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द न्यू आइकन: 'वीर' सावरकर की कहानी, तथ्यों की ज़ुबानी

  किताब का नाम:द न्यू आइकन: सावरकर एंड द फैक्ट्स लेखक- अरुण शौरी पृष्ठ: 543 कीमत: 999 रुपये प्रकाशक: पेंगुइन...
द न्यू आइकन: 'वीर' सावरकर की कहानी, तथ्यों की ज़ुबानी

 

किताब का नाम:द न्यू आइकन: सावरकर एंड द फैक्ट्स

लेखक- अरुण शौरी

पृष्ठ: 543

कीमत: 999 रुपये

प्रकाशक: पेंगुइन इंडिया

विनायक दामोदर सावरकर का नाम, लगभग एक दशक पहले तक, भारतीय जनमानस में उतना नहीं गूंजता था जितना आज गूंजता है। राजनीति में भी उनकी प्रासंगिकता पहले इतनी नहीं थी। उनके ऊपर किताबें भी कम लिखी गई थीं और खबरों में भी उन्हें उतनी जगह नहीं मिलती थी। भारत के दो प्रमुख दलों में से एक के लिए वे वैचारिक अग्रणी थे, जबकि दूसरा दल भी उन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से उतना नहीं तौलता था, जितना आज करता है।

सवाल यह है कि आज क्या बदल गया है? आज, विनायक दामोदर सावरकर को लेकर देश दो खेमों में बंट चुका है। एक उन्हें पूजता है, जबकि दूसरा उन्हें लगभग ‘अछूत’ मानता है। हालांकि, जैसे दो शब्दों के बीच में एक खाली जगह होती है, वैसे ही उनके जीवन में भी कई पहलू हैं जिन्हें आमतौर पर कोई नहीं जानता। उनकी व्याख्या अक्सर किसी न किसी दृष्टिकोण से की जाती है। लेकिन अरुण शौरी की किताब द न्यू आइकन: सावरकर एंड द फैक्ट्स सावरकर के जीवन, विचारधारा और उनके इर्द-गिर्द बने मिथकों को गहराई से परखती है।

यह पुस्तक न केवल ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाती है, बल्कि पाठक को इतिहास के उन कोनों में ले जाती है जो अक्सर अनदेखे रह जाते हैं। शौरी एक पत्रकार रह चुके हैं। कहा जाता है कि पत्रकार भले सक्रिय न हो, लेकिन उसकी दृष्टि हमेशा वस्तुनिष्ठ और तथ्यनिष्ठ रहती है। इस किताब में वह दृष्टि कई जगह दिखाई देती है। अपने विद्वत्तापूर्ण और पत्रकारीय अनुभव के साथ, शौरी सावरकर की जटिल छवि इस किताब में उकेरते हैं। यह पुस्तक न तो किसी को महिमामंडित करती है और न ही किसी को पूरी तरह खारिज, बल्कि तथ्यों को सामने रखकर पाठक को सोचने का अवसर देती है।

पुस्तक सावरकर के जीवन के कई पहलुओं को उजागर करती है। एक जगह शौरी लिखते हैं, “क्या सावरकर ने गांधी के साथ लंदन में दोस्ताना समय बिताया था, जैसा कि उन्होंने दावा किया?” वह तथ्यों के साथ स्पष्ट करते हैं कि यह दावा गलत था, क्योंकि गांधी उस समय वहां थे ही नहीं। इसी तरह, मार्सिल्स की प्रसिद्ध ‘समुद्री छलांग’ की कहानी को भी वे चुनौती देते हैं, “जहाज बंदरगाह पर रुका था, कोई तूफानी समुद्र नहीं था।” ये खुलासे सावरकर की छवि को मिथक और वास्तविकता के बीच झूलते हुए दिखाते हैं।

सावरकर की वैचारिक यात्रा भी पुस्तक का महत्वपूर्ण हिस्सा है। शौरी बताते हैं, “1857 के संग्राम में सावरकर हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते थे, लेकिन बाद में उनकी हिंदुत्व की परिभाषा में मुसलमानों को ‘खतरे’ के रूप में चित्रित किया।” यह परिवर्तन उनके विचारों की जटिलता को दर्शाता है। शौरी आगे चेतावनी देते हैं, “सावरकर की विचारधारा को गलत ढंग से प्रस्तुत करने से हिंदू धर्म की समावेशी आत्मा को चोट पहुंच सकती है।” यह विचार पाठक को आधुनिक संदर्भ में हिंदुत्व की व्याख्या पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है।

पुस्तक का एक और महत्वपूर्ण पहलू सावरकर की दया याचिकाओं का विश्लेषण है। शौरी लिखते हैं, “सावरकर ने अंडमान जेल से ब्रिटिश सरकार को लिखा था कि वे ‘राजनीतिक रूप से उपयोगी’ होंगे।” यह तथ्य सावरकर के राष्ट्रप्रेम और उनके कुछ विवादास्पद निर्णयों के बीच के तनाव को उजागर करता है। शौरी इन तथ्यों को बिना किसी अतिशयोक्ति के प्रस्तुत करते हैं, जिससे पुस्तक की विश्वसनीयता बढ़ती है।

543 पृष्ठों की यह पुस्तक गहन शोध और संयमित लेखन का उदाहरण है। यह उन पाठकों के लिए है जो इतिहास को तथ्यों के आधार पर देखना चाहते हैं। कुछ लोगों के लिए इसका गहन विश्लेषण जटिल लग सकता है, लेकिन यह एक ऐसी कृति है जो सावरकर के व्यक्तित्व को नई रोशनी में प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक इतिहास, विचारधारा और सत्य के बीच की खोज है, जो पाठक को स्वयं से सवाल पूछने के लिए छोड़ देती है।

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