दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है लेकिन सत्ता में उनकी हिस्सेदारी, नेतृत्व एवं नुमाइंदगी, आबादी के अनुपात में काफी कम और कई क्षेत्र में तो नगण्य है। पूर्वोत्तर भारत में बसा एक राज्य नागालैंड है जहाँ अभी पिछले ही सप्ताह संपन्न हुए विधान सभा चुनाव में हेकानी जखालू और सलहो तूनो क्रूस चुनाव जीतकर वहां की विधायिका में सदस्य बनी हैं। राज्य बनने के साठ वर्षों बाद वहाँ के कानून बनाने में पहली बार किसी महिला का कोई योगदान होगा। पुरुष और महिला का बाह्य बनावट हो या फिर आंतरिक संरचना, इनमें भिन्नता स्पष्ट है जो जैविक विज्ञान की सच्चाई है। महिलाओं का पुरुषों की तुलना में कमजोर होना या कम योग्य होना पितृसत्तात्मक समाज द्वारा दुष्प्रचारित की गई कुत्सित कुंठा है। ऐसी ही अनगिनत कुंठाओं में से एक महिलाओंके मासिक धर्म से जुडी है। सच्चाई यह है कि मासिक धर्म की वजह से ही महिलाऐं प्रजनन कर सकने में सक्षम होती हैं लेकिन पुरुषवादी समाज ने सोची समझी साजिश के तहत अपनी माँ, बहनों एवं बेटियों को उनके मासिक धर्म के दौरान उन्हें अपवित्र करार दिया।
इस कुंठा से जुड़ा एक विवाद पिछले कुछ वर्षों में हमने केरल राज्य में देखा है। 10 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक की लड़कियों एवं महिलाओं का उनके मासिक धर्म के दौरानसबरीमला मंदिर के गर्भ-गृह में प्रवेश कानूनी रूप से वर्जित था। यह लिंग आधारित भेदभाव का बेजोड़ नमूना था। आखिरकार, सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 के फैसले में इस रिवाज़ को असंवैधानिक ठहराया। 24 फरवरी 2023 को सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ वाली तीन सदस्यीय पीठ ने मासिक धर्म पर अवकाश वाली जन याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता को सलाह दिया कि इस बाबत कोई कानून बनाने का निवेदन वह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से करे। तीन दिनों का मासिक धर्म अवकाश केरल राज्य ने इसी साल 19 जनवरी से लागू कर दिया है। यहाँ ध्यातव्य है कि 1992 में ही बिहार, महिला हक कानून बनाकर नजीर पेश का चुका है और ऐसा करने वाला वह देश का पहला राज्य है।
बात 1991 की है। बिहार के कर्मचारियों ने अपनी कई मांगों को लेकर राज्यव्यापी आंदोलन शुरू किया था। इस आंदोलन में कई अहम मांगों को रखा गया। इन मांगों में एक मांग महिला कर्मचारियों की तरफ से उठाई गयी। उनका कहना था कि मासिक धर्म के दौरान होनेवाले दर्द और कई तरह की अन्य परेशानियों को ध्यान में रखते हुए तमाम महिला कर्मचारियों को दो दिन का मासिक अवकाश दिया जाय। यह बिल्कुल नई मांग थी। शुरुआत में इस मुद्दे पर आपसी सहमति के लिए भी बहुत मशक्कत करनी पड़ी। शनैः शनैः इस हड़ताल में महिला कर्मचारी की तादाद बढ़ती चली गई। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री, श्री लालू प्रसाद जी ने इस ऐतिहासिक निर्णय के लिए केवल 5 मिनट का समय लिया था। जब देश स्तर पर मातृत्व और शिशु-देखभाल अवकाश ठीक ढंग से नहीं मिल रहे थे, वैसे समय में इस तरह के अवकाश की घोषणा निःसंदेह एक प्रगतिशील और अभूतपूर्व पहल थी।
नारीवादी आंदोलनों एवं नारीवादी साहित्य ने लिंग आधारित असमानता की निर्मित्ति को नए सिरे से स्थापित कर दिया है। जानी-मानी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती लिखती हैं: "पैतृकवाद लिंग आधारित श्रम विभाजन के साथ-साथ लिंग पर आधारित सत्ता संबंधों को भी मज़बूत करता है क्योंकि यह मूल रूप से इस विचार पर आधारित है कि शारीरिक असमानताओं के कारण महिलाओं को पुरुषों से भिन्न क्षेत्रों में काम करना चाहिए। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि पैतृकवाद के चलते ही हम यह सोचने लगते हैं कि पुरुषों और स्त्रियों की स्थिति में जो फर्क है वह महज जीव वैज्ञानिक है...जब स्त्री और पुरुष स्त्रियों की अधीनता की अवस्था को प्राकृतिक मानने लगते हैं और परिणामस्वरूप अधीनता की स्थिति दिखना बंद कर देती है तभी पितृसत्ता की जड़ें गहरे पैठ जाती हैं और वह एक वास्तविकता और विचारधारा के रूप में स्थापित हो जाती है।" अभी मासिक धर्म अवकाश से जुड़ा मामला भले ही न्यायालय में विचाराधीन है लेकिन महिला हक़ों के लिए तमाम लड़ाइयां सड़क से लेकर संसद तक लड़े जाने हैं। लड़ाई बेशक लम्बी है लेकिन जैसा कि रोज़ा लक्सेमबर्ग ने कभी लिखा था: "जिस दिन औरतें अपने श्रम का हिसाब मांगेंगी उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जायेगी।"
(लेखिका बी. एन. एम. यू. मधेपुरा (बिहार) में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)