प्राचीन कला केन्द्र चण्डीगढ़ द्वारा 26वीं तिमाही बैठक का आयोजन नई दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम के सभागार में किया गया। गौरतलब है कि शास्त्रीय संगीत-नृत्य शैली के अनेक प्रखर और ऊर्जावान युवा कलाकारों को मंच पर प्रतिभा उजागर करने में यह बैठक बहुत ही कारगर साबित होती दिख रही है। इस तिमाही बैठक का आयोजन लिजेंड्स आफ टुमारो शृंखला के तहत किया जाता है।
राष्ट्रीय स्तर पर भारत के संगीत-नृत्य की विरासत से लोगों का अवगत कराने और लोकप्रिय करने में प्राचीन कला केन्द्र के निदेशक पंडित सजल कोसर की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज के बदलते दौर में परम्परागत संगीत-नृत्य के प्रदर्शन को सफल बनाने के तरीके बदल गए हैं। परम्परावादी सिद्ध कलाकारों का मानना है कि आजकल ज्यादातर कलाकारों में सदियों पुरानी कला की गरिमा को बरकरार और सुरक्षित रखने की प्रवृति कम होती जा रही है। इस समय महज शोहरत पाने के लिए प्रदर्शन में कई तरह के हथकंड़े अपनाये जा रहे हैं। ऐसे माहौल में देश में आयोजित होने वाले संगीत-नृत्य समारोह में चण्डीगढ़ का प्राचीन कला केन्द्र का आयोजन के न सिर्फ प्रमुख है बल्कि पूरे साल सांस्कृतिक गतिविधियों को जारी रखने में उल्लेखनीय है।
तिमाही बैठक के कार्यक्रम में इस बार प्रतिभावान युवा कथक नृत्यांगना आरती श्रीवास्तव और कोलकाता के सुपरचित बांसुरी वादक सुदीप चट्टोपाध्याय की मनोरम प्रस्तुतियां हुई। द्वीप प्रज्वलन के बाद कार्यक्रम का आरम्भ सुदीप के सरस बांसुरी वादन से हुआ। उन्होंने राग शुद्ध कल्याण को आलाप में विस्तार से पेश करने में राग के स्वरूप को सुन्दरता से निखारा। बजाने में उनकी फूंक में अच्छा संतुलन और संयम था। लयकारी के साथ राग का प्रवाह खूबसूरत दिखा। विलम्बित एकताल और तीनताल में बंदिश को पेश करने में स्वरों का लगाव, मधुरता और अन्दोलित स्वरों की तरलता मन को आनंदित करने वाली थी। तीनताल में निबद्ध राग यमन की बंदिश पेश करने में उन्होंने शुद्ध रागदारी में खूबसूरत चलन पेश किए। आखिर में उनके द्वारा धुन की प्रस्तुति भी रसरंजक थी। उनके बांसुरी वादन के साथ कोलकाता के सुयोग्य तबला वादक पं.सुबीर अधिकारी ने नपा-तुला तबला वादन किया।
कार्यक्रम का समापन दिल्ली की युवा कथक नृत्यांगना आरती श्रीवास्तव के नृत्य से हुआ। जयपुर घराने की मशहूर नृत्यांगना और गुरु प्रेरणा श्रीमाली और समीक्षा से नृत्य के हर पक्ष को गहराई और सूझबूझ से सीखी आरती के नृत्य में अच्छी तैयारी और ताज़गी से भरे लालित्यपूर्ण चलन दिखे। नृत्य के लिहाज से उसका शारीरिक गठन, आंखों की चितवन, हस्तक और थिरकते पांवों में अच्छी चमक और रंग था। उसने नृत्य का आरम्भ आदि शंकराचार्य द्वारा रचित शिव वंदना की भक्तिमयी प्रस्तुति से की।
इसके उपरांत शुद्ध जयपुर घराने की शैली में तालबद्ध नृत्य-नृत के विविध प्रकारों- तोड़े-टुकड़े ठाट, गत, लयात्मक गति में लड़ी, उठान, आमद आदि को शुद्धता से पेश करने में आरती पूरी तरह परिपक्व दिखी। उसके नाच में पैरों का चाल में कई सीधी और वक्र और लहराती चालों का सूझभरा कलात्मक प्रदर्शन प्रस्तुति में नज़र आया। चक्कर लेने में अंग संचालन, विविध दिशाओं में हस्तक का घुमाव और लहकती लय में पैरों का काम संतुलित और आकर्षक था। वह जिस स्तर पर द्रुत लय में नृत्य की बढ़त को गति दे रही थी उसमें उसकी गहन साधना के संकेत अंकित हो रहे थे।
पारम्परिक नृत्य के साथ अभिनय पक्ष को भी उसने कुशलता से निभाने का प्रयास किया है। उसकी झलक राग गौड़ सारंग में निबद्ध ठुमरी की प्रस्तुति में दिखी। शृंगार रस प्रधान कवित्त चूड़िया मुरक जाई सैयां न छेड़ो की प्रस्तुति में भी उसका भावाभिनय मुग्धकारी था। आखिर में उसने तीनताल पर कथक की कई बोलों की बंदिशों, कई प्रकार की गतों की निकास और विलम्बित से लेकर द्रुत लय में चलनों को सुन्दरता से पेश किया। आरती के नृत्य को गरिमा प्रदान करने में तबला पर उस्ताद शकील अहमद, शम्भू सिसौदिया और बोल पढ़ंत में विश्वदीप शर्मा ने संगत की।