अमूमन देश के इतिहास में पलायन का जिक्र दो संदर्भों में किया जाता है। पहला संदर्भ देश के बंटवारे से जुड़ा है, जब लाखों की संख्या में लोगों को भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद अपनी जन्मस्थली में सब कुछ छोड़कर सरहद के दूसरी ओर कूच करना पड़ा था। दूसरा संदर्भ ऐसे अकुशल मजदूरों का होता है, जिन्हें आजीविका की तलाश में अपना घर छोड़ना पड़ता है। ऐसे लोगों का पलायन देश के स्वतंत्र होने के बहुत पहले ही शुरू हो चुका था, जब अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर भारतीय मजदूरों को अपने अन्य उपनिवेशों में काम करने भेजा था। ऐसे श्रमिकों को समुद्री जहाज से सुदूर देशों में भेजा गया और उन्हें गिरमिटिया कहा गया। वे जिस देश में गए वहीं बस गए और कालांतर में उनके कुछ वारिसों ने वहां सत्ता की बागडोर भी संभाली।
आजकल देश में पलायन का जिक्र अधिकतर दिहाड़ी मजदूरों के बारे में होता है, जो पिछड़े प्रदेशों से रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों का रुख करते हैं। ऐसे मजदूरों की त्रासदी कोरोना काल की विकट परिस्थितियों में सामने आई, जब देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान जीवन-यापन के साधनों के अभाव में बहुत बड़ी संख्या में हजारों बेरोजगार लोग पैदल ही अपने-अपने गांव लौटने को विवश हुए।
गौरतलब है कि पलायन का जिक्र इस देश में शायद ही छात्रों के संदर्भ में कभी होता है। लेकिन, यह सच है कि हर साल लाखों युवा उच्च शिक्षा पाने या शिक्षा के माध्यम से नौकरी पाने की आकांक्षा लिए गांव-कस्बों या छोटे शहरों से निकलकर महानगरों में पहुंचते हैं। ये नौजवान वहां जाकर प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों या अच्छे करियर की आस में कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते हैं। इन सबके सपने लगभग एक जैसे होते हैं। मनचाहे संस्थानों में दाखिला उन सपनों को साकार करने की पहली सीढ़ी होती है। आंखों में ऐसे ही सपने संजोये पलायन करने वाली रोज बढ़ती भीड़ में वे तीन छात्र-छात्राएं भी थे, जिनकी पिछले दिनों दिल्ली में एक मकान के बेसमेंट में पानी भर जाने से दर्दनाक मौत हो गई। यह त्रासदी उन तमाम छात्रों की है जिन्हें अपने सपने पूरे करने के लिए हर रोज संघर्ष करना पड़ता है। उनमें अधिकतर छात्र निम्न या मध्य आय वर्ग परिवारों से आते हैं और उनके लिए जिंदगी में आगे बढ़ने का एकमात्र जरिया उच्च शिक्षा और उससे मिलने वाली नौकरी होती है। उन छात्रों के अभिभावक भी परिवार की दूसरी जरूरतों को दरकिनार कर पढ़ने को शहरों में भेजते हैं।
जाहिर है, ऐसे छात्रों के सपने सिर्फ उनके नहीं, बल्कि उनके पूरे परिवार के होते हैं, जिसका अहसास उन्हें हर पल होता है। उनमें से कुछ छात्रों को तो अच्छे हॉस्टल मिल जाते हैं, लेकिन अधिकतर को अपना ठिकाना ढूंढने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। महानगरों में रहने का खर्च हर महीने वहन करना उन छात्रों के लिए संभव नहीं होता, जिनके परिवार आर्थिक रूप से संपन्न नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें ऐसे स्थानों पर रहने को विवश होना पड़ता है, जहां उन्हें मूलभूत सुविधाएं भी मयस्सर नहीं होतीं। कोई किसी जर्जर घर के बेसमेंट में बने अंधेरे कमरे में रहता है, तो कोई पांच सहपाठियों के साथ किसी बहुमंजिले घर की बरसाती में। ये उनके सपने ही हैं, जो उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष करने का जज्बा देते हैं। अपने लक्ष्य को पाने के लिए वे हर प्रतिकूल परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं, भले ही उन्हें ऐसी जगहों में रहना पड़े जहां बरसात का पानी भरने के कारण निकलने के सारे रास्ते बंद हो जाते हों।
जो कुछ दिल्ली में हुआ है, वह शर्मनाक भी है और चिंतनीय भी, क्योंकि जिन परिस्थितियों में यह हादसा हुआ, वैसी परिस्थितियों में अभी भी लाखों छात्र विभिन्न शहरों में रह रहे हैं। दरअसल शिक्षा या कोचिंग पाने के लिए छात्रों के पलायन ने कई शहरों में एक नई अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है। सिर्फ दिल्ली ही नहीं, कोटा, पटना और कई अन्य शहरों में कोचिंग संस्थानों के कारण छात्रों के लिए किराये के घरों की मांग बढ़ी है। लगातार बढ़ती मांग के कारण स्थानीय मकान मालिक उनसे मनमाना किराया वसूलते हैं। उन पर सरकारी नियंत्रण न के बराबर होता है। अगर सरकारी नियम-कानून होते भी हैं, तो उनका पालन नहीं होता है। इसकी कीमत दिल्ली में तीन छात्रों को जान देकर चुकानी पड़ी।
हर हादसे के बाद गिरफ्तारियां होती हैं, जांच समितियां बनती हैं और सरकारें कड़ी कार्रवाई का आश्वासन देती हैं। कुछ दिनों बाद सब भुला दिया जाता है। इस बार की दुर्घटना से हुक्मरान क्या कोई सबक सीखेंगे, इस पर संशय है। इससे छात्रों का बड़े शहरों के लिए होने वाला पलायन भी कम नहीं होगा। यह तभी कम हो सकता है, जब देश के हर क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले संस्थान हों। विडंबना है कि औद्योगिक निवेश की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी निवेश महानगरों के ही इर्द गिर्द होते है। क्या कभी किसी ने सोचा कि अगर छात्रों के घर के करीब अच्छे संस्थान होंगे, तो उन्हें घर से पलायन करने की नौबत ही नहीं आएगी।