गुजरात के पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को जामनगर की अदालत ने हिरासत में मौत मामले में दोषी करार देते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई है। भट्ट को 1990 में पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति की मौत के मामले में यह सजा सुनाई है। इसके साथ ही एक अन्य पुलिस अधिकारी प्रवीण सिंह झाला को भी उम्र कैद की सजा सुनाई गई है।
इस मामले में पिछले सप्ताह 12 जून (बुधवार) को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देने से इनकार कर दिया था। संजीव भट्ट चाहते थे कि इस मामले में 11 अतिरिक्त गवाहों से पूछताछ हो। भट्ट ने कहा था कि इस मामले में इन 11 अन्य गवाहों से पूछताछ बहुत अहम है।
क्या है मामला
1990 में भारत बंद के दौरान जामनगर में हिंसा हुई थी। तब संजीव भट्ट यहां के एसएसपी थे। हिंसा को लेकर पुलिस ने 100 लोगों को गिरफ्तार किया था। इनमें से प्रभुदास माधवजी की अस्पताल में मौत हो गई थी। प्रभुदास के भाई अमरुत वैष्णवी ने संजीव भट्ट के खिलाफ मुकदमा किया था और उन्होंने हिरासत में प्रताड़ाना के आरोप भी लगाए थे।
गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी हैं संजीव भट्ट
संजीव भट्ट गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी हैं जिन्होंने 2002 में गुजरात दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे। 2015 में गुजरात सरकार ने निलंबित आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को बर्खास्त कर दिया था।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर उठाए थे सवाल
ऐसे में संजीव राजेंद्र भट्ट सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करने के बाद सुर्खियों में आ गए थे। इस हलफनामे में उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाए थे और कहा था कि गुजरात में वर्ष 2002 में हुए दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) में उन्हें भरोसा नहीं है।
आईआईटी मुंबई से पोस्ट ग्रेजुएट संजीव भट्ट वर्ष 1988 में भारतीय पुलिस सेवा में आए और उन्हें गुजरात काडर मिला। पिछले 23 वर्षों से वे राज्य के कई ज़िलों, पुलिस आयुक्त के कार्यालय और अन्य पुलिस इकाइयों में काम किया है।
भट्ट ऐसे हुए थे बर्खास्त
तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर गुजरात के 2002 के दंगों के दौरान दंगाई के खिलाफ पुलिस पर नरम रवैया अपनाने का आरोप लगाने वाले भट्ट को लंबे समय तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहने के कारण 2011 में निलंबित किया गया था तथा अगस्त 2015 में बखार्स्त कर दिया गया था। उन्होंने इस मामले में 12 जून को सुप्रीम कोर्ट में याचिका देकर 10 अतिरिक्त गवाहों के बयान लेने का आग्रह किया था पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था। राज्य सरकार ने इसे ऐसे समय में मामले को विलंबित करने का प्रयास करार दिया था जब निचली अदालत फैसला सुनाने वाली थी।