भारत देश के युवा भारी संख्या मायानगरी मुंबई में एक ही सपना लेकर पहुंचते हैं। हिन्दी सिनेमा में अपना एक मुकाम हासिल करने का सपना। चंद लोगों के सपने साकार होते हैं। लाखों लोग भीड़ में खो जाते हैं। लाखों लोगों की असफलता लेकिन सिनेमा के जादू को कमजोर नहीं कर पाती है। युवा फिर भी उम्मीद का दामन पकड़कर मुम्बई पहुंचते हैं। जौनपुर के सुनील पाल एक ऐसे ही युवा हैं, जो फिल्मकार बनने का सपना लेकर मायानगरी पहुंचे। मायानगरी के संघर्षों के बीच सुनील ने अपना रास्ता बनाना शुरू किया और शॉर्ट फिल्म "रंग" का निर्माण किया। फिल्म निर्देशक सुनील से उनके फिल्मी दुनिया के सफर को लेकर आउटलुक से मनीष पाण्डेय ने बातचीत की।
मुख्य इंटरव्यू से संपादित अंश :
सिनेमा के प्रति रुझान किस तरह पैदा हुआ ?
बचपन से ही फिल्मों का शौक रहा है। फिल्मों को देखने से अलग ही खुशी मिलती रही है। हमेशा ऐसा महसूस होता रहा है कि फिल्में बनाऊंगा तो खुश रह पाऊंगा। इस तरह धीमे धीमे सिनेमा जीवन का अभिन्न अंग बन गया। मुम्बई आने के बाद मैंने बिजनेस भी किया।लेकिन फिर समय आया जब लगा कि पूरी तरह से फिल्मों को ही समर्पित हो जाना है। उसी दिन से जीवन फिल्मों को सौंप दिया है।
मुंबई में काम पाने के संघर्ष को लेकर क्या अनुभव हैं ?
जब आप किसी ऐसी जगह जाते हैं, जहां पारखी लोग बैठे हैं तो संघर्ष बढ़ ही जाता है। मुम्बई में कला की समझ है। इसलिए देश भर से लोग मुम्बई पहुंचते हैं।इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है। मेहनत के साथ भाग्य और जान पहचान की जरूरत होती है। तभी आपको काम मिलता है। इसलिए जो मेहनत से डरते हैं, उन्हें मुम्बई आने से पहले सोचना चाहिए। मैं इस बात को लेकर स्पष्ट था कि मुझे मेहनत करनी होगी। कोई थाली में सजाकर मुझे कुछ नहीं देगा। इतना ही नहीं, मैं इस बात के लिए भी तैयार था कि अगर मेहनत करने के बाद भी बात नहीं बनी तो मैं अपने शहर लौट जाऊंगा। मेरे भीतर ऐसी कोई शर्म नहीं थी कि वापस लौटकर घरवालों और पड़ोसियों को क्या जवाब दूंगा।
शॉर्ट फिल्म "रंग" की कहानी में ऐसा क्या था, जो आप इस प्रोजेक्ट से जुड़ने के लिए तैयार हुए ?
मैं जिस पृष्ठभूमि से आता हूं, वहां धर्म के नाम पर विवाद मामूली बात हैं। मैंने बहुत नजदीक से ऐसे विवाद देखे हैं। इसलिए जब शॉर्ट फिल्म के लेखक जीतू जी ने कहानी सुनाई तो मैं बहुत कनेक्ट कर पाया। मुझे लगा कि एक ऐसी कहानी, जिससे मैं परिचित हूं, उसे दर्शकों के सामने जरुर पेश करना चाहिए। आज समाज में इस बात की बहुत जरूरत है कि समाज को एकजुट करने वाली बातों का प्रचार प्रसार हो। बस यही सोचकर मैं इस प्रोजेक्ट से जुड़ गया। मुझे यकीन है कि यह फिल्म दर्शकों में सांप्रदायिक सौहार्द कायम रखने का काम करेगी।
"रंग" के निर्माण के दौरान क्या चुनौती पेश आई ?
चूंकि "रंग" एक इंडिपेंडेंट फिल्म थी तो इसके लिए बजट का प्रबंध करना ही सबसे चुनौती रही। कलाकार बाकी सब कुछ मैनेज कर लेते हैं। पैसों का प्रबंध करना ही उनके लिए कठिन होता है। जब तक व्यापार का एंगल न दिखे, तब तक कोई भी आपके सपनों पर, आपके विचारों पर पैसा लगाना नहीं चाहता। यह हमारी टीम की जीत रही कि कई तरह की कठिनाई के बावजूद फिल्म निर्माण सफलता पूर्वक हो सका। फिल्म को हमने फिल्म फेस्टिवल्स में भेजा है। इसके अतिरिक्त हम शॉर्ट फिल्म को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने का प्रयास भी कर रहे हैं। इस दिशा में बातचीत चल रही है। उम्मीद है जल्दी कामयाबी मिलेगी।
भविष्य की क्या योजनाएं हैं ?
अभी आने वाले समय में एक और शॉर्ट फिल्म का निर्माण करना है। बाकि तमन्ना तो फीचर फिल्म बनाने की है। देखिए कब तक यह ख्वाब पूरा होता है।