प्रतिभा के साथ जीतने की ज़िद और जुनून का मिश्रण हो जाए तो किरदार शाहरुख खान बनता है। ऐसा कलाकार जिसकी हमारी पीढ़ी ही नहीं बल्कि पापा मम्मी बुआ मौसियां तक शाहरुख खान की फिल्मों की मुरीद रहे हैं। असर ऐसा कि कईयों का अव्यक्त, असफल एकरतरफ़ा प्यार शाहरुख के किरदारों में अपनी सुसुप्त रोमांस को तलाशता तो कई लड़कियों का दिल शाहरुख के किरदार जैसा प्रेमी तलाशता दिखता रहा है। शाहरुख खान ने निर्विवादित ढंग से नब्बे से लेकर इक्कीसवीं सदी के शुरू तक के पीढ़ी को अपने अभिनय और अपने क्राफ्ट से अपना फैन बनाया है। उसने पर्दे पर जब बाहें फैलाईं तो उसने सारे जहाँ का प्यार अपने हिस्से समेट लिया। मेरे हिस्से शाहरुख का जादू बरास्ते राजू बन गया जेंटलमैन, बाजीगर, डर, त्रिमूर्ति, हे राम, कुछ कुछ होता है, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है, देवदास जैसी फिल्मों से आया था। वह एक ऐसा कलाकार उभरा जिसमें हर लड़का खुद को देखने लगा था और हर लडक़ी इस सपने में थी कि उसका प्रेमी हो तो इसी शिद्दत से इश्क करे। कलाकार अपना सा होकर सबके हिस्से में अपनी तरह से समाकर पर्दे पर आ गया था।
इसी रूमानी सिनेमाई माहौल में यशराज फिल्म्स की "मोहब्बतें" गोपालगंज के सरस्वती टॉकीज में लगी थी। अमिताभ बच्चन और तीन अन्य नए चेहरों के बावजूद असल हीरो शाहरुख खान थे। जाहिर है गाने हिट थे और भीड़ भी बेहद थी बहुत मुश्किल से हम लोगों की टिकट मिली। गोपालगंज में सीट नम्बर जैसी कोई व्यवस्था न थी सो हॉल खचाखच अंदर बिछाए बेंचों तक भरा हुआ था। शाहरुख खान एक संगीत शिक्षक की भूमिका में थे। हीरो ने डायलॉग मारा "अगर तुम किसी से प्यार करते हो तो ये मत सोचो कि वो हाँ कहेगी या ना। जाओ और जाकर अपने दिल की बात कह दो"। शाहरुख का जादू देखिए सरेया मोहल्ले का एक कोइरी जाति का लड़का अपने साथ ट्यूशन पढ़ने वाली पड़ोसी मोहल्ले की राजपूत लड़की को अगले दिन बिना उसके हाँ या ना के कह दी और तेजी से साइकिल से घर निकल गया। उसके दिल ने बल्लियों-सी उछाल मारी थी। पर ज़िन्दगी शाहरुख की मोहब्बतें नहीं होती। उसी शाम को उस लड़की के घर-मोहल्ले वाले ट्रेक्टर और कमांडर जीप पर हरवे हथियार के साथ उस लड़के के घर पहुंचे। इसके बाद की कहानी फिल्मी नहीं है। जब वह जातिगत गुमान और दम्भ में भरा झुंड लौटा तो अत्यधिक पिटाई से लड़के की माँ, लड़का और उसके पिता बुरी तरह तड़प रहे थे। एक संवाद कह देने भर की वजह पूरे परिवार के सदर अस्पताल में भर्ती होने की यह अपने तरह की घटना थी। बाद में, लड़के की पढ़ाई छूट गयी और वह बाद में वह कमाने सऊदी अरब चला गया।
शाहरुख खान के उभार को हिंदी फिल्मों के स्टीरियोटाइप दौर में एक सुकून भरे खुशनुमा हवा की तरह देखा जाना चाहिए। उसके उभार ने एक खास तरह की कहानी, वैसा ही ट्रीटमेंट, लगभग एक ही किस्म के संगीत के बरक्स एक नया किस्म का ताज़गी भरा सिनेमा पेश किया। एक ऐसा नायक उभरा, जिसे बेटी बेटे माएँ और पिता तक पसंद कर रहे थे। जो एन्टी हीरो बनता तो भी अपने हिस्से का प्यार चुरा लेता और जब हीरो बनता तो तमाम नटखटपने के बावजूद पारिवारिक मूल्यों की बात करता दिखता। दिलवाले दुल्हनिया का एनआरआई अल्हड़ लड़का जब अपने प्रेम के लिए स्टैंड लेता है तब वह अपने पारंपरिक मूल्यों की दुहाई देता हर दर्शक के दिल में समा जाता है - "माँ हमेशा मुझे एक बात कहती थी, जिसे मैं आज तक नहीं भूला। वह कहती थी बेटा जिंदगी के हर मोड़ पर तुम्हें दो रास्ते मिलेंगे। एक सही एक गलत। गलत रास्ता बहुत आसान होगा, तुम्हें अपनी तरफ खींचेगा और सही रास्ता बहुत मुश्किल होगा। उसमें बहुत-सी मुसीबतें, बहुत-सी परेशानियां होंगी। अगर तुम गलत रास्ते पर चलोगे तो हो सकता है, शुरुआत में तुम्हें बहुत कामयाबी मिले, खुशियां मिले। मगर अंत में तुम्हारी हार होगी और अगर सही रास्ते पर चलोगे तो भले ही शुरुआत में तुम्हें कदम-कदम पर ठोकरें मिले, मुसीबतों का सामना करना पड़े, परेशानी हो मगर अंत में हमेशा जीत होगी"- यह उस नायक शाहरुख खान का दौर है जिसने कभी कहा था - मुझे स्टेट्स के नाम न तो दिखाई देते हैं न सुनाई देते हैं। केवल एक मुल्क का नाम सुनाई देता है इंडिया"।
हिंदी सिनेमा में शाहरुख की उपस्थिति को ऐसे समझा जा सकता है कि अगर हिंदी सिनेमा को तीन बड़े हिस्सों में बांटा जाए तो अमिताभ युग के बाद का दौर शाहरुख के सिनेमा के रूप में देखा जाएगा। शाहरुख दिल्ली का वह जुनूनी लड़का है, जिसके पिता स्वतंत्रता सेनानी रहे और जो अपने इश्क के लिए मुम्बई आया और अपनी प्रतिभा, मेहनत और जुनून की बदौलत इस शहर ही नहीं, देश ही नहीं सात सागरों के पार तक लोकप्रिय हुआ। वह शाहरुख है, हवाओं की बदलती रुतों में भी वह सदाबहार मौसम। शाहरुख जिद का नाम है एक सार्थक जिद का। एक ऐसे हरियल मौसम का जिसके हिस्से कभी पतझड़ नहीं आता। शाहरुख को परदे से परे देखना हो तो उसका निज देखिए, उसकी अपनी दुनिया मुकम्मल हिंदुस्तान है ।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)