोशिश करने पर भी वह सही तरह से इस सीन को नहीं कर पा रहे थे।जब दस टेक के बाद भी सीन नहीं हो सका तो मृणाल सेन ने झुंझलाते हुए वासुदेव राव से कहा "तुमसे जम्हाई लेने का सीन भी नहीं होता है, क्या करोगे तुम ?"। इस बात को सुनकर वासुदेव राव बहुत विनम्रता के साथ बोले "दादा, मैं पूरी ज़िन्दगी काम करने में इतना व्यस्त रहा हूँ कि मुझे कभी भी जम्हाई लेने का मौक़ा ही नहीं मिला।" वासुदेव राव की यह बात सुनकर मृणाल सेन मुस्कुराए और उन्होंने वासुदेव राव को गले से लगा लिया। यह वाक़िया, मृणाल सेन के सेंसिटिव और निश्चल मन का परिचय देता है। मृणाल सेन ने हिन्दी भाषा में भी " एक दिन अचानक", मृगया जैसी शानदार फ़िल्में भी बनाई।मृणाल सेन फ़िल्मों को, सिनेमा को एक ऐसा ज़रिया मानते थे, जिससे एक इन्सान अपने आप को, अपने समाज को अच्छे से समझ सकता है।

 

मृणाल सेन सन 1998 से लेकर सन 2003 तक राज्य सभा के सांसद भी रहे। उन्हें सन 2005 में महामहिम राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों से हाथों से " दादा साहब फाल्के पुरुस्कार" मिला।जब पत्रकारों ने मृणाल सेन से पूछा कि उन्हें राष्ट्रपति के हाथों प्रतिष्ठित "दादा साहब फाल्के पुरुस्कार" पाकर कैसा लग रहा है ?, तो इसके जवाब में मृणाल सेन बोले "आजकल जिस तरह से लोग मुझसे मिलने, मुझसे बात करने चले आते हैं, वह देखकर मेरी पत्नी को यह ज़रूर एहसास हो गया है कि उसकी शादी किसी काबिल इन्सान से हुई है, यानी मुझमें कोई बात तो ज़रूर है।" इतना कहकर मृणाल सेन मुस्कुराने लगे। यही सच्चाई और कोमलता मृणाल सेन को महान इन्सान बनाती है। 

 

मृणाल सेन की शादी बंगाली अभिनेत्री गीता सेन से हुई थी।एक इंटरव्यू में गीता सेन ने बताया था कि किस तरह मृणाल सेन ने अपने फ़िल्मी सफ़र में तकलीफ़ों को चुनौतियों का सामना किया।गीता सेन के मुताबिक ऐसी कई रातें रहीं जब घर में खाने, पीने के लिए कुछ नहीं था।मगर मृणाल सेन ने समझौता नहीं किया और समाजिक सरोकार की फ़िल्में बनाते रहे। 30 दिसंबर 2018 को मृणाल सेन का निधन हो गया। आज मृणाल सेन भले ही दुनिया में नहीं हैं, मगर उनकी फ़िल्मों के रूप में एक संस्थान, आने वाली कई पीढ़ियों को प्रोत्साहित करता रहेगा।

 

 

 

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