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हिरासत में मौतः पुलिस क्रूरता

हर साल देश के हर राज्य में पुलिस की बर्बर मारपीट से कई लोग अपनी जान गंवा रहे हैं, इन मौतों के बढ़ते जाने...
हिरासत में मौतः पुलिस क्रूरता

हर साल देश के हर राज्य में पुलिस की बर्बर मारपीट से कई लोग अपनी जान गंवा रहे हैं, इन मौतों के बढ़ते जाने की वजह क्या

तमिलनाडु के शिवगंगा जिले में हुई हिरासत में मौत ने पुलिस की जवाबदेही और उसके काम करने के तरीके को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। 27 वर्षीय अजीत कुमार मदुरै के पास स्थित मदापुरम कालियम्मन मंदिर में सुरक्षा गार्ड थे। यह मंदिर का प्रबंधन ‘हिंदू रिलिजियस ऐंड चैरिटेबल एंडोमेंट्स’ विभाग के तहत है। 28 जून को एक श्रद्धालु ने मंदिर में चोरी की शिकायत दर्ज कराई। शिकायत के आधार पर तिरुपुवनम पुलिस ने उन्हें सुरक्षा गार्ड अजीत को हिरासत में ले लिया। गिरफ्तारी नहीं दिखाई गई थी। बाद में एक वायरल वीडियो से खलबली मच गई। वीडियो में पुलिसकर्मी अजीत को सुनसान जगह पर डंडे से पीटते दिखाई दे रहे हैं। ठीक उसके अगले दिन अजीत की मृत्यु हो गई। परिवार का आरोप है कि उन्हें पुलिस हिरासत में प्रताड़ित किया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उनके शरीर पर 18 चोटों का जिक्र है।

विवाद बढ़ता देख पांच पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया गया और छह को निलंबित कर दिया गया। अब केंद्रीय जांच ब्यूरो इस मामले की जांच कर रही है। साथ ही न्यायिक जांच के भी आदेश दिए गए हैं। लेकिन सवाल वही है, और कितने अजीत कुमार?

हिरासत में मौतों की घटनाएं तकरीबन हर राज्य में हो रही हैं। सभी मामलों में एक तथ्य समान रहता है कि हिरासत में लिए गए आरोपियों के साथ ‌िनर्मम व्यवहार हुआ है। गृह मंत्रालय की 22 मार्च 2022 की रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है। अप्रैल 2020 से फरवरी 2022 के बीच भारत में कुल 4247 मौतें हिरासत में हुई हैं। उसमें 255 मौतें पुलिस हिरासत में और 3992 मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं। सिर्फ 2021-22 के दौरान ही देशभर में पुलिस हिरासत में 155 लोगों की मौत हुईं। तमिलनाडु में चार मौतें पुलिस हिरासत में और 93 मौतें न्यायिक हिरासत में दर्ज की गईं।

ये मौतें क्यों हुई हैं, इस पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग विस्तृत रिपोर्ट बनाता है। किसी भी तरह की लापरवाही या गड़बड़ी मिलने पर आयोग एक्शन भी लेता है। आम तौर पर पीड़ित परिवार को मुआवजा और आरोपियों के ऊपर अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की जाती है।

कुमार के मामले में पुलिस ने दावा किया था कि पूछताछ के दौरान वे बेहोश हो गए थे। लेकिन वीडियो और पोस्टमार्टम रिपोर्ट कुछ और ही कहानी बताती है। ‘कॉमन कॉज लोकनीति प्रोग्राम’ द्वारा प्रकाशित स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2025 में पुलिस टॉर्चर और उसकी जवाबदेही के बारे में जानकारी दी गई है। रिसर्च में कुछ ऐसे पुलिसिया व्यवहारों के बारे में बताया गया है, जिनसे हिरासत में मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं। यह रिपोर्ट 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 8276 पुलिसवालों के सर्वेक्षण पर आधारित है।

रक्षक का रौद्र रूपः पिटाई के वायरल वीडियो के दृश्य

रक्षक का रौद्र रूपः पिटाई के वायरल वीडियो के दृश्य

रिपोर्ट के मुताबिक, पुलिस सामान्य कार्य के लिए भी बल प्रयोग करती है। यह उनकी कार्यशैली का हिस्सा है। करीब 30 प्रतिशत पुलिसकर्मियों ने कहा कि गंभीर मामलों में थर्ड डिग्री यानी यातना दी जाती है। नौ प्रतिशत ने माना कि छोटे अपराधों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। कुछ ने यह स्वीकार किया कि सहयोग न करने वाले गवाहों को थप्पड़ मारना या आरोपी के परिवारजनों को पीटना कभी-कभी सही होता है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि जो अधिकारी नियमित रूप से पूछताछ करते हैं, ऐसी संभावना है कि वे इन तरीकों को सही ठहराएं।

रिपोर्ट में इस बात की जांच हुई कि गिरफ्तारियों के दौरान कानूनी प्रक्रियाओं का कितना पालन होता है। 41 प्रतिशत पुलिसकर्मियों ने कहा कि ये प्रक्रियाएं हमेशा अपनाई जाती हैं, जबकि 24 प्रतिशत ने कहा कि इन्हें शायद ही कभी या बहुत ही कम मामलों में अपनाया जाता है। आधे से कुछ अधिक ने कहा कि किसी गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना हमेशा संभव नहीं होता है। ये बुनियादी कानूनी आवश्यकताएं हैं लेकिन रिपोर्ट बताती है कि इनका पालन एकसमान नहीं है।

एसपीआइआर रिपोर्ट के अनुसार हिरासत में मौतों को दर्ज करने में आधिकारिक और स्वतंत्र स्रोतों के आंकड़ों में अंतर है। उदाहरण के लिए, 2020 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने हिरासत में 76 मौतें दर्ज कीं, जबकि एनएचआरसी ने 90 और सिविल सोसायटी समूह नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर ने 111 मौतों का दस्तावेजीकरण किया।

कुमार के ही मामले को देखें, तो उनके हिरासत में लिए जाने और मृत्यु के बीच का समय दो दिन से भी कम था। एसपीआइआर 2025 के अनुसार, पुलिस हिरासत में अधिकांश मौतें गिरफ्तारी के पहले 24 घंटों में होती हैं। 2022 में एनसीआरबी द्वारा रिपोर्ट की गई ऐसी मौतों में से 55 प्रतिशत वे थीं जिनमें व्यक्ति को अब तक न्यायिक हिरासत में नहीं भेजा गया था। गुजरात में 2018 से 2022 के बीच 96 प्रतिशत पुलिस हिरासत मौतें पहले 24 घंटे में हुईं।

एनएचआरसी के नियमों के अनुसार, प्रत्येक हिरासत में मौत के मामले में न्यायिक जांच अनिवार्य है, लेकिन एसपीआइआर 2025 के अनुसार 2022 में केवल 35 प्रतिशत मामलों में जांच शुरू की गई। 2018 से 2022 के बीच पुलिस हिरासत में हुई मौतों के केवल 10 प्रतिशत मामलों में कानूनी केस दर्ज किए गए। उनमें से भी चार्जशीट केवल 12 प्रतिशत में दाखिल की गई। हालांकि, दिलचस्प यह है कि इसमें कोई भी दोषी नहीं पाया गया।

कुमार का मामला पिछली कई घटनाओं से मेल खाता है, जिसमें एक व्यक्ति को हिरासत में लिया जाता है, फिर कथित तौर पर उसे शारीरिक प्रताड़ना दी जाती है, नतीजतन हिरासत में ही उसकी मौत हो जाती है। जैसे इस मामले में सबूत मिले हैं, वैसे ही कभी-कभी कुछ और मामलों में भी वीडियो सबूत मिलते हैं। सबूत मिलने पर पुलिस के ऊपर कार्रवाई के लिए दबाव बनता है। इस पर नतीजा क्या आता है, यह एक अलग बहस का विषय है। लेकिन जहां ऐसा सबूत नहीं होता, उन मामलों को उतना ध्यान नहीं मिल पाता।

कुमार की मौत की जांच इसलिए हो रही है या करना पड़ रही है क्योंकि एक वीडियो रिकॉर्ड सबूत के तौर पर मौजूद है। साथ ही यह वीडियो इतना वायरल हो गया है कि अब कार्रवाई न करने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। अन्य कई मामलों में बिना ऐसे सबूतों के परिवारों के लिए सच साबित कर पाना कठिन हो जाता है और अपराधी सजा पाने से छूट जाते हैं। 

तमिलनाडु में हाल के वर्षों में हिरासत में कई और मौतें हुई हैं। 2020 में सतनकुलम में पी. जयराज और जे. बेन्निक्स की मौतों ने राष्ट्रीय स्तर पर सबका ध्यान खींचा था। उस मामले में भी हिरासत में प्रताड़ना के आरोप लगे थे। हल्ला मचने के बाद अंततः वह मामला भी जांच के लिए सीबीआई को सौंपा गया था। उस मामले में ट्रायल अभी जारी है।

कुमार के परिवार का कहना है कि वे निष्पक्ष जांच चाहते हैं। उनका यह भी कहना है कि अजीत का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था। फिलहाल सीबीआई जांच के नतीजों का इंतजार किया जा रहा है।

एनएचआरसी के रिकॉर्ड के अनुसार, 2021-22 में हिरासत में हुई मौतों के 137 मामलों में मुआवजे की सिफारिश की गई थी। इनमें से कुछ मामले अभी भी लंबित हैं।

तमिलनाडु में तीन मामलों में मुआवजे की सिफारिश हुई थी, जिनकी कुल राशि आठ लाख रुपये थी। लेकिन मुआवजे से आगे की कार्रवाई के मामले में आंकड़े काफी कम हैं। 2021-22 में तमिलनाडु के केवल एक मामले में अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की गई और किसी भी मामले में अभियोजन नहीं हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर भी उस अवधि के दौरान हिरासत में मौत के किसी भी मामले में दोषसिद्धि नहीं हुई। सबूतों के अभाव में आरोपी खुले घूम रहे हैं।

चाहे मुआवजा दिया जाए या कुछ अधिकारियों को निलंबित या गिरफ्तार किया जाए, आंकड़े दिखाते हैं कि खानापूर्ति के अलावा जवाबदेही अभी भी ठोस तरीके से तय नहीं की जा रही है। हिरासत में मौत के बाद अक्सर परिवार पर दोहरा पहाड़ टूटता है। परिजन के खोने के साथ उन्हें समाज के ताने भी सुनने पड़ते हैं क्योंकि बिना आरोप सिद्ध हुए ही उस व्यक्ति को दोषी मान लिया जाता है, जिसका कलंक जीवन भर उसके माथे पर लगा रहता है। सिर्फ पूछताछ के नाम पर थाने गया व्यक्ति पुलिसिया कार्रवाई का शिकार होकर लाश बन कर ही बाहर आता है।

 

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