हिंदी की प्रख्यात लेखिका नासिरा शर्मा ने कहा है कि आज देश में एक बार फिर विभाजन जैसी स्थिति पैदा हो गयी है और गांधी जी सजावट की वस्तु हो गए हैं तथा उनके उसूलों को भुनाया जा रहा है। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती शर्मा ने आज गांधी शांति प्रतिष्ठान में गांधी स्मृति व्यायख्यान देते हुए यह बात कही।
उन्होंने "मेरे लेखन में गांधी के रंग" विषय पर अपने भाषण में कहा कि "जो देश की आज़ादी के लिए लड़े वह तो चले गए और जो अब हैं वह तो चुनाव जीत कर सत्ता में आए हैं वह अतीत की क़ुर्बानी देने वालों के नाम पर देश चला रहे हैं जहाँ गांधी जी केवल सजावट बन गए और उनके उसूलों को भुलाया जा रहा है। वह ताक़तें सर उभार रही हैं जिन्होंने कभी कुछ बलिदान ही देश के नाम पर किया और न ही किसी तरह की राह बनाई तब गांधी को लेकर लोगों ने आलोचना अपनाई।"
उन्होंने कहा कि जब पूरे विश्व में हालात ऐसे हों तो हमें गाँधी याद आते हैं और विश्व समाज को उनकी आज कितनी ज़रूरत है यह भी जग ज़ाहिर है। जिसको भुनाना भी अवसरवादी भलीभाँति जानते हैं। "
उन्होंने अपने भाषण में गांधी जी की शहादत और विभाजन के दर्द को शिद्दत से याद करते हुए कहा कि उनकी कई रचनाओं में बंटवारे का दर्द व्यक्त हुआ है क्योंकि यह सवाल मेरे जेहन में आज भी घूमता रहता है कि इस मुल्क का बंटवारा गांधी जी के रहते कैसे हुआ ।मौलाना आज़ाद के रहते कैसे सम्भव हुआ जबकि मौलाना ने भी जाम मस्जिद की सीढ़ियों से अपील की कि आप लोग मुल्क छोड़कर न जाएं लेकिन अंग्रेजों की डिवाइड एंड रूल पॉलिसी जीत गयी जबकि 1857 में दोनों कौमें मिलकर लड़ी थीं।पर 1947 तक आते आते मुल्क बंट गया।
उन्होंने कहा कि अक्सर मैं खुद से सवाल करती कि जब विश्वस्तर का नेता गाँधी जिसकी डांडी मार्च, सत्याग्रह और जाने कितने दर्शन, विचार, बलिदान, किसानों की दशा, बहुत कुछ सैलाब की तरह सामने आन खड़ा होता कि आखिर उन जैसे महान व्यक्तित्व वाले इंसान के रहते देश का बटवारा क्यों हुआ ? उन्होंने होने क्यों दिया ?यह सवाल अपनी सारी मासूमियत भरी टीस के साथ शिकवे में बदल गया और लम्बे आरसे तक पीड़ा बन मेरे साथ रहा | शायद उसी की प्रतिध्वनियाँ मेरी कहानी 'सरहद के इस पार' में गहरे आक्रोश के रूप मे रेहान के के चरित्र में उभरी है।और एक रात रेहान अपने ही दोस्तों के द्वारा मार दिया जाता है, यह कह कर कि अपने धर्म भाइयों को छोड़कर एक हिन्दू लड़की को बचाने के लिए मार पीट पर उतर आया ? रेहान की छोटी बहन परेशान है उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि भइया को यह क्या हो गया है वह ज़मीन पर पड़े हैंऔर सब उनके दोस्तों के नाम लोग ले रहे जो लापता है और उसकी जगह रामखिलावन पनवाड़ी खड़ा रो रहा है | उस कहानी की वह छोटी बच्ची मैं ही थी जो अपने समाज के प्रेम एवं घृणा के उलभाव को समझने या फिर सुलझाने की कोशिश में लगी हो या फिर 1857 और 1947 के फर्क़ को समझ रही हो जहाँ एकता ने अपने बाद का रास्ता बदल लिया हो? "
उन्होंने कहा कि "आज भी लाखों लोग अबुल कलाम आज़ाद की आखरी तक़रीर को नहीं भूले हैं जो उन्होंने जामा मस्जिद की सीढ़ी पर खड़े होकर दी थी अपना देश छोड़ कर मत जाओ | ख़ून, दुश्मनी, ग़लतफहमी में सियासत की राह उस तरफ मुड़ गई कि शयद बटवारे के बाद यह ख़ून-ख़राबा ख़त्म हो जायेगा |अंग्रेजों की डिवाइड एंड रूल पालेसी की जीत हुई।"
उन्होंने कहा कि गांधी आपको इस कदर प्रभावित करते हैं कि "एक बार जब मैं साबरमती आश्रम गयी तो वहाँ मना करने के बावजूद मैंने गाँधी जी की छड़ी को छू लिया था और दूसरी जगहों पर जाकर कुछ देर चरखा चलाया था और अहसास जागा था कि चरखे का घुमाव आपके अंदर विचित्र सा अहसास जगाता है| जैसे बहुत कुछ फिलटर हो रहा हो| यह वही जगह थी जहाँ दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गाँधी जी ठहरे थे मगर वहाँ जब दलितों के दाखिले पर रोक लगा दी गई तो गाँधी जी ने वह जगह छोड़ दी और वह प्यार मेरी कहानियों में दाखिल हो गया जहाँ उन्हें किरदार के रूप में दाखिले की कोई मनाही नहीं थी|"
उन्होंने कहा कि स्वयं गाँधी जी धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन उन्हें दूसरे के धर्म का अध्ययन व आदर करना पसंद था गैरबराबरी उन्हें सहन नहीं थी| आज हम देख रहे हैं ज़ुल्म व शोषण में कोई कमी नहीं है तब मानवीय स्तर पर हम गांधी की ज़बान बोलने लगते हैं। १९९४ में आए मेरे उपन्यास ज़िंदा मुहावरे के चरित्रों यानी लच्छू और ब्रिजू के रूप में सामने आए, उसी प्यार से रहे और यह भारत का सच है। बटवारा हुआ, फसादों की झड़ी लग गई| यह खो रही सच्चाई थी जो गांधी वापस लाना चाह रहे थे ।वह कोविड के दौर में बड़े भीषण रूप से सामने आई कि साँस लेना मुश्किल हो गया मगर उन्हीं तब्लीग़ी जमात वालों को कोविड-19 का वाहक मान लिया गया और उन्होंने किस तरह अपना खून देकर बहुत से लोगों की जान बचाई ।अपमान करने की कोई कसर नही छोड़ी गई मगर उसने दिलों को नहीं बाटा न बटवारे के समय हिन्दू राष्ट्र बन पाया और न ही गर्दन पर चाक़ू रख कर जय श्रीराम कहलाने से गांधी के सीने पर गोली के वार से निकले शब्द “हे राम!” तक पहुँचने की गरिमा बढ़ी सिवाय हिंसा के। जैसे-जैसे ज़ुल्म व अत्याचार बढ़ा वैसे-वैसे अपनी ज़मीन से लगाव गहरा होता चला गया | मेरे हर उपन्यास में ऐसे जीवन्त चरित्र मौजूद है जो हमारा सच है | आज घटा जितनी भी गहरी छाई हो मगर प्यार का रिश्ता आज भी अफ़वाहों के प्रचार व प्रसार के बावजूद क़ायम है | क्योंकि हिंदुस्तान की धरती की मिट्टी इकहरी नहीं है।यह भी सच है कि अपनों के द्वारा जो जब-जब आहत किया गया | उनके दिल दुखते हैं और दुखे हुए हैं मगर कुछ ऐसा है हमारे लोगों में जो भिड़ते तो हैं मगर एक दूसरे से अलग होकर ख़ुश नहीं हुए उनकी मिसाल पाकिस्तान है जहाँ आज भी इतनी पीढ़ियाँ गुज़र जाने के बाद भी देश के बटवारे का दर्द वह पीढ़ी महसूस करती है कि यह अच्छा नहीं हुआ । "
नासिरा आपा ने वर्तमानं राजनीति पर तल्खी से टिप्पणी करते हुए कहा कि "समय की सियासत ने हम से क्या करवा डाला। आज फिर उसी तरह का माहौल रचा जा रहा है जो बिना सोचे समझे सत्ता में बना रहना चाहता है।वह नहीं याद रख पाए कि ७५ वर्ष पहले के बँटवारे ने किस को कहाँ आहत किया था ख़ुद जिन्ना ने भी महसूस किया था, मुंबई का घर उन्हें याद आया और जब रथयात्रा के आगे-पीछे अडवाणी जी पाकिस्तान गए तो अपने घर को देखने की ललक न दबा पाए और अपनी पलंग पर बैठे बाक़ी लोगों के साथ तस्वीर खिचवाना भी न भूल पाए|"
उन्होंने आज सत्ता द्वारा देश में अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की कोशिशों का जिक्र करते हुए कहा"भारत हिंदुस्तान और इंडिया कहलाए जाने वाला देश अपनी खूबियों से आज तक पहचाना जाता रहा है वह है उसके मिज़ाज में गुथी आजादी जो इंसान की पहली ज़रूरत है जहाँ बोलने, लिखने और कहने की पूरी आज़ादी रही है वहाँ पर अगर शब्दों पर पहरा बिठा दिया जाए तो वहाँ कला साहित्य क्या पनप पायेगी ?ख़ासकर तब जब हिंदुस्तान अनेक धर्मों,जातियों,भाषाओं, रीति रिवाजों, खानपानएवं रहनसहन व भागौलिक विभिन्नताओं का देश है जिसकी अनेक बोलियाँ हैं जिसको आपस में जोड़ने वाली हिंदुस्तानी ज़बान की शुरुआत हुई और हिन्दुस्तानी अकादमी आज भी इलाहाबाद में मौजूद है।जिसके उर्दू भाषा के सम्पादक मेरे वालिद रहे थे।"
उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने जो बीज १९४७ और ४८ में बोया उसका नज़ारा 7 अक्टूबर 2023 से अब तक नज़र आ रहा है पूरे पचहत्तर वर्ष से फिलिस्तीनी कौम जंग में है उस समय भी गाँधी जी ने सत्याग्रह को मसले का हल माना था न कि हिंसा को, मेरी नई पुस्तक 'फिलिस्तीन : एक नया कर्बला' कब्ज़ा और मातृभूमि के प्रेम की हकीकत को कहती है और कल तक जो यहूदियों को दर-बदर कर रहे थे वही आज उन्ही जरिए ग्रेटर इज़राइल का सपना देख फिलिस्तीनियों को खदेड़ कर दोबारा मध्यपूर्वी देशों में दाखिले का रास्ता बनाना चाहते हैं | मारकाट यूक्रेन-रूस में हो रही है वह भी गाँधी की सोच के दायरे में नहीं है।
अंत में उन्होंने एक कविता सिगरेट सुनाई -
सिगरेट
जलाती हूँ सिगरेट और
पहले कश में ही पहुँच जाती हूँ
रूस-यूक्रेन के युद्ध स्थल पर
धुएँ छल्लों के बीच
खोलती हूँ जादुई छतरी और फिरती
हूँ बमों से बचती
लाशों के ढेर से गुज़रती
सपनों के अम्बार और मकानों के मलबे के बीच से
पूछती हूँ दोनों तरफ के सियासतदानों से
कूटनीति से जब नहीं चल रहा था काम
ज़रूरी था ख़ून बहाना, बात मनवाने के लिए ?
किसको दे रहे थे जवाब या बिकवा
रहे थे हथियार ?
किस को सबक सीखा रहे थे या मार रहे थे
कुल्हाड़ी अपने पैरों पर ?
इसी बीच
यूक्रेन बमों से फटी ज़मीन ने जब
उगला बरसों पहले का
वह नर-नारी कंकाल
उनके ढाँचों की मुद्रा ने
दिया दुनिया को संदेश
मरने के भी बचा रहता है प्यार
पुरातत्व विशेषज्ञों की जाँच और स्केच ने
पहनाया लिबास और दिया सुन्दर मुखड़ा
उन कंकालों को देख कर
गुस्ताव किलमत की बनायी कालजयी
पेंटिंग 'किस' भी रह गयी दांग
सुलग रही मेरी उँगलियों में फंसी सिगरेट
झड़ रही है राख
हो रहा छोटा सिगरेट का क़द
बुझते सिगरेट के धुंए में
मुझे साफ़ नज़र आ रहा है
फिर दो नए देशों का जलता भविष्य !
समारोह में गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव अशोक कुमार ने अतिथियों का स्वागत किया। प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने समारोह के प्रारंभ में देश के टूटते फूटते लोकतंत्र को बचाने पर जोर दिया। उन्होंने समाज में इस लोकतंत्र को बचाने की लोगों से अपील की जो आजादी के कारण मिली थी। उन्होंने यूक्रेन गाजापट्टी मणिपुर में बच्चों पर हो रही हिंसा पर गहरी चिंता व्यक्त की। चाहे वे यूक्रेनी या रूसी बच्चे हो इजरायली या फलीस्तीनी बच्चे हों। समारोह में रामचन्द्र रही प्रेम सिंह अनिल मिश्र मनोज मोहन, विजय प्रताप मणिमाला समेत कई लोग मौजूद थे।