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40 साल की हो गई ‘सामना’

पुराने दौर की मराठी फिल्म ‘सामना’ के चालीस साल पूरे हो गए है। इस मौके पर फिल्म से जुड़े लोगों ने अपनी यादें ताजा की। इस फिल्म को बर्लिन फिल्म फेस्टीवल में खूब सराहना मिली थी
40 साल की हो गई ‘सामना’

राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे को उघाड़ कर सामने रख देने वाले नाटककार विजय तेंदुलकर की मशहूर मराठी फिल्म ‘सामना’ के 40 साल पूरे हो जाने पर कलाकार और समालोचक एक बार फिर इसका विश्लेषण कर रहे हैं। इस फिल्म ने बर्लिन फिल्म समारोह में अपनी खास जगह बनाई थी। श्वेत श्याम फिल्म ‘सामना’ आपातकाल लगने से थोड़ा पहले ही रीलिज हुई थी। सन 1974 में आई इस फिल्म में प्रसिद्ध कलाकार नीलू फूले और श्रीराम लागू थे। इस फिल्म ने जमीनी स्तर पर चीनी लॉबी की राजनीति और गरीबों के शोषण को सामने लाकर मराठी फिल्म इतिहास को ऐतिहासिक बना दिया था।

फिल्म निर्देशक के रूप में अपनी पहली फिल्म को याद करते हुए घासीराम कोतवाल से पहचान बनाने वाले जब्बार पटेल ने पिछले सप्ताहांत में एक सार्वजनिक सेमिनार ‘सामना नॉट आउट 40’ में फिल्म के बारे में कहा, ‘तेंदुलकर की कहानी ने चीनी लॉबी के अध्यक्ष और आदर्शवादी लेकिन असहाय शिक्षक के बीच टकराव दिखाया है। चीनी लॉबी का अध्यक्ष एक ऐसे भ्रष्ट तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है, जिसने नेताओं को सत्ता के गलियारे तक पहुंचाया है।’ शुरूआत में यह फिल्म दर्शकों के बीच अपना प्रभाव बनाने में विफल रही थी।

एक जर्मन फिल्म प्रतिनिधिमंडल फिल्म देखने मुंबई आया और इस फिल्म को देखने के बाद वह इसके कथानक औ नीलू फुले के प्रदर्शन से हतप्रभ रह गया था। धोती और  गांधी टोपी पहने नेता की भूमिका में नीलू फुले ने कमाल का अभिनय किया था। प्रतिनिधि मंडल उनके द्वारा निभाई गई हिंदुराव  और डॉ. श्रीराम लागू द्वारा निभाई गई शिक्षक की भूमिका से बेहद प्रभावित थे।

यहां फिल्म की यूनिट के लिए एक सुखद आश्चर्य था जब इस फिल्म को महज एक लाख रूपए से कुछ ऊपर के बजट की फिल्म के प्रदर्शन का निमंत्राण मिला। इन औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए उस वक्त मशहूर अदाकारा नरगिस उनकी मदद के लिए आईं थीं। इस फिल्म का प्रदर्शन बर्लिन अंतरराष्ट्रीय समारोह में जर्मन सबटाइटल के साथ किया गया था। बाद में इस फिल्म को काफी सराहना मिली और चार दशक पहले यह भ्रष्ट नेताओं के चित्राण के लिए बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई।

फिल्म के निर्माता रामदास फूटाने ने कहा, ‘मैं कला का शिक्षक था और गांव में 378 रुपए प्रति माह के वेतन पर काम करता था। तब मैं ग्रामीण महाराष्ट्र की घटनाओं के बारे में बहुत दुखी था। मैंने इसे फिल्म के माध्यम से सामने लाने का फैसला किया।’ उन्होंने कहा,‘ शुरुआत में, स्थापित नाटककार तेंदुलकर इस फिल्म को लेकर थोड़े विमुख से थे क्योंकि उन्हें मेरे आर्थिक नुकसान की चिंता थी। दरअसल मैंने फिल्म बनाने के लिए डेढ़ लाख रुपए उधार लिए थे।’ यही विचार जब्बार के भी दिमाग में आया क्योंकि बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म होने वाली थी। लेकिन बाद में उस वक्त के प्रसिद्ध कलाकार नीलू फुले और डॉ. श्रीराम लागू जब काम करने के लिए तैयार हो गए तो इस फिल्म पर काम शुरू हो गया। सहकारी चीनी लॉबी की राजनीति और ग्रामीण इलाकों में दलितों के क्रूर शोषण के मुद्दे पर यह आंखें खोल देने वाली फिल्म थी। इस फिल्म ने तेंदुलकर द्वारा लिखे गए प्रभावशाली संवादों के जरिये अपने लिए एक अलग जगह बनाई थी।

बीते पलों को याद करते हुए लागू ने कहा, ‘दिवंगत फुले द्वारा निभाई गई भूमिका ने इस फिल्म को एक अलग आयाम दिया। मैंने कई फिल्मों में काम किया लेकिन यह फिल्म मेरे लिए मील का पत्थर थी। मुझे नहीं लगता, मैं अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पाया था लेकिन मुझे खुशी है, लोगों ने इसे स्वीकार किया और सराहा।’

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