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यशपाल शर्मा : हिन्दी सिनेमा में पहचान बनाकर हरियाणवी संस्कृति को बढ़ावा देने वाले अभिनेता

आधुनिक भारतीय सिनेमा जगत को जिन फ़िल्म अभिनेताओं ने अपने अभिनय से नया रूप, कलेवर दिया है, उनमें अभिनेता...
यशपाल शर्मा : हिन्दी सिनेमा में पहचान बनाकर हरियाणवी संस्कृति को बढ़ावा देने वाले अभिनेता

आधुनिक भारतीय सिनेमा जगत को जिन फ़िल्म अभिनेताओं ने अपने अभिनय से नया रूप, कलेवर दिया है, उनमें अभिनेता यशपाल शर्मा का नाम हमेशा ही प्रमुखता से लिया जाता है। फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी यशपाल शर्मा उन बेहद ख़ास अभिनेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने अभिनय के हर रूप को जिया है। उन्होंने राउडी राठौड़ जैसी कमर्शियल फिल्म में भी काम किया है तो लगान और गंगाजल जैसी उत्कृष्ट फिल्मों में भी योगदान दिया है। यशपाल शर्मा ने गुलजार के साथ रंगमंच की दुनिया जी है तो फिल्म "दादा लखमी" जैसी बेहतरीन फिल्म बनाकर हरियाणवी संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का कार्य किया है। यशपाल शर्मा वर्तमान समय में पूरी ऊर्जा और निष्ठा के साथ हरियाणवी संस्कृति, भाषा को सिनेमा के माध्यम से समृद्ध और सशक्त करने का कार्य कर रहे हैं। 

 

 

यशपाल शर्मा का शुरुआती सफर बड़ा कठिन रहा। साल 1967 को हरियाणा के हिसार में जन्म लेने वाले यशपाल शर्मा के घर में परिस्थितियां अच्छी नहीं थीं। पिताजी चपरासी थे। घर में कुल सात भाई बहन थे, जिनके भरण पोषण में ही पिता की सब कमाई खर्च हो जाती थी।आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी। इस कारण बचपन से ही यशपाल शर्मा के मन में यह बात घर कर गई कि परिवार को आर्थिक पिछड़ेपन से निकालना है। 

 

जब यशपाल शर्मा दसवीं कक्षा में थे, उनकी मां का कैंसर के कारण देहांत हो गया। कैंसर के कारण आर्थिक स्थिति और चौपट हो गई थी।इसके कारण उनके भाई और उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। यशपाल शर्मा की छोटी बहन को एक बार कुत्ते ने काट लिया। घरवालों की न इलाज की जानकारी थी और न ही संसाधन। नतीजा यह हुआ कि एक महीने बाद बहन का निधन हो गया। मगर जीवन इस तरह का था कि अफसोस करने का समय नहीं था। 

 

आर्थिक सुधार के लिए यशपाल शर्मा ने कम उम्र में ही तरह तरह के काम किए। उन्होंने बच्चों को टयूशन पढ़ाने का काम किया। इसके अलावा पंचर लगाने, टिन के कनस्तर बनाने, पटाखे बेचने, आटे की चक्की पर काम करने जैसे कई काम भी उन्होंने किए। इस जीतोड़ मेहनत के बाद घर की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक तो हो रही थी लेकिन परिवार पर एक के बाद एक दुखों के पहाड़ टूट रहे थे। मगर यशपाल शर्मा ने हिम्मत रखते हुए मेहनत जारी रखी। 

 

मां के जीवित रहते हुए ही यशपाल शर्मा रामलीला और अन्य धार्मिक नाटकों में सक्रिय रहते थे। इस बीच उन्हें राजीव मनचंदा के साथ हिसार में नाटक करने का अवसर मिला। यहां से यशपाल शर्मा की दुनिया बदल गई। उनके भीतर नाटक और अभिनय को लेकर एक जुनून पैदा हो गया। उन्होंने सीमित संसाधनों के साथ नाटक करना शुरू किया। इस बीच यशपाल शर्मा रंगकर्मी सत्यदेव दुबे के द्वारा निर्देशित नाटक "अंधा युग " देखने हरियाणा से दिल्ली के कमानी थियेटर पहुंचे। इसमें मुख्य भूमिका नसीरुद्दीन शाह निभा रहे थे। यशपाल शर्मा पर नाटक का ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने 4 महीना दिल्ली में रहकर रंगमंच किया। यशपाल शर्मा के भीतर इच्छा पैदा हुई कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला लेना चाहिए। वह दिल्ली से वापस लौटे और उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की तैयारी शुरु की यशपाल शर्मा ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की परीक्षा दी लेकिन असफल रहे। तब बड़े भाई ने आर्थिक सहायता की और यशपाल शर्मा ने इन्डियन थियेटर चंडीगढ़ में दाखिला लिया। इसी दौरान उनका चयन नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में हो गया। यशपाल शर्मा ने अपने पैशन को चुना और सब छोड़कर नाटक सीखने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा पहुंच गए। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में यशपाल शर्मा ने 5 साल बिताए। इस दौरान उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखी। 

 

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकलने के बाद यशपाल शर्मा ने बच्चों के साथ नाटक करने की कोशिश की। उनकी कोशिश सफ़ल रही। लेकिन इस दौरान उनके अभिनय को लेकर कई बड़े कलाकारों ने सकारात्मक बातें कहीं। यशपाल शर्मा चिल्ड्रन थियेटर के दौरान केवल निर्देशन में सक्रिय थे। उन्हें महसूस हुआ कि यदि अभिनय करना है तो मुंबई जाकर फिल्मों में काम करना पड़ेगा। इस सोच से प्रेरणा लेकर यशपाल शर्मा मुंबई पहुंचे। यशपाल शर्मा जब मुंबई आए तो लंबे वक़्त तक उन्हें काम नहीं मिला। इससे वह इतना परेशान हुए कि उन्होंने अपने शहर हिसार, हरियाणा वापस जाने का मन बना लिया। उन्हें पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। उन्हें टीवी सीरियल में काम मिल सकता था मगर उन्होंने तय किया था कि वह टीवी सीरियल में काम करके अपनी रचनात्मकता नहीं खोना चाहते। 

 

उन्हें फिल्म निर्देशक सुधीर मिश्रा ने एक टीवी सीरियल "फ़र्ज़"ऑफ़र किया मगर यशपाल शर्मा ने उसमें काम करने से मना कर दिया। हालांकि इसके लिए यशपाल शर्मा को 80,000 रुपए प्रति माह मिल सकते थे लेकिन यशपाल शर्मा का कहना था कि वह सुधीर मिश्रा के साथ टीवी शो करने की जगह फ़िल्म करना पसंद करेंगे। 

इसी दौरान यशपाल शर्मा को मालूम हुआ कि निर्देशक गोविंद निहलानी फिल्म "हजार चौरासी की मां" बना रहे हैं। यशपाल शर्मा गोविन्द निहालनी के पास पहुंचे। चूंकि उनके पास पैसे नहीं थे तो वह गोविंद निहलानी के स्टूडियो पैदल चलकर पहुंचे थे। मुम्बई में बारिश हो रही थी, जिस कारण यशपाल शर्मा भीग गए थे। उन्होंने बाथरूम में जाकर गीले कपड़े निचोड़े और फिर उन्हें पहनकर ऑडिशन देने गोविंद निहलानी के सामने पहुंचे। गोविन्द निहलानी के सामने यशपाल शर्मा ने अपनी प्रस्तुति दी। गोविंद निहलानी को यशपाल शर्मा का अभिनय पसंद आया और इस कारण यशपाल को काम मिला। गोविन्द निहलानी ने यशपाल शर्मा को श्याम बेनेगल से मिलवाया। धीरे धीरे श्याम बेनेगल से आशुतोष गोवारिकर, प्रकाश झा, रामगोपाल वर्मा जैसे निर्देशकों से यशपाल शर्मा का परिचय हुआ और उन्होंने हिंदी सिनेमा की बेहरारीन फिल्मों में अपने सशक्त अभिनय से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। 

एक समय ऐसा आया कि जब यशपाल शर्मा को एक तरह के ही किरदार ऑफ़र होने लगे। वह कमर्शियल फिल्मों में विलेन के रुप में पेश किए जाने लगे। तब यशपाल शर्मा ने तय किया कि वह हिंदी सिनेमा में चुनिंदा काम करेंगे और अपना बाकी समय हरियाणवी संस्कृति और सभ्यता के प्रचार प्रसार में लगाएंगे। इस तरह से उन्होंने हरियाणवी सिनेमा में काम करना शूरू किया। हरियाणवी संस्कृति के बारे में रिसर्च करते हुए यशपाल शर्मा को ख्याल आया कि उन्हें हरियाणा के महान कलाकार पंडित लखमीचंद पर फिल्म बनानी चाहिए। मगर काम आसान नहीं था। यशपाल शर्मा ने दिन रात जीतोड़ मेहनत की। निर्माता ढूंढने से लेकर कलाकारों की कास्टिंग, ऑथेंटिक भाषा, वाद्य यंत्र, संगीत, गीत, लोकेशन आदि का प्रबंध किया। फिर पूरी शिद्दत, ईमानदारी से फिल्म बनाई। यशपाल शर्मा की लगन रंग लाई और उन्हें फिल्म "दादा लखमी" के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह यशपाल शर्मा के भरोसे की जीत है। 

 

शोहरत और कामायाबी की बुलंदियों को छू लेने के बाद भी यशपाल शर्मा को एक मलाल हमेशा सताता है। उन्हें दुख है कि उनकी मां ने आजीवन संघर्ष किया और जब सुख के दिन देखने का समय आया तो उससे पहले वह दुनिया से चली गईं। खैर यही नियति है, यही जीवन है। शायर निदा फ़ाज़ली कहते भी हैं "कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता।" 

 

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