मजबूत लोकतंत्र का ढांचा चार प्रमुख स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और स्वतंत्र मीडिया – पर टिका होता है। किसी एक में भी दरार आने से पूरा ढांचा चरमरा सकता है। प्रजातंत्र को सही ढंग से लागू करने के लिए यह आवश्यक है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार न्यायपालिका और प्रेस को स्वतंत्र ढंग से काम करने दे। जिस मुल्क में वहां के हुक्मरान ऐसा नहीं होने देते हैं, वहां डेमोक्रेसी सही मायनों में सफल नहीं मानी जा सकती। भारत उन चुनिंदा देशों में है जहां स्वतंत्रता मिलने के बाद से प्रजातंत्र की जड़ें निरंतर गहरी और मजबूत होती गई हैं। इमरजेंसी के उन्नीस महीनों के अपवाद को छोड़ दें तो भारत ने प्रजातंत्र के मूलभूत सिद्घातों को लागू करने में समूचे विश्व में आदर्श स्थापित किया। तमाम विविधताओं के बावजूद लोकशाही ने ही देश को अनेकता में एकता के सूत्र में पिरोया है।
वैसे तो लोकतंत्र के स्तंभों को एक-दूसरे की तुलना में कमतर नहीं आंका जा सकता लेकिन न्यायपालिका की भूमिका विशेष महत्व रखती है। किसी देश के सुचारू संचालन के लिए यह जरूरी है कि वहां की न्याय-व्यवस्था दुरुस्त हो, ताकि वहां के आम लोगों को संविधान और कानून के मुताबिक न्याय मिल सके। न्याय व्यवस्था के दुरुस्त होने से विधायिका और कार्यपालिका द्वारा मनमानी करने की आशंका भी कम हो जाती है।
भारत में न्यायपालिका की निष्पक्ष भूमिका हमेशा से प्रशंसनीय रही है। यही वजह है कि आम जनता के बीच उसकी विश्वसनीयता आजादी के बाद से ही बनी हुई है। यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि इसकी तुलना में लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों की साख पिछले दशकों में काफी घटी है, खासकर भ्रष्टाचार के मामलों में। जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों और सरकारी सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के अनगिनत मामलों से विधायिका और कार्यपालिका की प्रतिष्ठा काफी धूमिल हुई है। इसी तरह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला प्रेस भी ऐसे आरोपों से अछूता नहीं रहा है। उसमें लोकतंत्र के आदर्श सिद्धांतों को नजरअंदाज करने के न जाने कितने उदाहरण सामने आए हैं। इसलिए आम लोगों के लिए न्यायपालिका ही उम्मीद की आखिरी किरण रही है जो लोकतंत्र के स्थापित मूल्यों को बचाने के लिए अक्सर संकटमोचन बनी है। आज भी देश के आम और खास लोग न्यायपालिका में अपनी अक्षुण्ण आस्था व्यक्त करते नहीं थकते।
इसलिए जब कभी न्यायपालिका पर किसी भी तरह के सवाल उठते हैं तो वह आम लोगों को सकते में डालने वाला होता है। पिछले दिनों दिल्ली हाइकोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी आवास परिसर से कथित रूप से भारी मात्रा में जली हुई नकदी बरामद हुई। न्यायाधीश ने सभी आरोपों का खंडन किया और इस घटना को साजिश करार दिया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने उन्हें उनके मूल इलाहबाद हाइकोर्ट में स्थानांतरित करने की अनुशंसा की है। इस मामले की ‘इन हाउस’ जांच के लिए एक तीन सदस्यीय जांच समिति गठित भी की गई है। इस दौरान जस्टिस वर्मा को सभी न्यायिक कार्यों से दूर रखा जाएगा।
हालांकि उन्हें इलाहाबाद हाइकोर्ट वापस भेजने के निर्णय का वहां के बार एसोसिएशन ने विरोध किया और उनके खिलाफ महाभियोग चलाकर हटाने की मांग की है। अधिवक्ता संघ का कहना है कि जस्टिस वर्मा के आवास में हुई घटना का उनके न्यायिक कार्य से कोई संबंध नहीं है, इसलिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। उसका यह भी कहना है कि न्यायाधीशों के सभी क्रियाकलाप शक के दायरे से परे होने चाहिए।
इसमें शक नहीं कि अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत, ‘सीजर्स वाइफ मस्ट बी एबव सस्पिशन’ की तरह समाज के सभी प्रभुत्व वाली शख्सियतों के क्रियाकलाप संदेह के घेरे में नहीं आना चाहिए, वरना वे जनता का विश्वास खो देंगे। पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट के कुछ न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले सामने आए हैं, लेकिन आज तक किसी को संसद में महाभियोग की प्रक्रिया के तहत पद से हटाया नहीं गया है। न्यायाधीशों के खिलाफ अदालतों में “इन हाउस” जांच की व्यवस्था है। जस्टिस वर्मा के आवास की घटना की जांच के लिए भी कमेटी बनी है, जो तय करेगी कि उनके खिलाफ कोई मामला बनता है या नहीं।
अगर ऐसा मामला किसी बड़े नेता या नौकरशाह के खिलाफ आता है तो उसे लोग भले आम बात मान लेते, लेकिन किसी न्यायाधीश के खिलाफ किसी भी तरह के कथित भ्रष्टाचार के आरोप उसे असहज बनाते हैं। न्यायमूर्तियों को आम तौर पर ईमानदारी की प्रतिमूर्ति समझा जाता है। यह दर्शाता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था में जनता की अटूट आस्था अभी भी बरकरार है। जनता का यही विश्वास देश की न्यायिक व्यवस्था और न्यायाधीशों में हमेशा कायम रहना चाहिए। आम तौर पर विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया से निराश हो चुकी जनता आज भी न्यायपालिका को ही लोकतंत्र की संजीवनी समझती है। देश की न्यायिक व्यवस्था में जनता की आस्था भविष्य में भी बनी रहे, इसलिए न्यायपालिका को हरसंभव कदम उठने पड़ेंगे।