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लैंगिक भेदभाव व हिंसा के महिमामंडन के खिलाफ कदम उठाने का समय

'द फ्लाइंग बीस्ट' के नाम से मशहूर यू-ट्यूबर गौरव तनेजा जुलाई 2022 की शुरुआत में उस समय मुश्किलों में फंस गए,...
लैंगिक भेदभाव व हिंसा के महिमामंडन के खिलाफ कदम उठाने का समय

'द फ्लाइंग बीस्ट' के नाम से मशहूर यू-ट्यूबर गौरव तनेजा जुलाई 2022 की शुरुआत में उस समय मुश्किलों में फंस गए, जब उनकी पत्नी ने उनके प्रशंसकों से उनका जन्मदिन मनाने के लिए नोएडा के एक मेट्रो स्टेशन पर इकट्ठा होने की अपील की थी । तनेजा को कानून-व्यवस्था में बाधा डालने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, कुछ घंटों बाद उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया।

इस नाटकीय घटनाक्रम से न सिर्फ सामाजिक और कानूनी व्यवस्था को ताक पर रखकर किसी सेलीब्रिटी के प्रति भारतीय जुनून उजागर हुआ, बल्कि आज के संपूर्ण मीडिया तंत्र में डिजिटल कंटेंट निर्माताओं की ताकत को भी स्पष्ट रूप से सामने पेश किया । मौजूदा समय में, तनेजा के यू-ट्यूब चैनल के 76.7 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर हैं। इस चैनल पर मुख्यत: उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर आधारित व्लॉग पोस्ट किए जाते हैं। वहीं, इंस्टाग्राम पर तनेजा को 34 लाख, जबकि ट्विटर पर उन्हें 7.53 लाख से ज्यादा लोग फॉलो करते हैं।

 

सोशल मीडिया के उदय और इंस्टाग्राम और ट्विटर जैसे नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म की भरमार के बाद महामारी की दस्तक से मीडिया का परिवेश काफ़ी बदल गया है। आज अलग-अलग क्षेत्र और वर्ग के लोगों के लिए बड़े पैमाने पर कंटेंट बनाने के दरवाजे खुल गए हैं, जिसका इस्तेमाल वो पैसे कमाने के साथ-साथ नाम कमाने के लिए भी कर रहे हैं। ‘कंटेंट’ हमारे दौर का बेहद चर्चित शब्द है। इसके बावजूद वर्तमान समय में चर्चित होने या प्रसिद्ध पाने के तौर-तरीके कैसे गढ़े और पुनर्स्थापित किए जा रहे, इसके बारे में बहुत कम जानकारी है। यही नहीं, समाज में प्रगतिशील बदलाव लाने में इस शक्तिशाली हथियार का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है, इस संबंध में भी ज्यादा जानकारी मौजूद नहीं है।

 

दिल्ली स्थित 'ब्रेकथ्रू इंडिया' नामक संस्था ने 'पॉल हैमलिन फाउंडेशन' से मिली वित्तीय सहायता के ज़रिए एक परियोजना शुरू की है, जिसका उद्देश्य आज के दौर में 'चर्चित होने या प्रसिद्ध पाने की परंपरा' में मौजूद जटिलताओं को समझना है। ब्रेकथ्रू महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को समाप्त करने की दिशा में काम करने वाला एक वैश्विक मानवाधिकार संगठन है।

 

यह परियोजना अब दूसरे वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। इसके तहत, पहले वर्ष में शोधकर्ता द्वारा किए गए अध्ययन पर आधारित संक्षिप्त रिपोर्ट 'रिइमेजिनिंग पॉपुलर कल्चर न्यू पॉसिबिलिटीज ऑफ जेंडरिंग इन अ हाइपर डिजिटल वर्ल्ड' जारी की गई है, जो कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है। इस परियोजना का मकसद इस बात की बारीक समझ को हासिल करना है कि चर्चित होने के लिए तथा दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए कैसे हिंसा और जेंडर का सहारा लिया जाता है। इसका मकसद कंटेट निर्माण और प्रस्तुतिकरण के ज्यादा आकर्षक और वैकल्पिक तरीके भी तलाशना है, जिससे हिंसा, खासकर लिंग आधारित हिंसा को खत्म कर उसके महिमामंडन पर पूर्णतः रोक लगाया जाए।

 

पहले चरण के अध्ययन में मुख्यधारा की मीडिया में कंटेंट के दो व्यापक पहलुओं को समझने का प्रयास किया गया है । पहला, खपत और दूसरा, प्रतिनिधित्व। अपनी तरह का यह पहला अध्ययन उत्तर और पूर्व भारत के चुनिंदा क्षेत्रों में युवाओं के बीच कंटेंट के खपत की आदतों और पैटर्न का मानचित्रण करता है। इसके तहत, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिम बंगाल के युवाओं के साथ 19 सामूहिक संवाद आयोजित किए गए, जिनसे कंटेंट की खपत के जटिल संरचना तथा माध्यम(वो प्लेटफॉर्म जिस पर कंटेंट उपलब्ध कराया जाता है) की भूमिका और कुछ खास सामग्री की लोकप्रियता की वजहों को समझने में मदद मिली।

 

इस अध्ययन से जो एक प्रमुख बात सामने आई, वो यह थी कि भारत में बड़े पैमाने पर मौजूद डिजिटल और लैंगिक विभाजन कैसे युवाओं, विशेष रूप से अर्ध-शहरी और ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले नौजवानों के बीच खपत के पैटर्न को निर्धारित करता है। यह अध्ययन ‘पहुंच’ (लिंग, जाति,वर्ग और भौगोलिक स्थिति के रूप में) और ‘खपत’ में स्पष्ट रूप से संबंध स्थापित करता है और दर्शाता है कि कैसे 'चर्चित होने की परंपरा' पर केंद्रित मुख्यधारा की अधिकांश चर्चाएं भारत की सामाजिक संरचना के इस महत्वपूर्ण पहलू को नजरअंदाज करती हैं।

 

 

भारत में भले ही डिजिटल युग की शुरुआत को बड़ी उपलब्धि माना जाता है, लेकिन देश की ज़्यादातर ग्रामीण आबादी को शहरी आबादी की तरह इंटरनेट, गैजेट्स और यहां तक कि डिजिटल साक्षरता की पहुंच हासिल नहीं है। इतना ही नहीं, बात जब लड़कियों की आती है, तो उनमें से अधिकांश के पास खुद का कोई उपकरण भी नहीं है और अगर उनके पास खुद का डिवाइस है भी तो वे बिना निगरानी के स्वतंत्र रूप से उसका इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं । शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में हुए कई अध्ययनों, विशेष रूप से महामारी के संदर्भ में किए गए अध्ययनों ने इस बात पर रोशनी डाली है कि विभिन्न सामाजिक मानदंडों और प्रथाओं के कारण डिजिटल विभाजन कैसे लड़कों के मुकाबले लड़कियों को आज भी कहीं ज्यादा प्रभावित कर रहा है।

 

इन अध्ययनों से पता चलता है कि प्रसिद्ध पाने की दुनिया में महिलाएं ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म से लेकर सिनेमा जगत तक के कंटेंट निर्माताओं के लिए अंतत: ज्यादा मायने नहीं रखती हैं, लिहाजा ज्यादातर प्लेटफॉर्म मुख्य रूप से पुरुषों का मनोरंजन करने वाली सामग्री परोसने लगते हैं।'कमीशनिंग एडिटर्स और डिजिटल क्रिएटर्स' से हुए संवाद ने भी इस बात की पुष्टि की, जिसमें उन्होंने स्वीकारा कि दर्शकों की पसंद समझने के लिए घर-घर जाकर किये गये सर्वे ने यह दर्शाया है कि उनके मुख्य दर्शकों में ज्यादातर युवा पुरुष ही शामिल हैं। ऐसे में बाजार की मांग ने सुनिश्चित किया कि कंटेंट इस कड़वी हकीकत को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए। अध्ययन में यह भी देखा गया कि बड़ी आबादी के बीच आज भी लोकप्रिय टीवी के अलावा यू-ट्यूब संभवत: नए दौर के उन दुर्लभ प्लेटफॉर्म में शामिल है, जो इन सीमाओं को सार्थक रूप से दरकिनार करने में कामयाब रहा है।

 

इस अध्ययन से जो एक और महत्त्वपूर्ण बात उभरकर सामने आई है, वह भी प्रसिद्धि पाने की परंपरा के विचार पर केंद्रित थी।तेजी से होते वैश्वीकरण और महामारी का मुख्यधारा की मीडिया संस्कृति पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ा है और देश में ग्लोबल कंटेंट (वैश्विक सामग्री) का प्रवाह काफी बढ़ गया है। हालांकि,ध्यान देने लायक बात यह है कि इससे मीडिया संस्कृति में कैसे वैश्विक,क्षेत्रीय और स्थानीय विशेषताओं का समावेश होता है।वैश्विक सामग्री में क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रथाओं और परंपराओं की विशेषताओं को शामिल किए बिना,सामग्री को स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय बनाना संभव नहीं है।

 

एक प्रमुख ओटीटी प्लेटफॉर्म से जुड़ी कमीशनिंग एडिटर अनामिका के मुताबिक, विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की पसंद को समझने के लिए उनकी मानसिकता को समझना बेहद जरुरी है। वह कहती हैं, “मिसाल के तौर पर, हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि गोरखपुर के लोग क्या देखना चाहते हैं। सभी कंटेंट हर क्षेत्र में समान रूप से सफल होगा, यह विचार कुछ और नहीं, बल्कि एक भ्रम भर है।” कंटेंट की व्यवहार्यता को समझने के लिए आमतौर पर बाजार रिसर्च एजेंसियों की सेवाएं ली जाती हैं।

 

विभिन्न कंटेंट क्रिएटर्स के साथ गहन व्यक्तिगत साक्षात्कार के जरिये प्रतिनिधित्व के पहलू को खंगाला गया, ताकि यह समझा जा सके कि कैसे इससे कंटेट निर्माण से लेकर सामग्री की विविधता और उसे प्रस्तुत करने का तरीका निर्धारित होता है। लिंग, जाति, वर्ग और भौगोलिक क्षेत्र जैसे पहलुओं से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने की प्रासंगिकता और चुनौतियों पर गहन अध्ययन किया गया, खासकर सिनेमा और ओटीटी जगत में। कहानियां बनाते समय महिलाओं के आकर्षण को शामिल करने का महत्व; सशक्त आधुनिक महिला की छवि की फिर से कल्पना करने की आवश्यकता; हिंसा और दुर्व्यवहार दिखाने का तर्क और अपील आदि अध्ययन के प्रमुख बिंदुओं में शामिल थे।सामूहिक चर्चाओं के दौरान ‘सशक्त, आजाद’ महिला की फिर से कल्पना करने की आवश्यकता प्रमुखता से उभरकर सामने आई।

 

युवा महिलाओं, विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाली कम उम्र की महिलाओं ने कहा कि कंटेंट में एक आधुनिक महिला के चित्रण को लेकर गलत और दकियानूसी सोच देखने को मिलती है, जिसमें उसकी कल्पना सिगरेट के छल्ले उड़ाने और शराब पीने वाली कामुकता से भरी महिला के रूप में की जाती है।

 

इन महिलाओं ने रील पर सकारात्मक रोल मॉडल की कमी की बात स्वीकारी। पानीपत की एक कॉलेज छात्रा ने कहा, “हमें इन कहानियों में हमारा जीवन या परिवेश देखने को नहीं मिलता। ये हमारी कहानियां नहीं हैं।” हाल-फिलहाल में जिन फिल्मों और शो को महिलाओं की दोस्ती का जश्न मनाने वाली कहानियों के रूप में बनाया और प्रचारित किया गया है, वे इन युवा महिलाओं को मुख्य रूप से भटकी हुई या अपनी दुनिया से अलग कहानियां नजर आती हैं। इनमें ‘वीरे दी वेडिंग’ से लेकर ‘फोर शॉट्स मोर प्लीज’ तक शामिल हैं।

 

यह बात शायद तब और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जब हम यह महसूस करते हैं कि कैसे वर्तमान समय में नारीवादी और महिला आंदोलन मुख्यत: हमारे देश में महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाली कुछ मूलभूत और लंबे समय से चली आ रही समस्याओं की अनदेखी करते हैं। 

 

भारतीय समाज में घरेलू हिंसा, स्कूलों और कार्यस्थलों तक यौन उत्पीड़न के खतरे से मुक्त सुरक्षित आवाजाही, दहेज, बेटों की चाह जैसे गंभीर मुद्दों की जड़ें काफी गहरी हैं और ये आज भी बड़ी संख्या में महिलाओं के लिए चिंता का मुख्य सबब बने हुए हैं। बावजूद इसके, मुख्यधारा की डिजिटल दुनिया में इन मुद्दों पर ध्यान खींचने वाली कहानियां बहुत कम दिखाई जाती हैं।

 

इसलिए, जब नेटफ्लिक्स पर हाल ही में प्रदर्शित फिल्म ‘डार्लिंग्स’, जो कि घरेलू हिंसा पर आधारित थी, में शेफाली शाह का किरदार पुलिस स्टेशन में एक पुलिसकर्मी से तलाक को लेकर मजाक में, जिसमें वह पुलिसकर्मी तलाक के बारे में टिप्पणी करते हुए कहता है, “तलाक ट्विटर वालों के लिए खत्म है, हमारे लिए नहीं” तो यह तलाक जैसे सामाजिक कुरीति को लेकर डिजिटल दुनिया और असल दुनिया के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है।

 

दिलचस्प बात यह है कि अध्ययन में शामिल ज्यादातर लड़कियों ने पारिवारिक सामग्री देखने में रुचि जताई। उन्होंने ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘हम साथ साथ हैं’ जैसी पारिवारिक फिल्मों का बड़े चाव से जिक्र किया, जबकि इनमें से ज्यादातर का जन्म इन फिल्मों के रिलीज होने के कम से कम एक दशक बाद हुआ था। इसी तरह, लड़कों ने महिला प्रधान सामग्री देखने में तभी तक दिलचस्पी जाहिर की, जब तक कि उन्हें नारीवाद और महिला अधिकारों के बारे में ‘प्रवचन नहीं दिया जाता।’

 

 डिजिटल सामग्री में हिंसा दिखाने की प्रवृत्ति पर केंद्रित प्रारंभिक अध्ययन बदलाव की कल्पना को साकार करने के 'ब्रेकथ्रू इंडिया' के अनूठे प्रयासों का हिस्सा है, जिनमें ‘मन के मंजीरे’ एल्बम से लेकर ‘बेल बजाओ’ जैसे लोकप्रिय अभियान शामिल हैं, जिन्होंने घरेलू हिंसा के ज्वलंत मुद्दे को बड़े रचनात्मक रूप से सामने रखा।'डिजिटल सामग्री के माध्यम से प्रसिद्ध पाने की परंपरा' पर केंद्रित यह अध्ययन भी इसी तरह की ऊर्जा से प्रेरित है। इसका मकसद अलग-अलग माध्यमों और प्रारूपों के संदर्भ में सामग्री निर्माण की प्रक्रिया को समझना है, ताकि उन्हें हिंसा और लिंग से जुड़े खराब सामाजिक मानदंडों पर प्रहार करने के लिए तैयार किया जा सके।

 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह अध्ययन वर्तमान डिजिटल सामग्री में जेंडर के इर्द-गिर्द होने वाली उन संकुचित चर्चाओं पर लगाम लगाने की कोशिश करता है, जो लाखों भारतीय महिलाओं और पुरुषों के जीवन की वास्तविकताओं से परे होती हैं।

यह अध्ययन हमारे जीवन और मूल्यों को निर्धारित करने वाले हिंसा के विभिन्न स्वरूपों (दैनिक आधार पर होने वाली हिंसा और विस्फोटक घटनाओं में होने वाली हिंसा) और लैंगिक भेदभाव की प्रक्रिया का संज्ञान लेता है। यह दर्शाता है कि ये पहलू समाज और परंपराओं के निर्माण में कितनी अहम भूमिका निभाते हैं। यह रेखांकित करता है कि किस तरह लैंगिक भेदभाव पर केंद्रित सामग्री,नैतिकता और नारी सम्मान की भावना के खिलाफ रही हैं।

 

 

अगर डिजिटल सामग्री के माध्यम से चर्चित होने की परंपरा महत्त्वपूर्ण और जीवन को बदलने की ताकत रखती है, अगर आज की डिजिटल दुनिया ने लोगों को अपार लोकप्रियता वाले ब्रांड में तब्दील कर दिया है, अगर सिनेमा और ओटीटी में सीमाओं को लांघने की क्षमता है, तो संवाद शुरू करने का समय आ गया है और यह रिपोर्ट इसी दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

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