ज़िंदगी के स़फर में कई लोगों से आपकी मुलाकातें होती हैं। चंद लोगों से यह मुलाकातें जान-पहचान में तब्दील होती है और फिर उनके और आपके बीच एक आत्मीयता का रिश्ता पैदा होता है। ऐसे रिश्ते पैदाइशी नहीं होते, बल्कि व्यक्ति इन्हें ख़ुद चुनता है। मुनव्वर राना से मेरा रिश्ता पहले मुलाकातों, फिर जानपहचान और फिर आत्मीयता में तब्दील हुआ। बतौर शायर मुनव्वर राना का काम चारों तरफ उस ख़ुशबू की तरह बिखरा हुआ है, जिसकी महक सदा जवान है। रात से अल-सुबह तक चलने वाली महफिलें या इंदौर के कामयाब मुशायरे... उनकी शायरी की संकलित और संपादित किताब ‘फिर कबीर’ लिखने का मौका हो, यादों का एक ऐसा ज़खीरा है, जिसकी अलग-अलग तस्वीरें उनकी शख़्सियत और रखरखाव का जो ज़िंदगी और जिंदादिली से भरपूर है। यूं उनके न रहने से दोबारा तरोता़जा हो गया।
मुशायरे की दुनिया में मुनव्वर राना ने सुपर स्टार-सी कामयाबी हासिल की थी। जितने मुशायरों में वो हाज़िर रहे, उससे ज्यादा मुशायरों में वो ग़ैर हाज़िर रहे। जो मकाम उन्होंने हासिल किया उस पर बने रहने का कमाल उनकी शख़्सियत में था। व्यक्तिगत तौर पर राना सच्चे मायनों में सेक्युलर श़ख्स थे। वो मंदिर की सीढ़ियां भी उतनी आसानी से चढ़ जाते थे, जितनी आसानी से किसी मस्जिद या दरगाह पर जाना होता था। उनके पिता एक मामूली ट्रक ड्राइवर थे और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि बिल्कुल उसी तरह की थी, उसमें साहित्य या कहें कला और अदब के लिए कोई जगह थी ही नहीं। उनके पिता अपने कामकाज के सिलसिले में कलकत्ता चले गए और बड़ा बेटा होने के नाते उनका हाथ बंटाने के लिए मुनव्वर राना भी रायबरेली से कलकत्ता चले गए।
कलकत्ता की आबोहवा ने उनका झुकाव पढ़ाई की तरफ और उसके बाद कला और साहित्य की तरफ भी किया। अपनी पढ़ाई के दौरान मुनव्वर राना ने ड्रामों में जमकर एक्टिंग की और खूब तारीफें बटोरी। कला के इसी रास्ते से उनका परिचय साहित्य से हुआ और कुछ ड्रामे और कहानियां उन्होंने लिखी भी। तबके कलकत्ता में युवाओं में कामरेड हो जाना आम बात थी, सो वो भी कामरेड हो गए। कुछ समय तक कलकत्ता के नक्सलवादियों के साथ उन्होंने न सिर्फ काम किया बल्कि इस यकीन के साथ काम किया कि परिवर्तन बंदूक की गोली से ही हो सकते हैं।
कुछ पारिवारिक हालात इस तरह के हुए, कुछ पिता ने भी सख्ती बरती और कुछ घर के हालात ने भी आवा़ज दी। वे पूरी तरह बंधकर पिता के ट्रांसपोर्ट के कारोबार को संभालने लगे। ट्रांसपोर्ट के कारोबार के दौरान कुछ ऐसे दोस्तों से मुलाकात हुई, जो शे’रो-शायरी में अपना दखल रखते थे और कुछ नशिस्तें और मुशायरे भी करवाते थे। उनकी सोहबत में मुनव्वर राना की शख़्सियत में पुरानी दबी हुई रूचियों ने दोबारा जन्म लिया और वो भी शे’र कहने लगे। अब उनका नाम हो गया सैय्यद मुनव्वर अली आतिश। उन दिनों प्रसिद्ध शायर अहमद फराज़ जो कि तत्कालीन पाकिस्तानी हुकूमत के जेल वारंट से बचते-बचाते कलकत्ता में शरण लिए हुए थे। उनसे मुलाकातें होती और उनकी सोहबत में मुनव्वर राना की शायरी में निखार आना शुरू हुआ। उन्होंने यह सलाह दी कि उन्हें किसी उस्ताद से बकायदा शे’र कहने और लिखने का हुनर सीखना चाहिए। उनके अंदर बड़े शायर हो जाने की संभावना है। शायरी के लिए उस्ताद की तलाश प्रसिद्ध शायर वालीआसी पर जाकर ख़त्म हुई। मुनव्वर राना कहते हैं- ‘‘सबसे पहले वाली भाई ने मुझसे कहा यार तुम्हारा जो नाम है सैय्यद मुनव्वर अली आतिश ये तुम्हारी शा़fख्सयत को पूरी पहचान नहीं देता, तो तुम्हारा नाम रखते हैं मुनव्वर। तुम इसी नाम से शायरी करो ये पेन नेम वगैरह की जरूरत नहीं है।’’ मुनव्वर राना ने इसे कबूल कर लिया बस इसमें अपनी ट्रांसपोर्ट कंपनी का राना और जोड़ दिया इस तरह वो ‘मुनव्वर राना’ हो गए।
वालीआसी की सोहबत में मुनव्वर राना ने जो शायरी करना शुरू की वो लोगों की ज़ुबान पर चढ़ती चली गई और उसका ज़ायका सदियों तक लोगों की ज़ुबान पर रहेगा। अपना पहला कामयाब मुशायरा और पहला विदेश में कामयाब मुशायरा वालीअसी की मौ़जूदगी में ही पढ़ा। मह़िफल की किस्सागोई को दिलचस्प बना देने की कला मुनव्वर राना की शख़्सियत का एक ऐसा पहलू है, जो रात ढलने और सुबह होने के पहले ही निजी महफ़िलों में सामने आया। उनका लिखा हुआ गद्य उनकी शायरी से ज़्यादा वजनदार था। उनकी आत्मकथा के दोनों अंश हिन्दी की लोकप्रिय पुस्तकों में शुमार होते हैं और साथियों पर लिखे गए संस्मरण इस बात का प्रमाण हैं। मुनव्वर राना के खानदान का एक हिस्सा आज़ादी के बाद पाकिस्तान चला गया। उनके पिता ने उन भावनात्मक मुश्किलों के बाद भी हिन्दुस्तान में रहना तय किया और इस फैसले पर पूरी ज़िंदगी मुनव्वर राना फ़ख्र करते रहे। वे अक्सर विदेशों में कहा करते थे और खासकर मुस्लिम देशों में आपके यहां आकर भी मुहाजिर हूं और मैं अपने वतन में 100 करोड़ हिन्दूओं की निगरानी में भी सुरक्षित हूं।
मुशायरों के स्टारडम ने उन्हें जो लोकप्रियता दी, उसके नतीजे ने साहित्य का बड़ा नुकसान हुआ। मुशायरों की महफिलों में बने रहने के लिए आपको ऐसी भी शायरी करनी पड़ती है जो दाद और तालियों के बाद ख़त्म हो जाती है। अगर वे उस दुनिया में उतने नहीं रमें होते तो एक बहुत बड़ी साहित्यिक विरासत हिन्दी और उर्दू के लिए छोड़ गए होते। मुशायरे के इतर भी उन्होंने जो काम किया उस थोड़े से काम की वजह से भी उन्हें साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला। यदि थोड़ी सी फुर्सत और निकाल लेते तो ऊपर लिखी हुई बात पूरी तरह सच हो जाती। फिर कबीर का संपादन और संकलन करते वक्त उन्होंने मुझे दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि मेरी भी शायरी रास्ते से भटक गई और बहक भी गई। माँ को ग़ज़ल का विषय बनाने और उस पर शायरी ने एक लंबी कामयाबी की लकीरें खींच दीं। जिस पर अब तक कई सारे नए शायर भी चल रहे हैं। बेकल उत्साही और नीरज और बाद में सिर्फ नीरज ने एकल पाठ का चलन शुरू किया। उर्दू शायरी में सिर्फ मुनव्वर राना इकलौते शायर थे जिन्होंने उसमें भी कामयाबी हासिल की और बुलंदियों तक पहुंचे। उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी बिल्कुल आम आदमी की जिंदगी की तरह थी। बहुत मुश्किल से उन्होंने अपना बिजनेस खड़ा किया था। और जिंदगी के आखिरी पांच सालों पहले तक उसे वे खुद करते रहे। पारिवारिक और व्यक्तिगत उलझनों और हालातों ने उनकी शख़्सियत पर भारी बोझ डाला। अगर वे थोड़े भी बेहतर होते उसको बदलने की जद्दोजहद में इतनी सारी बिमारियां उन पर सवार नहीं होती। जो आखिरी में उनको निगल गई। मुनव्वर राना को जानने और समझते व़क्त आपको इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि उन्होंने अपनी शायरी में सहजता और सरलता को बनाए रखा। उर्दू में लिखने के बावजूद भी उन्होंने उसकी सीमाओं को तोड़ा और हिन्दी लिखने और बोलने वालों के बीच उनकी लोकप्रियता चरम पर रही। इंदौर से हमेशा उनका एक खास रिश्ता रहा, इसे उन्होंने अपने दूसरे घर की तरह स्वीकार किया। अपनी बीमारी के दिन और ज़िन्दगी की जद्दोजहद से लड़ने की ता़कत इंदौर की आवाम ने उन्हें दी। जिसका क़र्ज वे महसूस करते थे और पूरी दुनिया में उसका ज़िक्र करते थे।
तमाम लोग अपनी इंसानी कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश करते हैं। ये जद्दोजहद वो अपने होशोहवास में हमेशा करते रहे। इन्हीं जद्दोजहद के कारण भी बहुत सारे विवाद उनके हिस्से में आ गए। और बहुत सारी कामयाबी भी इतने कामयाब होने के बाद उनसे दूर चली गई।