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वृत्तचित्र व्यवसाय के व्यवधान

बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब बीबीसी के लिए लेजली उडविन द्वारा बनाए गए एक वृत्तचित्र पर खूब हंगामा हुआ। संसद से लेकर सडक़ तक विरोध के स्वर गूंजे और शायद इसी बहाने पहली बार भारत में वृत्तचित्र पर इतनी बात हुई।
वृत्तचित्र व्यवसाय के व्यवधान

लेजली उडविन द्वारा बनाए गए वृत्तचित्र का विषय बहुत ही संवेदनशील था। उस विषय से हर भारतीय जुड़ा हुआ था। लेकिन हम यहां बहस उस वृत्तचित्र के विषय को लेकर नहीं कर रहे, बहस वृत्तचित्र बनाने के शौक या फिर उसे व्यवसाय की तरह अपनाने पर है। बहुत संभव है कि देश से बाहर भी 'निर्भया’ या दूसरी संवेदनशील घटनाएं घटती होंगी। हो सकता है भारत से कई फिल्मकार उस देश जा कर उन घटनाओं पर वृत्तचित्र बनाते भी होंगे। पर क्या उनमें से किसी एक को भी आम दर्शक जान पाते हैं। या फिर कितने वृत्तचित्र निर्देशक हैं जिन्हें करण जौहर, अनुराग कश्यप, आदित्य चोपड़ा या आर. बाल्की की तरह नाम और दाम मिलता है। सवाल सिर्फ नाम या दाम का नहीं, सवाल उस इच्छा का भी है जो एक वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशक के मन में पलती है और उसके बदले उसे सिर्फ संघर्ष मिलता है।

अपने तीन वृत्तचित्रों के लिए पुरस्कार पा चुके कविता बहल और नंदन सक्सेना सन 1996 से वृत्तचित्र बना रहे हैं। सन 2011 में उनके बनाए वृत्तचित्र ‘कॉटन फॉर माय श्राउड’ को श्रेष्ठ खोजपरक फिल्म की श्रेणी में पुरस्कार मिला था। इसके बाद 2013 में ‘कैंडल्स इन द विंड’ को राष्ट्रीय पुरस्कार में विशेष उल्लेख श्रेणी में जगह मिली और अब 2014 में राष्ट्रीय पुरस्कारों में ‘आय कैन नॉट गिव यू माय फॉरेस्ट’ को पर्यावरण-कृषि श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसके अलावा भी उनके पास दर्जनों फिल्में हैं जिन्हें सराहा गया। दो दशकों तक वृत्तचित्र बनाते रहने के बाद भी उनका संघर्ष है कम नहीं हुआ है। इसकी क्या यही वजह समझी जाए कि वृत्तचित्र के विषय चटकीले-चटपटे नहीं होते। कविता बहल कहती हैं, 'भारत में भी खूब वृत्तचित्र बनते हैं। लेकिन अभी भी इन वृत्तचित्रों के लिए कोई नीति नहीं हैं कि इन्हें कहां और कैसे आम दर्शकों तक पहुंचाया जा सकता है। कायदे से होना तो यह चाहिए कि वृत्तचित्रों के लिए एक अलग से चैनल हो जहां इनका प्रदर्शन किया जा सके। अभी ज्यादातर वृत्तचित्र निर्माताओं को दूरदर्शन पर निर्भर रहना पड़ता है।’ भारत में भी वृत्तचित्र अच्छी खासी संख्या में बनते हैं। यहां भी संख्या की कोई कमी नहीं है बस कमी है तो इसके संगठित होने की। मुंबई में रहने वाले केतन जोशी ने हाल ही में भारतीय सेना पर एक वृत्तचित्र बनाया है। यह वृत्तचित्र खूब सराहा गया पर चुनिंदा दर्शकों द्वारा। केतन कहते हैं, 'यूरोप और अमेरिका में ऐसा नहीं है। वहां वृत्तचित्रों को लेकर भी गंभीरता है। वहां वृत्तचित्र का मतलब सिर्फ शौकिया किया जाने वाला काम नहीं है। वहां ऐसा सिस्टम है कि यदि कोई वृत्तचित्र डाउनलोड भी करता है तो वृत्तचित्र निर्माता को पैसा मिलता है। भारत में तो अभी भी इस विधा को खुद को साबित करना पड़ रहा है तो फिर इससे होने वाली कमाई की बात कौन करे।’

दरअसल भारत में अभी भी वृत्तचित्र बनाने को शौक के तौर ही देखा जाता है या फिर कुछ चुनिंदा निर्माता हैं जो तमाम तरह के विषयों पर वृत्तचित्र बना रहे हैं। दर्शकों की कमी नहीं है। यदि दर्शक किसी वृत्तचित्र के बारे में सुनते हैं तो कुछ तो हैं जो निश्चित तौर पर उसे देखना चाहते हैं। मगर यक्ष प्रश्न है कि कहां? भारत में ऐसा कोई ठिकाना नहीं जहां दर्शकों को पता हो कि उन्हें बेहतरीन वृत्तचित्र देखने को मिल जाएंगे। अपनी पहली ही फीचर फिल्म मिस टनकपुर हाजिर हो (फिल्म जून में प्रदर्शित होगी) से चर्चा में आए पत्रकार विनोद कापड़ी के द्वारा बनाए गए वृत्तचित्र ‘शिट’ को इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। यह फिल्म खुले में शौच जाने पर बनाई गई है। खुले में शौच जाने से भी बड़ा मुद्दा है, महिलाओं की शौच को लेकर दिक्कतें। ग्रामीण भारत में कई बार महिलाएं इसलिए अपनी प्राकृतिक इच्छा को दबाए रखती हैं कि वे अंधेरा होना का इंतजार करती हैं। यह फिल्म एक खबरिया चैनल पर दिखाई गई। लेकिन फिर भी आम दर्शकों की पहुंच से यह अभी भी दूर है। यही वजह है कि विनोद कापड़ी इस वृत्तचित्र के प्रदर्शन की योजना बना रहे हैं।

इस क्षेत्र में या तो पत्रकार, पूर्व पत्रकार या छात्र बहुत सक्रिय रहते हैं। जाहिर सी बात है खबरों से मोह न छूटने के कारण अक्सर इन वृत्तचित्रों के विषय भी खबरों या सामाजिक विषयों के ईद-गिर्द ही घूमते नजर आते हैं। सामाजिक मुद्दों में भी ऐसे विषय जो बुद्धिजीविता के करीब लगें। क्या इन विषयों की वजह से भी दर्शक इन वृत्तचित्रों से दूरी बनाए रखते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए केतन कहते हैं, 'यह सच है कि गंभीर विषय वृत्तचित्रों की पहचान बन गए हैं। पर यह कोई जरूरी नहीं कि वृत्तचित्रों का विषय गंभीर ही हो। भारत में कला-संस्कृति और संगीत पर भी कई अच्छे वृत्तचित्र हैं। लेकिन अभी भी विषय चुनते वक्त फिल्मकारों के मन में सामाजिक विषय प्राथमिकता पर होते हैं।’ शायद यही वजह है कि वृत्तचित्रों के लिए एक खास दर्शक वर्ग होता है। इस बारे में कविता बहल कहती हैं, 'दर्शकों का मन या दिमाग तब तय हो जब वे खूब वृत्तचित्र देखें और समझें कि उन्हें ऐसे नहीं वैसे वृत्तचित्र देखना है। टेलीविजन चैनल 24 घंटे धारावाहिक दिखाते हैं, लेकिन वृत्तचित्र दिखाने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। जब लोग देखेंगे ही नहीं तो समझेंगे कैसे कि वे क्या देखना चाहते हैं।’

इस क्षेत्र में नई पौध की भी कमी नहीं है। अनुभवी से लेकर महाविद्यालय के छात्र तक 'डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर’ कहलाना चाहते हैं। शायद यह जज्बा ही है जो इस विधा को इतने लंबे समय से चलाए हुए है। भारतीय जनसंचार संस्थान से अंग्रेजी पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद जब 25 साल के बिश्वदीप मुखर्जी का खबरयिा चैनलों में दिल नहीं लगा तो वह जॉर्ज आॉरवेल के जन्मस्थान मोतिहारी पहुंच गए ताकि उन पर एक वृत्तचित्र बना सकें। रोटरी मोतिहारी लेक टाउन द्वारा प्रायोजित 'ऑरवेल...बट वाई’ नाम से उन्होंने वृत्तचित्र बनाया और जब उसे सराहना मिली तो वह बनारस जाकर 'असि द लास्ट रिवर’ बनाने लगे। बिश्वदीप कहते हैं, 'जॉर्ज ऑरवेल के बेटे ने इस फिल्म को देखने के बाद जब ईमेल पर मुझे बधाई दी तो लगा कि मैंने वाकई कुछ अच्छा कर लिया है। यह फिल्म यूट्यूब पर भी उपलब्ध है। अब असि द लास्ट रिवर भी तैयार है और मैं चाहता हूं इस वृत्तचित्र को देख कर लोग नदियों के साथ अच्छा व्यवहार करना शुरू करें।’ असि के बाद वह दक्षिण एशिया के सबसे पुराने गैरिसन चर्च पर फिल्म बना रहे हैं। ऐसे किसी भी विषय पर बनी फिल्मों पर थोड़ी सी तारीफ भी बड़ा सुकून देती है।

इस सुकून में तब और इजाफा हो जाता है जब कोई वृत्तचित्र विदेश के किसी फिल्म फेस्टिवल में दिखा दी जाती है। और यदि कोई अवॉर्ड मिल गया तो वृत्तचित्र बनाने वाले को इसी से खुशी मिल जाती है। लेकिन यह बाजार भी बहुत अलग तरह का है। हर वृत्तचित्र निर्माता की पहुंच ऐसे विदेशी फिल्मोत्सव तक नहीं होती। कई छोटे वृत्तचित्र निर्माताओं की पहुंच न होने से मांग उठती है कि सभी को एक जगह संगठित होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इनका कोई संगठन नहीं है। लेकिन यह संगठन मुंबई में है और ज्यादातर इसमें बड़े और नामी वृत्तचित्र निर्माता हैं जहां तक सबकी पहुंच नहीं होती। 

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