अपनी किताब एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर के जरिये राजनीतिक गलियारों में तहलका मचाने वाले मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार, संजय बारू इस बार पुस्तक, जर्नी ऑफ ए नेशन: 75 इयर्स ऑफ इंडियन इकोनॉमी में अपने ज्ञान का पिटारा खोला है। संजय बारू ने इस किताब में साफ किया है कि ये उनलोगों के लिए है जो अर्थशास्त्र के पेचीदे जार्गन्स को नहीं समझते हैं। किताब को पोस्ट-मिलेनियल्स को ध्यान में रखकर लिखा गया है।
बारू ने अपनी कहानी मध्ययुगीन काल से शुरू की है जब भारत वैश्विक व्यापार और वाणिज्य के केंद्र में था। उस समय भारत और चीन की जीडीपी का हिस्सा, दुनिया में करीब 50 प्रतिशत के करीब था और कैसे मुगल काल में धीरे-धीरे हिस्सेदारी कम होनी शुरू हुई और औपनिवेशिक काल में कैसे भारत 'सोने की चिड़िया' से एक गरीब बन गया।
बारू ने अपने किताब में बताया है कि 1920 और 40 के दशक में तीन महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुए जिसका भारत की अर्थव्यवस्था की पॉलिसी पर लंबे समय तक प्रभाव रहा। जैसे इंडियन फिस्कल कमीशन का गठन जिसमें सरकार की तरफ से विकास के लिए 'भेदभावपूर्ण सुरक्षा' की जरूरत बताई गई थी, दूसरा, कांग्रेस पार्टी द्वारा राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया जाना और भारत के प्रमुख उद्योगपतियों ने बॉम्बे योजना का बनाया जाना।
यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रवादी राजनेताओं और उस युग के प्रमुख उद्योगपतियों दोनों का मानना था कि भारत को तेजी से औद्योगीकरण करने और लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए किसी प्रकार की योजना बनाने की आवश्यकता है। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में आर्थिक नियोजन का युग प्रारंभ हुआ।
बारू भारत में योजना और राज्य के नेतृत्व वाले विकास और उन्हें तैयार करने वाले प्रमुख व्यक्तित्वों पर बहस का विस्तृत विवरण देता है। इस नियोजन युग ने भी दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया और कई प्रमुख पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने संसदीय लोकतंत्र और आर्थिक नियोजन के साथ भारत के अनूठे प्रयोग में गहरी दिलचस्पी ली।
बारू बताते हैं कि कैसे 1950 के दशक में भारत में तेजी से औद्योगिक विकास हुआ लेकिन सन 60 तक यह रफ्तार धीमी पड़ने लगी। बारू इसके लिए दो कारणों को देखते हैं, पहला, 1962 में हुआ चीन-भारत युद्ध और 1965 में हुई भारत-पाकिस्तान की लड़ाई। दूसरा, भीषण सूखे से गहराई आसन्न खाद्य संकट जिसने घरेलू और बाहरी वित्त को प्रभावित किया।
बारू ने समझाया है कि कैसे इंदिरा गांधी के समय भारतीय अर्थव्यवस्था 'लेफ्ट' टर्न लेने लगी और मोरार जी देसाई के सत्ता में आने के बाद इकोनॉमी 'राइट' यानि उदार होने लगा।
वामपंथी बदलाव को बैंक और बीमा राष्ट्रीयकरण द्वारा चिह्नित किया गया था। सत्तर के दशक के मध्य तक मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर चल रही थी और विकास ठप हो गया था, यह अहसास बढ़ रहा था कि 'लाइसेंस-परमिट-कोटा' राज केवल कुछ उद्योगपतियों की मदद कर रहा था और इस पर फिर से विचार करने की आवश्यकता थी। 1970 के दशक के अंत में सुधारों के कुछ शुरुआती संकेत देखे गए, जिन्हें 1980 के दशक में तेज कर दिया गया था।
1980 के दशक ने उद्योग के प्रति नीति निर्माताओं की धारणा में बदलाव को चिह्नित किया, जब व्यापारिक नेताओं को आर्थिक विकास में भागीदार के रूप में देखा जाने लगा। यह भी एक दशक था जब विनिर्माण क्षेत्र ने प्रभावशाली वृद्धि दर्ज की, लेकिन सकल राजकोषीय कुप्रबंधन के कारण, 1991 के भुगतान संतुलन संकट के बीज भी बोए गए थे।
बारू हमें 1991 के महत्वपूर्ण सुधारों और पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह को सुधारों के मुख्य वास्तुकार बताते हैं। बारू बताते हैं कि 1991 के उदारीकरण नीति की मुख्य वजह थी, सिकुड़ता बैलेंस ऑफ पेमेंट और बढ़ता करेंट अकाउंट डेफिसिट। इस किताब में यह समझने को मिलेगा की कैसे भारत ने डिफ़ॉल्ट से बचने के लिए अपना सोना गिरवी रखा और कैसे राव ने इस संकट का उपयोग भारतीय अर्थव्यवस्था को उदार बनाने के लिए गहरे सुधारों को प्रभावित करने के लिए किया। अंत में बारू भारत का अन्य देशों से एक विस्तृत तुलनात्मक विवरण भी पेश करते हैं।
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किताब का नाम: जर्नी ऑफ ए नेशन: 75 इयर्स ऑफ इंडियन इकोनॉमी
लेखक: संजय बारू
प्रकाशक: रूपा
पृष्ठ: 178
मूल्य: 395