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फिल्म समीक्षाः तेजस

हालांकि कंगना रणौत को देशभक्ति वाली फिल्में करने की खास जरूरत नहीं  हैं, क्योंकि वह परदे के बाहर भी...
फिल्म समीक्षाः तेजस

हालांकि कंगना रणौत को देशभक्ति वाली फिल्में करने की खास जरूरत नहीं  हैं, क्योंकि वह परदे के बाहर भी पर्याप्त मात्रा में ऐसा कर लेती हैं। खैर, एक कलाकार को लगता है कि परदे पर देशभक्ति दिखाना जरूरी है ताकि दो महापर्वों, 15 अगस्त और 26 जनवरी को देशभक्ति वाली फिल्मों की सूची में उनका भी नाम आए।

एक लड़की जो बचपन में फाइटर पायलट बनने का सपना देखती है और उसे पूरा कर लेती है। जांबांज, जुझारू लड़की के किरदार को गढ़ने में लेखक और निर्देशक सर्वेश मेवाड़ा ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन जो कम रह गया वह है, कसा हुआ कथानक, मारक संवाद, कंगना से और अच्छा अभिनय करा लेना, फ्लेश-बैक से मौजूदा दौर, मौजूदा दौर से फ्लेश-बैक के बीच कूदफांद और सब कुछ एक ही फिल्म में डालने का लोभ।

मेवाड़ा को मुंबई 26/11 भी इसी में चाहिए था, राम मंदिर पर हमला भी, दुश्मनों से भारतीय एजेंट को छुड़ाना भी और फिर मुख्य हैंडलर का खात्मा भी। यानी सीक्वेल की कोई गुंजाइश नहीं। जो मौजूदा दौर का फैशन है। 70 के दशक में ऐसी फिल्में बनती थीं, जिसमें हीरो का मरना ही दरअसल असली हीरोपंती होती थी। जो नायक परदे पर मरा वही अमर हुआ। लेकिन सर्वेश बाबू, भारतीय वायुसेना पायटल तैयार करती है, फिदायीन नहीं कि जहां चाहे प्लेन घुसा दो। जिस प्लेन में आपकी जांबाज पायलट तेजस गिल उड़ान भर रही है वह भारतीय वायुसेना की पायलट है, जिस तेजस प्लेन में वह है, वह भी भारत सरकार की संपत्ति है और दो संपत्ति ऐसे ही किसी आतंकवादी के मकान में जाकर नहीं खाक की जाती।

प्लेन घुसाने के लिए ओसामा बिन लादेन को भले ही किसी की परमिशन न लगती हो, पर भारतीय वायुसेना के अफसर को तो उच्च अधिकारियों, सरकार की इजाजत की जरूरत होगी ही। जब एक मिशन के लिए अफसर प्रधानमंत्री के सामने हैं, तो फिर किसी दूसरे ऑपरेशन के लिए एक अधिकारी कैसे खुद तय कर लेगा कि बेटी जाओ और खुद मिसाइल बन जाओ। थोड़ा हिसाब से लगा लेते तो फिल्म काफी अच्छी बन सकती थी।

जहां तक रही देशभक्ति की बात, तो सिर्फ भारत के झंडे दिखाने, भारत माता की जय बोलने या छोटा-मोटा मोनोलॉग बोलने से तो भइया ये बिलकुल नहीं आती। कंगना को अपने अभिनय के बारे में फिर से एक बार सोचने की सख्त जरूरत है।

कम सीन में ही कंगना की को स्टार अंशुल चौहान ने अच्छा अभिनय किया है। लेकिन सर्वेश मेवाड़ा की इस बात के लिए तो तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी में दो महिलाओं कंधों पर मिशन की जिम्मेदारी डाली।

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