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कैंसर विजयः जो लड़कर रहे विजेता

मैं हूं और रहूंगा कुमार मनीष अरविन्द मुझे गाना नहीं आता मगर मेरी आवाज में मेरी कविता 'चल जंगल चल'...
कैंसर विजयः जो लड़कर रहे विजेता

मैं हूं और रहूंगा

कुमार मनीष अरविन्द

मुझे गाना नहीं आता मगर मेरी आवाज में मेरी कविता 'चल जंगल चल' पर बच्चों को झूमते देखेंगे तो शायद आप का मन भी थिरक उठेगा। इस कविता संग्रह में सौ से अधिक कविताएं हैं। बच्चों के लिए दोहे की अलग पुस्तक भी है। पर्यावरण को लेकर और भी किताबें। यह सब अनायास नहीं है। ये बच्चे आने वाली पीढ़ी हैं। ट्रेंडसेटर होंगे। जब मुझे लगा कि मेरे पास समय कम है तो बस इन्हीं को लक्ष्य बनाकर प्रकृति के संरक्षण के लिए बच्चों को मोटिवेट करने के लिए लिखने की गति तेज कर दी। वन अधिकारी था तो जंगलों से करीब का वास्ता था। जंगल, पर्यावरण को लेकर मन में पीड़ा थी। दरअसल 2013 की शुरुआत मेरे लिए जीवन में एक निर्णायक मोड़ था जब पता चला कि मुझे कैंसर है और तीसरे स्टेज में प्रवेश करने वाला है। उस मानसिक उद्वेलन को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं। जैसे आप नदी में स्नान करने गए और डूबने लगे, लगा कि आपके पैर के नीचे जमीन नहीं है। अथाह पानी में चले गए, आपको तैरना नहीं आता, कोई आधार नहीं मिल रहा है। जेहन में तैरने लगा कितने दिन और हैं, नहीं हैं। मां, बाप, पत्नी, परिवार, बच्चे, मित्र, सब। बेटा, अक्षय थर्ड ईयर, निफ्ट बेंगलूरू में तो बेटी आस्था सौम्या 12 वीं की छात्रा थी। जिम्मेदारी, खर्च का दौर था जब बच्चे उच्च शिक्षा के लिए तैयार हो रहे थे। लगा जिम्मेदारी पूरी किए बिना चले जाएंगे तो शेष लोग कैसे, क्या करेंगे। कुछ घंटे असहायता की स्थिति रही। फिर दिल और दिमाग झटके से सकारात्मक की तरफ घूम गया। जो है उसे कान ने सुन लिया, दिमाग ने ग्रहण कर लिया। इससे अब निकलना कैसे है, दिमाग और मन उस ओर काम करने लगा। एक समय ऐसा आया जब लगा अब समय कम है मेरे पास। तब ऑपरेशन के पहले पत्नी राजश्री को मैं एलआइसी के कागज, एफडी के कागज के बारे में बताने लगा। वह मेरी मन:स्थिति को समझ गई और मजबूती से प्रतिकार किया कि मुझे नहीं सुनना। उनकी ऐसी प्रतिक्रिया का ही बल था कि मुझे अचानक शक्ति मिल गई। मुझे लगा लड़ना होगा और दौड़ना होगा। मेरी मन:स्थिति भी बदल गई। उसके बाद ऑपरेशन हुआ। जिजीविषा शिखर पर थी। वही क्षण था जब लगा सब ठीक होगा। टांके कटे और 33 दिनों बाद मैं घर लौट आया, बोकारो। तब मैं डीएफओ, बोकारो था। बेड पर लेटे-लेटे 'शिखर पर जिजीविषा' का डिक्टेशन देना शुरू किया। एक-दो पेज में ही थक जाता था, मगर जो झेला है अपने अनुभव को लोगों के सामने लाना चाहता था ताकि लोग इस बीमारी से अवगत हों।

डर कर मरने से बेहतर है लड़कर जिंदा रहना। उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मन में संशय था पता नहीं किताब पूरी लिख पाऊंगा या नहीं। 2016 में मैथिली और 2019 में हिंदी में यह किताब आई। कैंसर के मरीजों तक इसे पहुंचाने का सतत प्रयास करता रहता हूं। कीमोथेरेपी की तीन साइकिल के बाद शरीर ने दवा को स्वीकार करना बंद कर दिया, रिएक्शन होने लगा। तब उसके असर को लेकर फिर भीतर से डर गया। ईश्वर में आस्था, बदली हुई जीवनशैली, योग, सकारात्मक सोच और रचना संसार के बूते बिना चिंता किए आगे बढ़ चला। मेरा साहित्यिक लेखन भी काफी तेजी से बढ़ा। एक दर्जन किताबें दस साल में आईं। कैंसर के बाद। अभी तक 20-21 किताबें आ गई हैं। 2019 में 'जिनगीक ओरियाओन करैत' मैथिली कविता संग्रह के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 2017 में प्रकाशित इस पुस्तक में भी कुछ कविताएं कैंसर से संघर्ष की हैं। इस पुरस्कार ने भी लॉचिंग पैड का काम किया। लिखने की रफ्तार बढ़ गई। कैंसर मरीजों के लिए कहना चाहता हूं कि आप मजबूत और सकारात्मक हो जाएं। दृढ़ संकल्पित हो जाएं कि यह ठीक होने वाली बीमारी है। साहित्य के लिए कहूंगा कि पिछले चार पांच दशक से साहित्य में भूख, रोटी, संत्रास, कठिनाइयां आदि बातें आती रही हैं, लेकिन अभी पूरे संसार के लिए सबसे महत्वपूर्ण विषय है प्रकृति का संरक्षण। अभी सभी का यही एजेंडा और यही विचार होना चाहिए। कैसे प्रकृति को संरक्षित किया जाए, इसी पर ध्यान हो।

(शिखर पर जिजीविषा के लेखक, नवीन कुमार मिश्र से बातचीत पर आधारित)

 

कैंसर के साथ और खिलाफ भी

हिमकर श्याम

हिमकर श्याम

जब पहली बार कैंसर का पता चला, तब मैं बुरी तरह डर गया। मन में हताशा के बादल छा गए। एकबारगी लगा कि सब कुछ खत्म हो गया। परिवार पर अचानक खर्च का बोझ आ गया।

बात 2002 के जाड़े की है। तब मैं एक अखबार के रांची संस्करण की लॉन्चिंग टीम से जुड़ा था। अचानक तेज कमर दर्द शुरू हुआ। पेन किलर ले कर उसे अनदेखा कर दिया। लगा कि यह अधिक काम के कारण है, लेकिन दर्द लगातार असहनीय होने लगा। चलने में कठिनाई होने लगी। डॉक्टर ने एमआरआइ कराने को कहा। रिपोर्ट से पता चला कि स्पाइनल कॉर्ड में ट्यूमर है। एम्स जाने की सलाह मिली। दिल्ली पहुंचते ही पांव पैरलाइज हो गए। जनवरी, 2003 में डॉक्टरों ने 14 घंटे की जटिल सर्जरी के बाद ट्यूमर निकाला। रीढ़ की क्षतिग्रस्त हड्डियों को हटा कर टाइटेनियम रॉड एवं केज लगाया। दुनिया में कुछ ही लोगों को ऐसा ट्यूमर है। इस तरह मैं साधारण से विशिष्ट बन गया।

सब कुछ सामान्य हो रहा था कि वह असहनीय दर्द फिर उठा। मैं खून की उल्टियों से सशंकित हुआ। डॉक्टर से संपर्क किया गया। जांच से पता चला कि ट्यूमर ने फिर शरीर में जगह बना ली है। फेफड़े भी चपेट में हैं। डॉक्टर ने कहा ट्यूमर कैंसर का रूप ले चुका है। मेरे लिए, मेरे माता-पिता और पूरे परिवार के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था। ऑपरेशन संभव नहीं था। मुझे कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी जैसी दर्द भरी प्रक्रिया से गुजरना था। शुरुआती दौर बेहद तनाव भरा रहा। रांची, पटना और दिल्ली का अनथक चक्कर। रेडिएशन एम्स में, कीमोथेरेपी पटना के आइजीआइएमएस में। चिंता और डर की वजह से नकारात्मक विचार आते थे। हर चुभती हुई सुई के साथ लगता था कि मौत करीब आ रही है। 

कैंसर छुप कर वार करता है, कमजोर करता है। मैं भी टूटा। बहुत कुछ छूटा। नौकरी छूटी, पत्रकारिता छूटी। मेरे सामने दो ही विकल्प थे। या तो हालात का मुकाबला डट कर करूं या फिर इससे हार मान लूं। मैंने खुद को संभाला। डर पर काबू पाने के लिए किताबें पढ़ने लगा। लेखन कार्य दोबारा शुरू किया। बीमारी को अपने लेखन के बीच कभी आने नहीं दिया।

लेखन मेरे लिए जीवित रहने का साहस है। मेरी लड़ाई में हथियार भी यही है। फिलहाल बीमारी स्थिर है। टीएमएच मुंबई का इलाज चल रहा है। आल्टरनेट डे पर कीमोथेरेपी का इंजेक्शन लेना पड़ता है। मैंने कैंसर के आगे घुटने नहीं टेके। युद्ध जारी है। 'युद्घरत हूं मैं' कैंसर के साथ भी, कैंसर के खिलाफ भी।

(युद्धरत हूं मैं के लेखक)

 

जिंदगी अभी बाकी है

कुमारी छाया

कुमारी छाया

मैं  हमेशा सुनती थी कैंसर और उसके डरावने किस्से। एक दिन चुपके से इसने मेरे शरीर में घर बना लिया। 2020 की बात है जब दुनिया कोरोना वायरस से जूझ रही थी। उसी दौरान मुझे फेफड़े में कुछ परेशानी महसूस हुई। बायोप्सी से पता चला कि मुझे लंग कैंसर है। फोर्थ स्टेज यानी एडवांस स्टेज का। रातोरात मेरी दुनिया बदल चुकी थी। आंखों के सामने अंधेरा था। ऐसा अंधियारा जिसमें सारे सपने अदृश्य हो चले थे। साथ थी असह्य पीड़ा, सांसों के लिए जारी जंग और इसके लिए कम पड़ते आर्थि‍क संसाधन। दिनचर्या बदल चुकी थी। लंग से पानी निकलवाने के लिए बार-बार अस्पताल में भर्ती होती। पानी निकालने की तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरना पड़ता। 2020 से अनगिनत कीमोथेरेपी का सिलसिला जारी है। साधारण परिवार के लिए कैंसर से लड़ना कितना कठिन है यह मैं समझ सकती हूं। कभी पति और बच्चों का चेहरा सामने आता तो कभी परिवार के लोगों का। फिर एक दिन मैंने झटके से इसके डर को दूर फेंक दिया और कैंसर से लड़ने और इसके साथ जीने का फैसला कर लिया। उसके दर्द को सृजनात्मक ऊर्जा में बदलने की ठानी।

कविताएं लिखने का बचपन से शौक था। कैंसर ने मुझे एक बार फिर मौका दिया कि मैं कुछ रचनात्मक करूं। कविताएं लिख कर कैंसर के दर्द और निराशा को कम करने लगी। तय किया जिंदगी के जितने भी दिन बचे हैं हर पल को जीया जाए। इसी बीच 3 सितंबर 2021 को मेरी पहली पुस्तक "एक प्याली चाय" आई। अमेजन पर बेस्टसेलर ‍बुक का टैग मिला और मुझे एक नई पहचान मिली लेखिका के रूप में। इसने मुझे सुकून दिया, भीतर से ताकत दी। मेरा यह नया रूप कैंसर से लड़ने में मेरी सहायता कर रहा था।

रांची में लगातार कीमोथेरेपी चल रही थी और मैं अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशन, विमोचन में इतनी व्यस्त हो गई कि भूल ही गई कि मुझे कैंसर है। मैं कविताओं की खूबसूरत दुनिया में रहने लगी जिसमें प्रेम, अहसास, बादल, चांद, तितली, बारिश सब थे। इस तरह कैंसर को हराने के लिए एक रास्ता मिला जिस पर चलकर पीड़ा में भी मुस्कुराने लगी। फिर दूसरी पुस्तक "मेरी उम्मीद की ओर" 11 फरवरी 2022 को आई। लोगों की प्रतिक्रियाएं मेरे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने लगीं।

लेकिन, जीवन में कभी कुछ निश्चित नहीं होता, इसका प्रमाण मुझे तब मिला जब मैं पटना एम्स गई। वहां मुझे पता चला कि मुझे ओवरी का कैंसर भी है। थोड़ा विचलित हुई, पर खुद को संभालते हुए दोहरे कैंसर से लड़ने के लिए खुद को तैयार किया। यह बहुत कठिन था मेरे लिए। एक बार फिर खुद को मजबूत किया और इलाज में जुट गई।

इसी वर्ष 6 जनवरी को मेरी सर्जरी हुई। 12 घंटे की सर्जरी। 12 दिनों तक अस्पताल में ही रहना पड़ा। दर्द, परेशानी, आर्थिक संकट सामने था। इसे मैंने फिर नकारा। जिस दिन यानी मेरी सर्जरी हो रही थी उसी दिन मेरी तीसरी पुस्तक "ज़िन्दगी अभी बाकी है" प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में मैंने कैंसर के साथ अपने अनुभवों को साझा किया है। यह भी बताया है कि इसके उपचार के साथ कैसे सकारात्मक रहा जाए ताकि इससे जूझ रहे लोगों को सकारात्मक संदेश जाए, वे डरें नहीं और लड़ने का हौसला आए। कैंसर का इलाज जारी है, लेखनी का साथ कायम है।

(ज़िन्दगी अभी बाकी है की लेखिका, नवीन कुमार मिश्र से बातचीत पर आधारित)

 

इसके बारे में सोचना समय की बरबादी

रजनीश सिंह

रजनीश सिंह

कैंसर से सबको डर लगता है। जब मुझे यह हुआ, तो मुझे भी डर लगा था। परिस्थितियों को टटोला, फिर लगा कि इसके बारे में सोचना समय की बरबादी है। 35 साल की एचआर की यात्रा में यह एक इंटरवल की तरह था। मामूली सी परेशानी के बीच अचानक जुलाई 2021 में मुझे कोलोन कैंसर डिटेक्ट हुआ और अगस्त में मेरा ऑपरेशन करना पड़ा क्योंकि मुझे स्टेज 4 का कैंसर था। आगे चलकर यह लिवर में भी फैल सकता था। स्थिति नाजुक थी। मैंने डॉक्टरों का साथ दिया और उनके मशविरे के अनुसार तत्काल ऑपरेशन करवा लिया। ऑपरेशन के दरम्यान मन में विचारों का बवंडर था। पत्नी, बेटा, मेरी कंपनी में काम करने वाले लोग आए। मेरी 58 साल की उम्र में यह पहला मौका था जब मैं हॉस्पिटल में एडमिट हुआ। शुरू में एक समय के लिए सोचा मुझे यह कैसे हो गया क्योंकि मैं नॉर्मल लाइफ लीड करता था। लेकिन कहते हैं न, कोई बीमारी बोल कर नहीं आती। खैर, मैंने कमर कस ली और ठान लिया कि चाहे जो हो जाए इस बीमारी को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है।

जैसे ही ऑपरेशन के बाद मेरे टांके काटे गए मैं सीधा काम पर वापस आ गया क्योंकि खाली बैठ कर इसके बारे में सोचना समय की बरबादी से ज्यादा कुछ नहीं होता। ऑपरेशन के ठीक एक महीने बाद मैंने अपनी गाड़ी निकाली और पत्नी के साथ लॉन्ग ड्राइव के लिए निकल गया। मुझे देखना था कि शरीर में कितनी ताकत बची है। गाड़ी चलाते वक्त कभी महसूस ही नहीं हुआ कि मुझे दो महीने पहले कैंसर जैसी बीमारी के कारण हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा था। छह महीने चली कीमोथेरेपी के दौरान भी मुझे कभी कोई मेजर साइड इफेक्ट नहीं हुआ। ऑपरेशन के एक साल बाद तक मैं नियमित दवाएं लेता रहा। इस दौरान मैंने दो किताबों पर काम किया- एक एंटरप्रेन्योर ग्रुप के लिए और दूसरा कैंसर मरीजों के लिए। कैंसर पेशेंट्स के लिए लिखी किताब का नाम रखा, 'गुड पेशेंट'। कैंसर की बीमारी में दूसरों को आत्मबल मिले, 'गुड पेशेंट' का बस यही एक मकसद है। रांची से लेकर दिल्ली और दूसरे कैंसर अस्पतालों में इस किताब को कैंसर मरीजों के बीच वितरित कर देता हूं। पिछले एक साल से मेरा नॉर्मल ट्रैवल भी शुरू हो गया।

मैं कई बिजनेस स्कूल में अब लेक्चर देने जाने लगा हूं, जैसा पहले करता था। बिजनेस न्यूज चैनल्स पर आता हूं अपने सब्जेक्ट मानव संसाधन के टॉपिक्स से संबंधित विषयों पर विमर्श के लिए। चार साल के बाद एक इंटरनेशनल ट्रैवल पर निकल गया अपने सहयोगियों और परिवार के साथ। यह सब कुछ तभी हासिल हुआ जब मानसिक रूप से अपने आपको मैंने मजबूत बनाया।

यह दौर एक जंग से कम नहीं था। इस जंग में सबसे जरूरी यह है कि पूरी तरह डटकर इसका सामना किया जाए।

(गुड पेशेंट के लेखक, नवीन कुमार मिश्र से बातचीत पर आधारित)

 

जब तक जिंदा हैं तब तक खुश रहकर जिंदा रहें

अरुण मिश्र

अरुण मिश्र

जून 2018 मेरे लिए वास्तव में दिल दहला देने वाला महीना था जब एम्स के डॉक्टरों ने बायोप्सी आदि जांच के बाद बताया कि मुझे कैंसर है। वह भी एडवांस स्टेज का। प्रोस्ट्रेट से शुरू हुआ कैंसर पेल्विक एरिया तक फैल गया था। कैंसर तो ऐसे भी डरा देने वाली बीमारी है मगर मेरे लिए यह भीतर तक हिला देने वाली थी। इसके पहले दादी, पिता, बड़ी बहन, छोटी बहन को इसी बीमारी ने लील लिया था। इस तरह कैंसर से मेरी पहचान करीब छह दशक पहले हुई थी जब दादी को कैंसर हुआ था। उस समय मैं बमुश्किल पांच-सात साल का था। पता चलने के कुछ दिनों के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। जब भी किसी के कैंसर से पीड़ित होने की सूचना मिलती, देर-सबेर उसकी मृत्यु की भी खबर मिलती। इस कारण कैंसर के प्रति डर और घृणा दोनों ही भाव मेरे अंदर साथ चलते थे। जब मुझे कैंसर होने की जानकारी मिली मैं 62 साल का हो चुका था। मेरी दोनों बेटियां सेटल होने की स्थिति में थीं। फिर भी मैं तनाव में था। फिर विचार आया एक उम्र पा चुका हूं, जब जाना होगा चल देंगे, मगर इसके आगे समर्पण करने के बजाय मैं इससे लड़ूंगा। और मेरा ध्यान कैंसर को हराने और अपनी जीत पर केंद्रित हो गया। जब तक जिंदा हैं तब तक खुश रहकर जिंदा रहें, मैं ऐसा सोचने लगा। समय कम है तो मैं उसके बेहतर इस्तेमाल की तैयारी में जुट गया। ऑपरेशन, रेडियोथेरेपी, हॉरमोनल थेरेपी, कीमोथेरेपी सब कुछ मैंने झेला है। आज तक 25 कीमोथेरेपी मेरी हो चुकी है, चार और बाकी हैं।

पहले मैं प्रिंटिंग प्रेस, स्कूल, बीएड कॉलेज चलाता था मगर 2016 में इससे रिटायरमेंट लेकर छात्रों के बीच मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में काम कर रहा था। बाद में इसका विस्तार कैंसर मरीजों की काउंसलिंग की ओर हो गया। 2018 में बीमारी का पता लगने के बाद डेढ़-दो साल से ज्यादा खुद को ऑर्गनाइज करने, स्वयं का साक्षात्कार करने और अपने भविष्य को आनंद के साथ गुजारने की तैयारी में लगाया। फिर अपने अनुभवों, एहतियात और जिजीविषा को लेकर किताब लिखने और कैंसर के मरीजों की मदद करने की ठानी।

मार्च 2020 से अपनी पुस्‍तक 'थैंक्यू कैंसर' के लेखन में जुट गया। पिछले साल फरवरी में किताब छपकर आ गई। कोडरमा जिले के कुछ कैंसर सरवाइवर और कैंसर मरीजों के साथ मिलकर हम लोगों ने "आवर हैप्पी फैमिली ट्रस्ट" का गठन किया, जो नए मरीजों की काउंसलिंग करता है, कैंसर से लड़ने के लिए तैयार करता है और कैंसर अस्पताल के साथ टाइ-अप कर ट्रीटमेंट की व्यवस्था करता है। हमारे अवेयरनेस कार्यक्रम और टीएमएच से लगातार संपर्क का नतीजा रहा कि टीएमएच वालों ने डेस्क दे दिया और संवाद के लिए एक आदमी प्रतिनियुक्त कर दिया। आज की तारीख में यहां से हम लोग 90 से अधिक मरीजों को टीएमएच भेजने में मदद कर चुके हैं। एम्स दिल्ली, एचसीजी कैंसर अस्पताल, मेदांता में भी मरीज भेजे जा चुके हैं। एक बड़े प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है। कीमोथेरेपी के लिए यहां सिर्फ एक हजार रुपये लगते हैं, परेशानी दवाओं को लेकर होती है।

(थैंक्यू कैंसर के लेखक, नवीन कुमार मिश्र से बातचीत पर आधारित)

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