बिहार विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। चुनाव आयोग ने प्रदेश में दो चरणों 6 और 11 नवंबर को चुनाव कराने का फैसला किया है। 14 नवंबर को परिणाम की घोषणा के बाद पता चलेगा कि नई सरकार किस गठबंधन या दल की बनेगी। 6 अक्टूबर को चुनाव की तिथियों की घोषणा के साथ प्रदेश में सत्तारूढ़ गठबंधन के रेवड़ियां बांटने और विपक्षी दलों के चुनावी वादे करने-कराने का सिलसिला बंद हो गया। घोषणा के चंद घंटे पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना मेट्रो को हरी झंडी दिखाई और एक दिन पहले राजगीर में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का उद्घाटन किया। हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी सभी पार्टियों ने लोकलुभावन वादों की झड़ी लगा दी है। आचार संहिता लागू होने के बाद अब उपहारों की पोटलियां बंद कर दी गई हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की जनता इस बार ऐसे वादों और सौगातों को कितनी गंभीरता से लेती है।
दरअसल पिछले एक महीने से केंद्र और प्रदेश की डबल इंजन सरकार ने बिहार के मतदाताओं को लुभाने के लिए सौगातों का पिटारा खोल दिया था। युवाओं और बेरोजगारों से लेकर महिलाओं और बुजुर्गों के लिए खजाने ऐसे खोले गए, जैसे शायद ही पहले के किसी चुनाव में खोले गए थे। दर्जनों नए शिलान्यास भी किए गए। जाहिर है, वर्तमान सरकार ने इन योजनाओं की घोषणा इस उम्मीद के साथ की है कि जनता उसे एक बार फिर पांच साल सत्ता में रहने का मौका देगी। हालांकि सभी वादों और इरादों को अमलीजामा पहनाने में कितनी राशि की जरूरत होगी और क्या उतनी राशि नई सरकार के पास आसानी से उपलब्ध हो जाएगी, यह बड़ा सवाल है। फिर भी, चुनाव लड़ने वाली पार्टियां कभी भी लोकलुभावन वादों की घोषणा करने से परहेज नहीं करती हैं।
ऐसी ‘दानवीर’ प्रवृत्ति सिर्फ सत्तारूढ़ दलों में नहीं देखी जाती है। उन्हें चुनौती देने वाली विपक्षी पार्टियां भी वादों का ढोल पीटने में देर नहीं करती हैं। उनकी कुछ नई घोषणाओं के बारे में कहा जाता है कि चुनाव जीतने के बाद पहली कैबिनेट मीटिंग में उन पर अमल किया जाएगा, भले ही ऐसा करना उनके लिए संभव न हो। इसलिए उन्हें ‘चुनावी वादा’ कहा जाता है। जनता भी इस बात को समझती है कि चुनाव पूर्व किए गए अधिकतर वादे अंततः जुमले ही साबित होते हैं। ऐसे ही झूठे-सच्चे वादों का एक पुलिंदा दलों के चुनावी मैनिफेस्टो के रूप में सामने आता है, जिसमें शामिल अधिकतर बातें महज घोषणाएं बनकर रह जाती हैं। दरअसल चुनाव जीतने वाली पार्टी को सरकार गठन के बाद पता चलता है कि उनके अपने चुनावी वादों को पूरा करना कितना नामुमकिन है। इसलिए, अधिकतर वादों को चुपके से ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है ताकि अगले चुनाव तक लोग उसे भूल जाएं। इसी कारण जनता भी आम तौर पर किसी चुनावी मैनिफेस्टो को गंभीरता से नहीं लेती।