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ऑस्कर में कैसे पहुंची फिल्म ‘पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस’, इस फिल्म का भारत से है खास कनेक्शन

अक्सर देखा गया है कि लोग माहवारी यानी पीरियड पर बात करना तो दूर कई बार नाम लेने से भी कतराते हैं।...
ऑस्कर में कैसे पहुंची फिल्म ‘पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस’, इस फिल्म का भारत से है खास कनेक्शन

अक्सर देखा गया है कि लोग माहवारी यानी पीरियड पर बात करना तो दूर कई बार नाम लेने से भी कतराते हैं। महिलाओं को होने वाली पीरियड की समस्या और पैड की अनुपलब्धता को लेकर एक शॉर्ट फिल्म 'पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस' बनी है, जिसे सोमवार को 'डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट श्रेणी’ में ऑस्कर अवॉर्ड मिला है। इस डॉक्यूमेंट्री की चर्चा तब से जोरों पर है, जब इसे ऑस्कर की बेस्ट डॉक्यूमेंट्री की कैटेगरी में नॉमिनेट किया गया। इस फिल्म का हिंदुस्तान से खास कनेकशन है, क्योंकि इसकी कहानी हापुड़ में रहने वाली लड़कियों पर है।

बताया जाता है कि 25 मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने में कैलीफोर्न‍िया के ऑकवुड स्कूल के 12 स्टूडेंट और स्कूल की इंग्ल‍िश टीचर मेलिसा बर्टन का खास योगदान है। फिल्म की एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा हैं। फिल्म को रायेका जेहताब्ची (Rayka Zehtabchi) ने डायरेक्ट किया है।

इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने के पीछे ये है दिलचस्प किस्सा

इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने के पीछे दिलचस्प किस्सा है, ऑकवुड स्कूल स्टूडेंट ने एक आर्ट‍िकल में इंडिया के गांव में पीरियड को लेकर शर्म और हाइजीन की नॉलेज नहीं होने का पता चला। बच्चों ने एनजीओ को कॉन्टैक्ट किया, फंड इकट्ठा और गांव की लड़कियों के लिए एक सेनेटरी बनाने वाली मशीन डोनेट की। फिर गांव में जागरुकता लाने के लिए डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग का प्लान बनाया।

ऐसी है फिल्म की कहानी

इस शॉर्ट फिल्म की कहानी शुरू होती है गांव की लड़कियों से पूछे गए सवाल से कि पीरियड क्या होता है? दोनों सवाल सुनकर इतना शरमा जाती हैं कि जवाब ही नहीं देती। फिर यही सवाल गांव के स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों से किया जाता है। वो कहते हैं पीरियड वही जो स्कूल में घंटी बजने के बाद होता है। दूसरा लड़का कहता है ये तो एक बीमारी है जो औरतों को होती है, ऐसा सुना है। यहीं से शुरू होती है डॉक्यूमेंट्री। कहानी में हापुड़ की स्नेहा का अहम रोल है, जो पुलिस में भर्ती होना चाहती है। इस स्टोरी के बीच में वह ये भी कहती हैं कि वो पुलिस में इसलिए भर्ती होना चाहती हैं क्योंकि वह शादी से बचना चाहती हैं।

एक गावं जहां की बुजर्ग महिलाएं पीरियड्स को भगवान की मर्जी और गंदा खून बताती हैं। उसी गांव की स्नेहा की सोच इस पर काफी अलग लगी। वो कहती है जब दुर्गा को देवी मां कहते हैं, फिर मंदिर में औरतों की जाने की मनाही क्यों है? डॉक्यूमेंट्री में फलाई नाम की संस्था और रियल लाइफ के पैडमैन अरुणाचलम मुरंगनाथम की एंट्री भी होती है। उन्हीं की बनाई सेनेटरी मशीन को गांव में लगाया जाता है, जहां लड़कियां रोजगार के साथ-साथ पीरियड के दिनों में सेनेटरी के यूज के सही मायने को समझती हैं।

अपनी शर्म को पीछे छोड़ते हुए हापुड़ केकाठीखेड़ा की स्नेहा ने अपने संकल्प और मेहनत से न केवल सीनेटरी पैड बनाने वाली कंपनी में खुद काम करना शुरू किया बल्कि अपनी सहेलियों को भी इससे जोड़ा। आज उसी लड़की पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री ऑस्कर अवॉर्ड ने नामित हुई है। जब उसे इस अवॉर्ड का पता चला तो खुशी से उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं बोल पा रही है।

इस पूरी डॉक्यूमेंट्री में और भी कई ऐसे दृश्य हैं जो बहुत खास हैं, जैसे पहली बार जब लड़कियां सेनेटरी पैड को अपने हाथ से छूती हैं तो उनके चेहरे के भाव। पैड खरीदने की शर्म। यही सब दृश्य है जो दिल को छू जाते हैं और कई सवाल छोड़ जाते हैं।

यहां देखें ये शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री

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