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पुस्तक समीक्षा: 'हस्ताक्षर, कला इतिहास में बिहार की महिलाएं'

नाम: हस्ताक्षर, कला इतिहास में बिहार की महिलाएं लेखिका: रीना सोपम प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन पृष्ठ:144 मूल्य...
पुस्तक समीक्षा: 'हस्ताक्षर, कला इतिहास में बिहार की महिलाएं'

नाम: हस्ताक्षर, कला इतिहास में बिहार की महिलाएं

लेखिका: रीना सोपम

प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन

पृष्ठ:144

मूल्य : 300/=

पिछले दिनों प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित तथा वरिष्ठ पत्रकार तथा कला लेखिका, रीना सोपम की किताब, 'हस्ताक्षर कला इतिहास में बिहार की महिलाएं' आई है जो प्रदर्श कला के इतिहास में बिहार की महिलाओं की भागीदारी पर आधारित है।

इस संदर्भ मे एक जानकारी देना आवश्यक है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों में हालाँकि कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं. इनमें एक नाम बहुत ही महत्वपूर्ण है, बाबू रामदीन सिंह रचित 'बिहार दर्पण'। ये पुस्तक सन 1882 में छपी और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जैसे दिग्गजों ने भी इसकी काफी सराहना करते हुए कहा कि, हिन्दी में इस तरह की ये पहली पुस्तक है। यह पुस्तक एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया, क्योंकि उन्नीसवीं सदी के अभिजात्य(कुछ जन्म से और कुछ कर्म से अभिजात्य) वर्ग के सोच और समझ की जानकारी इस पुस्तक से मिलती है।

इस पुस्तक में पहली बार बिहार के तकरीबन हर क्षेत्र से लोगों का चयन कर उनकी संक्षिप्त जीवनी तैयार की गई थी। व्यापार, राज कर्मचारी, साधु-संत, पहलवान इत्यादि हर क्षेत्र के लोग जो अलग - अलग तरीके से समाज को प्रभावित कर रहे थे।
कुछ दशक पहले महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाऊँडेशन द्वारा इसे फिर से महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह बिहार हेरिटेज सीरीज के तत्वावधान में प्रकाशित कर इतिहासकारों और शोधार्थियों को उपलब्ध कराया। लेकिन मुद्दे की बात ये रही कि इस पुस्तक में एक भी महिला का नाम नहीं है जिसकी कमी लोगों को खली. दूसरे ये कि इस किताब में एक भी व्यक्ति नाट्यकला या संगीत के क्षेत्र से नहीं लिया गया।

इसके अलावा एक और बात जो बिहार के संदर्भ में ध्यान आकर्षित करती है, वो ये कि, जब भी कोई पुस्तक दक्षिण या मध्य बिहार में लिखी जाती थी तो उत्तर बिहार, खासकर मिथिलान्चल - सीमान्चल को दरकिनार कर दिया गया. बल्कि मिथलान्चल- सीमान्चल के दिग्गजों ने भी उन क्षेत्रों के साथ वैसा ही व्यवहार किया।

उस बिहार दर्पण के लगभग डेढ सौ साल बाद रीना सोपम की पुस्तक 'हस्ताक्षर, कला इतिहास में बिहार की महिलाएँ' आई है जिसे इन सभी मायनों में एक लैण्ड मार्क माना जा सकता है। इन्होंने एक तो महिलाओं की बात की, दूसरे कला और सांस्कृतिक विरासत को किताब के केंद्र में रखा और तीसरी महत्वपूर्ण बात ये कि इन्होने सम्पूर्ण बिहार से लोगों को चुना।
'हस्ताक्षर' वास्तव में पूरे बिहार के कलाकारों के जीवनी को दर्शाने वाला पहला प्रयास है, जिसे रीना सोपम जी ने बहुत ही खूबसूरती के साथ कई सर्गों में बाँटा है, ताकि सभी लोगों के साथ न्याय हो सके और ऐसा हुआ भी है।

सभी जानते हैं कि हमारे देश की प्रदर्शकलाएं, विशेष रूप से राग संगीत और शास्त्रीय नृत्य कला परंपराएँ देश की आजादी से पहले एक वर्ग विशेष में सिमट गई थी. लेकिन स्वतंत्रता के बाद के वर्षो में कुछ इनी गिनी महिलाओं ने ही कला परंपरा को उस विशेष वर्ग से निकालने में बडी भूमिका निभाई. महत्वपूर्ण बात थी कि ये महिलाएँ संभ्रांत समाज की थीं और इन्होंने कला परंपरा को न केवल परिवार का हिस्सा बनाया, बल्कि पूरे समाज में इसे विस्तार दिया. उन दिनो राग संगीत और शास्त्रीय नृत्य तो क्या, रंगकर्म भी संभ्रांत समाज की महिलाओं के लिए वर्जित था। इसके बावजूद कुछ महिलाओं ने इस क्षेत्र में बहुत मजबूती से कदम रखा था और अपनी लगन और मेहनत से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी।

ऐसी ही 19 विशिष्ठ महिलाओं की चर्चा की गई है इस किताब में। लोक कलाकार विंध्यवासिनी देवी, कुमुद अखौरी, शारदा सिन्हा और शांति जैन से लेकर सितार कलाकार गिरिजा सिंह तक की चर्चा है यहाँ. बल्कि चंदना डे से लेकर डॉ रमा दास और नलिनी जोशी के कला क्षेत्र में योगदान का विस्तार भी है तो नवनीत शर्मा और नूर फातिमा की भूमिका को भी रेखांकित किया गया है. विभिन्न प्रदर्श कला क्षेत्र में सक्रिय रही ये महिलाएँ बिहार के विभिन्न भाषा समाज की हैं।

इनमें कुछ महिलाएँ हिंदी भाषी हैं तो कुछ बिहार में सदियों से बसे बांग्ला भाषी परिवार की महिलाएँ हैं. लेकिन कला परंपरा से जुडाव ही उन्हे एक सूत्र में पिरोए रहा था। इनमें कुछ वैसी महिलाएँ भी हैं जिनका जन्म आजादी के बाद हुआ था, लेकिन चूँकि उन्होने कला क्षेत्र में एक नया लीक तैयार किया और एक 'पाथमेकर' के रूप में जानी जाती रही हैं, इसलिए उन्हे भी शामिल किया गया है इस संकलन में। इनमें कुछ शास्त्रीय गायन तथा तंत्र वादन से जुडी महिलाएँ हैं तो कुछ लोक गीत से संबद्ध रही हैं. कुछ शास्त्रीय नृत्य तो कुछ रंगमंच से जुडी हैं।

इन सभी ने घर की चारदीवारी से मंच तक का सफर कैसे तय किया, उन चुनौतियों की चर्चा है यहाँ. और उन चुनौतियों से उबरने में उनके परिवार की कैसी भूमिका रही, इसकी बाते भी हैं।
लेकिन यह किताब केवल उनके संघर्ष की घटनाओं का लेखा जोखा नही है, बल्कि कलाक्षेत्र में उन्होने कौन-कौन से मुकाम हासिल किए, इसका दस्तावेजीकरण हुआ है इस किताब में।

किताब का एक खंड केंद्रित है बिहार की उन महिलाओं पर जिन्होंने कला परंपरा और कलाकारों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

सभी जानते हैं कि कला परंपराएँ और कलाकार को आगे बढने के लिए संरक्षण -सहयोग की आवश्यकता होती है. ऐसे में संरक्षण कार्य में सक्रिय महिलाओं के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. अतः किताब का एक खंड समर्पित है उन्ही कला संरक्षकों को जिसमें बेगम अजीजा इमाम, सावित्री देवी और उमा-गौरी चटर्जी की गतिविधियों की चर्चा विस्तार से की गई है।
बिहार की ऐसी ही विशिष्ठ महिला कलाकारों और कला संरक्षक महिलाओं के योगदानों और उपलब्धियों का दस्तावेजीकरण माना जा सकता है।
और किताब के अंतिम अध्याय में उत्तर भारत की एकमात्र शास्त्रीय नृत्य शैली, कत्थक में बिहार की महिलाओं की भागीदारी पर विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ गौर करनेवाली बात ये है कि
इनमें से अधिकतर महिलाओं की चर्चा बहुत कम होती रही है और उनसे संबंधित लिखित जानकारी तो नहीं के बराबर ही उपलब्ध रही हैं।
अतः आनेवाली पीढी को तो इस किताब के माध्यम से उनकी जानकारी मिलेगी ही, बल्कि वर्तमान पीढी को भी उन महिलाओं को जानने- समझने का मौका मिलेगा जिनमें से कई लोगों के नाम से भी वे अपरिचित रहे हैं। बिहार की आधी आबादी ने प्रदेश के कला इतिहास में कैसी भूमिका निभाई, इसका विस्तृत प्रमाण है यह किताब। आतः जिन्हे राज्य की कला यात्रा को अच्छी तरह समझना है, उनके लिए इस किताब से रूबरू होना अच्छा रहेगा।

कुल मिलाकर बिहार के समाज संस्कृति में रुचि रखनेवालों के लिए संग्रहणीय है यह किताब।
मैं रीना सोपम जी को ऐसी कीर्ति के लिए आभार प्रकट करते हुए उनसे निवेदनपूर्वक कहूंगा की 'हस्ताक्षर' को और भी कई भागों में सीरीज के तौर पर तैयार करें, ताकि लोगों को बिहार की समृद्धि के संदर्भ में पर्याप्त जानकरी प्राप्त हो सके।

श्रुतिकर झा
कार्यकारी पदाधिकारी
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाऊँडेशन,
दरभंगा, बिहार

 

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