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बदनाम हुए तो क्या, दाम मिलेगा

पीके फिल्म के नाम पर जितनी चिल्ला चोट हो सकती है हो रही है। बैनर-पोस्टर आग के हवाले किए जा रहे हैं। टेलीविजन चैनल पर बहस का बाजार गरम है। यह फिल्म के विषय पर बहस न होकर केसरिया-हरे की बहस हो कर रह गई है।
बदनाम हुए तो क्या, दाम मिलेगा

एक सतही और औसत फिल्म को इतना प्रचार-प्रसार मिल रहा है कि पत्रकार और स्तंभकार वेद प्रताप वैदिक और एक प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका के कभी-कभार फिल्म देखने जाने वाले संपादक तक मल्टीप्लेक्स पहुंच गए। वैदिक ने लिखा, 'बरसों बाद मैंने कोई फिल्म देखी। वह भी इसलिए कि हर रोज हो रही बहस से मुझे लगा आखिर इस फिल्म में है क्या?Ó इसका जवाब मेरे खयाल से तो यह डेविड धवन मार्का औसत फिल्म है। न कहने का ढंग नया न तर्कों का। लेकिन इन सब को छोड़ कर बहस सिर्फ इस बात है कि जी हिंदु सहिष्णु होते हैं, सो उनके देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया जा सकत है और मुस्लिम कट्टर होते हैं सो इस्लाम के बारे में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं। हालांकि शार्ली एब्दो पर हुए हमले के बाद से इस बात पर और बहस या सफाई की जरूरत नहीं। खैर यह अलग विषय है।

तो बात है विरोध की, विवाद की जिसके लिए हर निर्माता-निर्देशक लालायित रहता है। एक अदद विरोध उनकी झोली में बहिसाब दौलत डाल देता है। यह सिर्फ फिल्मों के साथ नहीं होता। यह किस्सा किताबों के बारे में भी है। जब समझ आ ही गया है कि रचनात्मकता से बड़ा विरोध या विवाद का बाजार है, तो भला इसका उपयोग क्यों न किया जाए। यह चलन बन गया है कि फिल्म के विषय, नायक-नायिका की निजी कहानियां, किसी खास सीन, कोई भी गाना, संवाद कुछ भी, किसी भी तरह की बात पर किसी संगठन से बखेड़ा खड़ा करवा कर बॉक्स ऑफिस का छप्पर फाड़ दिया जाता है। इस सारे मसले में मजे की बात यह है कि ज्यादातर विरोध करने वालों ने फिल्म देखी नहीं होती है! लेकिन टीवी पर दिखने का सुख आखिर कौन छोडऩा चाहता है। हवा, पानी, अग्नि किसी भी नाम से फिल्म बनाइए, उसमें थोड़ा सा धर्म या सामाजिक विरोध का तड़का लगाइए और देखिए फिल्म कितना कमाएगी। कोई भी एक मसाला जो लोगों की भावनाएं भड़काने की काबिलियत रखता हो फिल्मी रायते को शानदार बना देता है। यह विरोध कोई नई बात नहीं है। जब से अभिव्यक्ति के साधन हैं तभी से इस विरोध का घर भी मजबूती से बना हुआ है। नई बात है तो विरोध के लिए विरोध या लाभ के लिए बखेड़ा।

जब 1975 में आंधी आई थी तो जनता को विरोध करना ही नहीं पड़ा था। सरकार खुद ही इस पर प्रतिबंध लगाने के लिए सक्षम थी। इसके बाद यही व्यवहार 1977 में किस्सा कुर्सी का के साथ दोहराया गया। पहली फिल्म पर आरोप था कि यह कथित तौर पर इंदिरा गांधी के जीवन पर बनी थी, जबकि दूसरी पर आरोप था कि यह सरकार विरोधी फिल्म है। लेकिन 1973 में एस एस सत्थू की फिल्म गरम हवा को सिर्फ इसलिए विरोध सहना पड़ा था कि इसमें भी एक वर्ग विशेष को कैमरे ने करूणा की नजर से देखा था। ऐसे ही विषय पर एक फिल्म बना रहे अंकुर चौधरी कहते हैं, 'कब कौन किस बात पर नाराज हो जाएगा यह निश्चित नहीं होता। किसी अन्य विषय पर फिल्म बनाने पर हो सकता है कुछ सीन हटा कर काम चल जाए। लेकिन जब बात दो समुदायों की हो तो बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। क्योंकि यह इतना संवेदनशील विषय है कि जरा सी चूक कुछ स्वार्थी तत्वों को दियासलाई मुहैया करा सकती है।Ó हालांकि वह यह भी मानते हैं कि विरोध की विरोध का न धर्म होता है न सोच। हालिया मसला फिल्म पीके का जरूर है लेकिन जिस तरह किसी बात को साबित करने के लिए हमेशा तर्कों की जरूरत नहीं होती, उसी प्रकार विरोध के लिए भी यह बात जरूरी नहीं है। दरअसल किसी विरोध में कूद पडऩा या आंदोलन करना भारतीय दर्शक अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। भारत में सबसे अच्छी बात यही है कि क्रिकेट और फिल्म दो ऐसे विषय हैं जिन पर सभी लोग खुद को विशेषज्ञ मानते हैं। बाद में यदि ऐसी कोई फिल्म क्लासिक का दर्जा पा जाए तो उससे क्या फर्क पड़ता है। जैसे सत्थू की फिल्म गरम हवा के साथ हुआ।

सभी निर्माता विधु विनोद चोपड़ा, निर्देशक राजकुमार हीरानी और अभिनेता आमिर खान जितने खुशनसीब नहीं होते कि विरोध भी करोड़ों रुपये उनकी झोली में गिरा दे। मीरा नायर ने जब वॉटर नाम से फिल्म बनानी शुरू ही की थी, तभी से उसका विरोध होने लगा था। भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों को यह नागवार गुजरा और उन्हें बनारस में लगा-लगाया सेट छोड़ कर शूटिंग के लिए श्रीलंका जाना पड़ा। एक पीड़ादाई कविता की तरह चलने वाली एक कम उम्र की विधवा स्त्री की कहानी लंबी लड़ाई के बाद परदे पर आई जरूर लेकिन बॉक्स ऑफिस पर सिक्के नहीं खनखनाए। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, 'मुझे उस बैकड्रॉप पर मेहनत करनी पड़ी जो मुझे बनारस में आसानी से वास्तविक रूप से उपलब्ध होता।Ó तब तक सोशल मीडिया की दखलदांजी इतनी नहीं बढ़ी थी कि हर व्यक्ति आकर मीडिया में ज्ञान बांटता और जनता वॉटर देखने के लिए उमड़ पड़ती।

युवा फिल्म समीक्षक राघव बट कहते हैं, 'विशाल भारद्वाज ने जब हैदर बनाई तो बहुत हल्ला हुआ। मैं कश्मीर से ही हूं। मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा। आखिर यह कहानी किसी भी पृष्ठभूमि की हो सकती है। जो उन्होंने दिखाया वह कहीं से भी गलत नहीं था।Ó हालांकि हैदर को सरहद पार विरोध झेलना पड़ा जिसने यहां कोई असर नहीं डाला। यह विरोध जब फिल्म को प्रदर्शन से पहले झेलना पड़ता है तब उस अहसास को सिर्फ निर्माता-निर्देशक ही यह जान सकता है। ब्लैक फ्राइडे ऐसी ही फिल्म थी जो अपने बनने के बाद दो साल तक डिब्बा बंद रही थी। ब्लैक फ्राइडे सन 2005 में पूरी हो गई थी और दर्शकों के सामने यह फरवरी 2007 में आ पाई थी। यह मुंबई ब्लास्ट पर आधारित थी और उस दौरान इस मामले पर सुनवाई चल रही थी। यह फिल्म जब आई तो खूब पसंद की गई और इसे अवॉर्ड भी मिले। वॉटर ने भारत में भले ही बहुत व्यापार न किया हो मगर अंतरराष्ट्रीय समारोहों में इसकी खूब धूम रही। यह फिल्म भी सन 2000 में बन गई थी और भारत आते-आते इसे सात साल लग गए।

फिल्मों में किसी भी विरोध को तार्किक ढंग से रखा जाए तो कोई परेशानी नहीं। जाहिर सी बात है हर विषय या मसले पर सभी सहमत नहीं हो सकते। मगर इस विरोध में मर्यादाएं लांघ जाना किसी भी बहस की गुंजाइश को ही खत्म कर देता है। इसका नतीजा यही होता है कि पीके के लेखक अभिजित जोशी और निर्देशक राजकुमार हीरानी से कोई नहीं पूछता कि भारत में इतनी आसानी से डांसिंग कार कहां मिलती है, एलियन जिसे पकड़ेगा उसकी सब बातें उसे पता चल जाएंगी तो फिर वेश्या का हाथ पकड़ कर वह सिर्फ भाषा ही क्यों सीखता है सामान्य बुद्घि क्यों नहीं? भाषा सीखने के लिए उसे वेश्या के हाथ पूरी रात पकड़ कर बैठना पड़ते हैं जबकि नायिका के हाथ दो मिनट पकड़ कर वह जान जाता है कि उसके साथ विदेश में क्या हुआ था। ईश्वर के होने या न होने की सामान्य बुद्घि नहीं है लेकिन इतना पता है कि दीवार पर पेशाब करने से पुलिस ले जाएगी और जेल में रहने और खाने को मिलेगा। उनका यह भोलापनकिसी को भाया या नहीं यह नहीं पता लेकिन विरोधियों को तो मसाला मिल ही गया।

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