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दुर्गाबाई देशमुख - साहस और महिला सशक्तिकरण का बेजोड़ संयोग

दुर्गाबाई देशमुख बालपन से इतनी साहसी थीं कि १९वीं सदी के प्रारंभ में बालिकाओं के लिए शिक्षा वर्जित थी,...
दुर्गाबाई देशमुख - साहस और महिला सशक्तिकरण का बेजोड़ संयोग

दुर्गाबाई देशमुख बालपन से इतनी साहसी थीं कि १९वीं सदी के प्रारंभ में बालिकाओं के लिए शिक्षा वर्जित थी, पर पड़ोसी अध्यापक से हिंदी पढ़कर, 12 वर्षीय दुर्गाबाई ने काकीनाडा में बालिकाओं के लिए हिंदी विद्यालय स्थापित किया। बहादुर दुर्गाबाई ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए सत्याग्रह आंदोलनों का नेतृत्व किया। उन्होंने अंतर्निहित संभावनाओं को तराशा और पुरातन की केंचुल उतारकर आशाओं को नए अवसर दिए। उनके किए अथक प्रयासों के कारण हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। 

 

 

दुर्गाबाई का जन्म 1909 की 15 जुलाई को आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी शहर के काकीनाडा में हुआ था। आठ वर्षीय दुर्गाबाई का ज़मींदार के बेटे से विवाह हुआ। रजस्वला होने पर उनको विवाह का वास्तविक अर्थ ज्ञात हुआ। उन्होंने पति को समझाया कि वे उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं। फिर उन्होंने वैवाहिक बंधन से स्वतंत्र होकर, देशवासियों की सेवा का निर्णय लिया। महामना मदनमोहन मालवीय जी के सहयोग से उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से त्वरित पाठ्यक्रम पूरा किया। मद्रास विश्वविद्यालय से बीए ऑनर्स किया और ‘लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ में छात्रवृत्ति प्राप्त की। बीएचयू में पढ़ाई के बाद उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण हेतु जनसंख्या नीति तैयार करके उस क्षेत्र में काम किया। वे मानती थीं कि नियंत्रित जनसंख्या होने पर देश की रीढ़ सुदृढ़ होगी जिससे राष्ट्र समृद्ध और प्रगतिशील होगा। सच्ची देशभक्त दुर्गाबाई ने खादी धारण की, अंग्रेजी स्कूलों का बहिष्कार किया, देश सेवा हेतु कांग्रेस में सम्मिलित हुईं और चौदह वर्ष की आयु में जेल गईं। वे सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कई बार बंदी बनाई गईं। नमक सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने पर उन्हें बंदी बनाकर वेल्लोर जेल भेजा गया जहां वे महिला कैदियों के साथ घुलमिल गईं। 

 

 

समाजसेविका जननी के रूप में लोकप्रिय दुर्गाबाई सच्चे अर्थों में नारी-मुक्तिवादी, दूरदर्शी नारी थीं। उनको भारत में महिलाओं की शिक्षा हेतु बनी पहली योजना ‘राष्ट्रीय महिला-शिक्षा समिति’ की अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उसको ‘दुर्गाबाई देशमुख समिति’ भी कहा जाता है जो उनके विशाल व्यक्तित्व का लघु परिचय है। उन्होंने राष्ट्र की प्रगति में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके सुदृढ़ आधारशिला रखी। आंध्र महिला सभा की स्थापना करके अस्पताल, नर्सिंग होम, नर्स प्रशिक्षण केंद्र, साक्षरता और शिल्प केंद्र स्थापित किए। निर्धन महिलाओं, बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण और पुनर्वास हेतु कार्यक्रम आयोजित किए। 1923 में लोगों को खादी के वस्त्र प्रयोग करने हेतु प्रेरित किया। ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन की स्थापना की। 

 

 

दुर्गाबाई महिला सशक्तिकरण का सशक्त उदाहरण थीं। 44 वर्षीय दुर्गाबाई ने अपनी आत्मकथा ‘चिंतामन और मैं’ के प्रेरणास्रोत ‘चिंतन देशमुख’ से प्रेम विवाह किया, (जिन्हें स्नेह से वे सीडी बोलती थीं)। उनके पति सी.डी. देशमुख भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय थे। सी.डी. देशमुख योजना आयोग के सदस्य, भारत के वित्तमंत्री और अपने कार्यों के प्रति समर्पित प्रशासक थे। दुर्गाबाई ने संस्मरण लिखा है कि सीडी ने उनके परिवार वालों से मुलाकात की और दुर्गाबाई से कहा कि, ‘‘तुम मेरे जीवन के खालीपन को भर सकती हो।’’ दुर्गाबाई ने सोचने के लिए समय मांगा क्योंकि उनकी सहज-सरल ग्रामीण जीवनशैली और देशमुख की पाश्चात्य जीवनशैली में बहुत अंतर था। उन्होंने देशमुख से पूछा कि दोनों के भिन्न परिवेश के बावजूद वे उनके साथ विवाह हेतु क्यों इच्छुक हैं। देशमुख ने दुर्गाबाई को विवाह के प्रस्ताव वाला संस्कृत का श्लोक सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया और दोनों ने विवाह कर लिया। फिर दुर्गाबाई ने भारत में “लड़कियों-महिलाओं की शिक्षा” विषय पर अपना प्रतिवेदन सरकार को सौंपा। सीडी आंध्र महिला सभा के उनके कार्यों की सराहना करते थे। उन्होंने सीडी के साथ नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और काउंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट एंड पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया की कल्पना की थी। 

 

 

सांसद और प्रशासक के रूप में उनका परम उद्देश्य सामाजिक रूप से उत्पीड़ित और राजनीतिक रूप से उपेक्षित जनता का उत्थान करना था। वे भारतीय संविधान सभा और योजना आयोग की सदस्या थीं। वे कई संस्थानों और महत्वपूर्ण सामाजिक कल्याण संगठनों की संस्थापक थीं। दुर्गाबाई ने पतित पतियों के सामाजिक बहिष्कार और देवदासी प्रथा के विरोध से अपनी सामाजिक गतिविधियां प्रारंभ कीं। उन्होंने महिलाओं के लिए हिंदी पाठशाला चलाई। उन्होंने तेलगु-हिंदी भाषण अनुवादक के रूप में भी कार्य किया। भाषण देने की प्रभावशाली कला के कारण उनको “जॉन ऑफ आर्क” कहा जाता था। उन्होंने बतौर अस्थायी सांसद, संविधान सभा में कम-से-कम 750 संशोधन प्रस्ताव रखे। प्रशासक के तौर पर उन्होंने करोड़ों रुपये की स्थायी निधि वाली आधा दर्जन संस्थाएं गठित कीं। उन्होंने प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं के साथ सामाजिक परिवर्तन लाने का प्रयास किया। संविधान सभा की सदस्या के रूप में उनके बार-बार हस्तक्षेप करने पर अंबेडकर ने चुटकी लेते हुए कहा था, ‘‘ये एक ऐसी महिला हैं जिनके जूड़े में शहद की मक्खी है।’’ 

 

 

महिलाओं के लिए वकालत करना उपयुक्त नहीं माना जाता था। पर उन्होंने मद्रास में वकालत की पढ़ाई करके 1942 में डिग्री ली। उन्होंने पहला मुकदमा दक्षिण भारतीय राजकुमारी के लिए लड़ा जिसे पति की मृत्युपरांत, संपत्ति और उत्तराधिकार से परिवार ने वंचित कर दिया था। राजकुमारी को उसकी संपत्ति वापस दिलाने के बाद, फौजदारी मामलों के वकील के रूप में दुर्गाबाई बहुत प्रसिद्ध हुईं। संसद का प्रथम चुनाव हारने के बाद वे मद्रास लौटकर वकालत करना चाहती थीं पर उनको रोककर कई कार्यों में व्यस्त रखा गया। उन्होंने पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की। योजना आयोग की सदस्य बनकर उन्होंने समाज कल्याण के क्षेत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, सार्वजनिक सहकारिता, सामाजिक नीति और प्रशासन के लिए अलग-अलग बजट बनाने की सिफारिश की। उन्होंने ‘दुर्गाबाई देशमुख अस्पताल’, ‘श्री वेंकटेश्वर कॉलेज’, नेत्रहीनों के लिए विद्यालय, छात्रावास तथा तकनीकी प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए। दुर्गाबाई द्वारा स्थापित ‘श्री वेंकटेश्वर कॉलेज’ में उनके सहयोग के कारण, दिल्ली के साउथ कैंपस मेट्रो स्टेशन का नाम ‘दुर्गाबाई देशमुख’ रखा गया है। 

 

 

दुर्गाबाई द्वारा महिलाओं में शिक्षा के प्रसार और उपलब्धियों हेतु उनको “नेहरु साक्षरता पुरस्कार”, “पालजी हाफमैन पुरस्कार”, “युनेस्को पुरस्कार”, “पद्म विभूषण”, “जीवन पुरस्कार”, “जगदीश पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। मदुरै कारागार की कालकोठरी में मस्तिष्क की नाड़ियों पर आघात लगने के कारण, जेल से बाहर आने पर उन्होंने राजनीतिक आंदोलन से अलग रहने का निश्चय किया। उनके नेत्रों की रोशनी मधुमेह के कारण समाप्त होने पर सीडी ने उनकी बहुत देखभाल की। दुर्गाबाई 71 वर्ष की आयु में 1981 की 9 मई को दिव्य ज्योति में विलीन हो गईं।

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