देश को नए राजनीतिक विकल्प देने की कवायद समय-समय की जाती रही है। जयप्रकाश नारायण से लेकर आज के कई नेता भी ‘आल्टर्नेटिव’ देने की बात करते रहे हैं। हाल ही में कमल हासन और रजनीकांत जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने भी अपनी राजनीतिक पार्टियां बनाकर दक्षिण भारत के सियासत में एंट्री ली है। लेकिन कभी बड़े स्तर पर फिल्म जगत के लोग ‘थर्ड आल्टर्नेटिव’ देने की बात कहें तो यह काफी चौंकाने वाली हो सकती है। आज से लगभग 40 साल पहले ऐसी घटना घटी थी जब सदाबहार अभिनेता देवानंद की अगुवाई में ‘नेशनल पार्टी’ का गठन हुआ था।
साल 1979 में जनता पार्टी और इंदिरा गांधी दोनों से ही नाराज फिल्मी जगत के लोगों ने राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया था। देवानंद ने जोर-शोर से इस मुहिम का आगाज किया और उनके साथ उनके छोटे भाई विजय आनंद निर्माता-निर्देशक वी.शांताराम, रामानंद सागर, ‘शोले’ के जीपी सिप्पी, श्री राम बोहरा, आईएस जोहर, आत्माराम, शत्रुघन सिन्हा, धर्मेंद्र, हेमामालिनी, संजीव कुमार जैसी हस्तियां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप इस मुहिम में साथ आ गए। इन सभी लोगों ने एकमत से देवानंद को इस नई पार्टी का अध्यक्ष चुन लिया।
14 सितम्बर 1979 को मुम्बई के ताजमहल होटल में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में ‘नेशनल पार्टी’ के गठन का ऐलान किया गया। साथ ही 16 पृष्ठ के घोषणा पत्र में नेशनल पार्टी को जनता के लिए ‘थर्ड आल्टर्नेटिव’ के तौर पर पेश किया गया था।
क्यों पड़ी जरूरत?
आमतौर पर फिल्मी जगत के लोगों का रूझान कांग्रेस या वामपंथी दलों की ओर ही देखा गया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी फिल्म कलाकारों के संबंध मजबूत थे। लेकिन 1975 के आपातकाल के दौरान इन रिश्तों में तल्खियां आ गई। इमरजेंसी के दौरान सरकार ने फिल्म जगत पर जिस प्रकार की कठोरता बरती, उससे सिनेमाई जगत के भीतर भी आक्रोश का उभार हुआ। जब 1977 में जब आपातकाल के बाद चुनाव हुए तो फिल्म उद्योग ने कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने का फैसला किया। कहा जाता है कि जनता पार्टी के कुछ नेताओं, जैसे राम जेठमलानी ने फिल्म जगत के लोगों को उनकी पार्टी की सहायाता के लिए मना लिया। नतीजतन इस चुनाव में कई फिल्म कलाकारों ने जनता पार्टी के प्रत्याशियों का प्रचार किया। लेकिन जब जनता पार्टी की सरकार बन गई पिर भी फिल्म जगत को निराशा ही हाथ लगी।
यह बात उनके घोषणा पत्र में उद्धृत है, "इंदिरा की तानाशाही से त्रस्त लोगों ने जनता पार्टी को चुना, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। अब यह दल भी टूट चुका है। अब जरूरत है एक स्थायी सरकार दे सकने वाली पार्टी की। नेशनल पार्टी के गठन के पीछे विचार है देश के लोगों को थर्ड आल्टर्नेटिव देने का।"
भीड़ से घबराई जनता दल और कांग्रेस
साल 1979 में ही जब नेशनल पार्टी की पहली रैली मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां यहां जुटी भीड़ को देखकर आश्चर्यचकित थीं। इस रैली में देव आनंद के अलावा संजीव कुमार, फिल्म निर्माता एफसी मेहरा और जीपी सिप्पी (शोले के निर्माता) शामिल थे। कहा जाता है कि इस रैली ने कांग्रेस और जनता दल को गहरी चिंता में डाल दिया।
बिना चुनाव लड़े खत्म हुआ राजनीतिक दल का सफर
इस पार्टी को लेकर एक वर्ग विचार था कि सितारों के ग्लैमर और उनके धन की ताकत से व्यवस्था को बदला जा सकता है जबकि दूसरा वर्ग इसे सिर्फ फिल्मी तमाशा मानकर चल रहा था। एनपीआई में किसी को भी राजनीति का पूर्व अनुभव नहीं था। देवानंद को अपनी पार्टी के लिए उम्मीदवार ढूंढने में भी परेशानी हो रही थी। 1980 में जब लोकसभा चुनाव घोषित हुए तो पार्टी का कोई परिचित चेहरा चुनाव मैदान में नहीं उतरा। मशहूर वकील नानी पालकीवाला, विजय लक्ष्मी पंडित ने ऐन मौके पर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। धीरे-धीरे नेशनल पार्टी में सक्रिय फिल्मी जगत के लोग किनारा करने लगे और देवानंद लगभग अकेले ही रह गए। इस तरह एक राजनीतिक पार्टी बगैर चुनाव लड़े ही समाप्त हो गई। 2008 के जयपुर साहित्य महोत्सव में देव आनंद का कहना था कि राजनीति नरम दिल कलाकारों का काम नहीं हैं और उन्होंने अच्छा किया जो पार्टी भंग कर दी क्योंकि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए काबिल उम्मीदवार ही नहीं मिल रहे थे।