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स्टैंड-अप कॉमेडी: अपनी ही छवि में फंसी विधा

“पिछले डेढ़ दशक में स्टैंड-अप कॉमेडी तेजी से लोकप्रिय हुई और कुछेक गतिरोध का भी जरिया बनी, लेकिन दौर...
स्टैंड-अप कॉमेडी: अपनी ही छवि में फंसी विधा

“पिछले डेढ़ दशक में स्टैंड-अप कॉमेडी तेजी से लोकप्रिय हुई और कुछेक गतिरोध का भी जरिया बनी, लेकिन दौर बढ़ता जा रहा”

 

हंसो पर चुटकुलों से बचो / उनमें शब्द हैं / कहीं उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों / बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हंसो / ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे...

यह कविता जिस दौर में कवि-संपादक रघुवीर सहाय ने लिखी थी, उस वक्त स्टैंड-अप कॉमेडी नाम की विधा भारत में नहीं आई थी लेकिन हंसने के खतरे से कवि बराबर वाकिफ था। कहते हैं कि दिल्ली पर फर्रुखसियर के राज में उर्दू का पहला व्यंग्यकार हुआ था जफर झटल्ली, जिसे बादशाह के निजाम पर तंज भरे शेर कसने के आरोप में तस्माकशी यानी जूते के फीते से गला कस कर मार दिया गया था। यह घटना कोई तीन सौ साल पुरानी है। यानी हंसी में कभी कोई दिक्कत नहीं रही, लेकिन हंसी के साथ नत्थी शब्दों से जरूर बादशाहों को दिक्कत होती रही है। इसीलिए जब-जब भाषा से जुड़े कारोबारों पर खतरा आता है, हंसाने वाले ही बात को कहने का रास्ता खोजते हैं। इसमें हालांकि वही खतरा होता है जो रघुवीर सहाय ने सुझाव की तरह गिनवाया था, कि बात करते हुए हंसने पर बात का कोई मतलब नहीं रह जाता। पूरे देश में बीते दसेक साल के दौरान कुकुरमुत्तेे की तरह उगे स्टैंड-अप कॉमेडियनों की मूल मंशा में बात को कहना ही रहा होगा, लेकिन हंसी के बीच बात का अर्थ खो गया। जिन्होंने बात को सुनाने के लिए हंसी कम की और आवाज तेज, वे झटल्ली की नियति तक पहुंचते-पहुंचते बाल-बाल बच गए। स्टैंड-अप कॉमेडी के ये दो अलहदा चेहरे इस समय बाजार में मौजूद हैं। जाहिर है, चुटकुलों से बच-बचाकर भौंडे और द्विअर्थी संवादों के सहारे हंसने-हंसाने वाले चांदी काट रहे हैं। झटल्ली की परंपरा वालों के सिर पर तलवार लटकी हुई है। इसके बावजूद, समाज और लोकतंत्र का पारा नापने के लिए किसी भी वक्त समाज में हंसी और व्यंग्य के माध्यमों को पकड़ना ज्यादा आसान काम है। आज देश में मीम से लेकर रील, स्टैंड-अप कॉमेडी, मिमिक्री आदि विधाएं निजाम के बारे में कुछ बता रही हैं। रह-रह के उधर से होने वाली छिटपुट कार्रवाइयां हंसने-हंसाने की सार्थकता और प्रासंगिकता को पुष्ट कर रही हैं। रघुवीर सहाय के दौर की तरह अभी औपचारिक इमरजेंसी तो नहीं लगी है, लेकिन खतरे इस कदर व्याप्त हैं कि आदमी खुद को ही सेंसर किए बैठा है, तो हंसाने वालों का काम थोड़ा मुश्किल हो गया है। दस में से आठ कॉमेडियन कहन के संकट के चलते एक दूसरे की फोटोकॉपी बन गए हैं। 

भारतीय स्टैंड-अप का उदय

भारत में स्टैंड-अप कॉमेडी का आधुनिक स्वरूप आने से पहले फिल्मी दुनिया के दो चर्चित चेहरे जॉनी लीवर और राजू श्रीवास्तव अस्सी और नब्बे के दशक में अपने बूते स्टेज शो करते थे। अपने स्टैंड-अप को टेप करके वे उनकी कैसेट बनाते थे। यह कला धीरे-धीरे टीवी पर आई जब दर्शकों ने राजू को अपने देसी अंदाज में लोगों को हंसाते देखा। उस दौरान जसपाल भट्टी दूरदर्शन पर फ्लॉप शो लेकर आते थे जब ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज नहीं होता था। नई सदी के पहले दशक के मध्य में भारतीय टेलीविजन पर तीन प्रमुख कॉमेडी शो देखे गए: द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो (2004-2006), कॉमेडी सर्कस (2007-वर्तमान) और द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज (2005-2008)।

राजू श्रीवास्तव

राजू श्रीवास्तव

उस दौर में हास्य कला दिन-प्रतिदिन विकसित हो रही थी, नए फॉर्मेट गढ़े जा रहे थे। 2007 में स्टैंड-अप की दुनिया को टेलीविजन के जरिये राष्ट्रीय फलक मिला, जब द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज शुरू हुआ। इस कार्यक्रम के जरिये ड्राइंगरूम में बैठे करोड़ों दर्शक पहली बार स्टैंड-अप के फॉर्मेट से रूबरू हुए। अमेरिका-ब्रिटेन में रह चुके कॉमेडी के कुछ भारतीय दीवानों ने स्टैंड-अप की अनूठी दुनिया को यहां नए सिरे से गढ़ा। इनमें से एक थे अमर अग्रवाल, जिन्होंने अमेरिका से लौटकर मुंबई में कैनवास लाफ क्लब की स्थापना की। जाकिर खान, बिस्वा कल्याण रथ और तन्मय भट जैसे कई सितारों के लॉन्चिंग पैड का काम इस क्लब ने किया। शुरुआत में नए आए कॉमिक वीर दास थे जो पहले विदेश में स्टैंड-अप कर चुके थे। यहां आने के बाद वीर ने विअर्डऐस नाम का सेट पेश किया और लगभग साल भर उसे परफॉर्म किया। जल्द ही वीर दास ऐंड कंपनी ने नौसिखियों के लिए ओपेन माइक का संचालन करना भी शुरू कर दिया, जिसे हैमेच्योर नाइट्स नाम दिया गया। वरुण ठाकुर, रोहन जोशी जैसे प्रतिभाशाली कॉमिक यहीं से उभरे। इसके बाद जाकिर खान, सपन वर्मा, करुणेश तलवार और अन्य ने 2010-11 में परफॉर्म करना शुरू किया।

अभिनव बस्सी

अनुभव बस्सी

दिल्ली में राघव मंडावा ने नए लोगों के लिए जगह बनाने के लिए चीज़ मंकी माफिया के नाम से हर महीने कॉमेडी नाइट शुरू की। 2012 के आसपास अनिर्बान दासगुप्ता, सौरव घोष और वैभव सेठिया ने कोलकाता में कॉमेडीफाइड के नाम से अपना खुद का ‘ओपेन माइक’ शुरू किया। जैसे-जैसे ये सारे कॉमिक एक-दूसरे से मिलते गए, गठजोड़ बनने लगा। यहीं से कॉमिक कलेक्टिव का जन्म हुआ जो कॉमेडी को आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाने का प्रयत्न था।

उत्कर्ष का दौर

2012 में दर्जनों नए कॉमिक का आगमन हुआ। टीवी चैनल कॉमेडी सेंट्रल भी जनवरी 2012 में पे चैनल के रूप में उपलब्ध हो गया। नवगठित एआइबी, ईआइसी, एवम और एसएनजी कलेक्टिव द्वारा नियमित लाइव शो माडरेट किए जाने लगे। ईआइसी ने 2013 में भारत भर में 130 शो करने के बाद खुद को “देश की सबसे व्यस्त कॉमेडी कंपनी” करार दिया। रोहन जोशी और आशीष शाक्य दोनों ने साथ मिलकर उसी वर्ष सितंबर में एआइबी का यूट्यूब चैनल शुरू किया और उनके कंटेंट वायरल होने लगे। लगभग उसी समय अदिति मित्तल ने कैनवस लाफ फैक्ट्री, मुंबई में अपना पहला सोलो शो थिंग्स दे विल नॉट लेट मी से परफॉर्म किया और अगले साल 2013 में बीबीसी की 100 वुमन कॉन्फ्रेंस में उन्हें लंदन बुलाया गया। इसी साल नवंबर में कुणाल कामरा ने भी अपना पहला शो परफॉर्म किया। केनी सेबेस्टियन और कनीज सुरका ने भी कॉमेडी सेंट्रल पर द लिविंग रूम शो शुरू किया।

अदिति मित्तल

अदिति मित्तल

इस बीच, अतुल खत्री और पापा सीजे जैसे कॉमेडियन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहे थे। खत्री 2014 में हांगकांग इंटरनेशनल कॉमेडी फेस्टिवल में प्रदर्शन करने वाले पहले भारतीय कलाकार बने, जबकि सीजे को कुआलालंपुर में दूसरी शीर्ष एशियाई कॉर्पोरेट बॉल (2014) में ‘एशिया का सर्वश्रेष्ठ स्टैंड-अप कॉमेडियन’ घोषित किया गया। 28 जनवरी 2015 को एआइबी ने यूट्यूब चैनल पर 54 मिनट रोस्ट का वीडियो अपलोड किया। 48 घंटों के अंदर वीडियो वायरल हो गया। इस कार्यक्रम में बोले और दिखाए गए कथित रूप से अश्लील कंटेंट पर बखेड़ा हुआ। विवाद के बावजूद रोस्ट वीडियो के वायरल हो जाने से उन्हें लोकप्रियता ही मिली।

2016-17 में वीर दास को क्रिएटिव आर्टिस्ट एजेंसी, लॉस एंजिलिस द्वारा साइन किया जा चुका था। अप्रैल 2017 में दास ने अपना पहला नेटफ्लिक्स स्पेशल ए ब्रॉड अंडरस्टैंडिंग जारी किया। जुलाई 2017 में अदिति मित्तल का शो थिंग्स दे विल नॉट लेट मी से नेटफ्लिक्स पर ही रिलीज किया गया। बिल बूर (2015), एडी इजार्ड (2017) और रसेल पीटर्स जैसे बड़े टिकट वाले अंतरराष्ट्रीय कॉमेडियनों ने भारत में सोल्ड आउट शो किए। अमित टंडन, अदिति मित्तल और अतुल खत्री को नेटफ्लिक्स के कॉमेडियन ऑफ द वर्ल्ड में चित्रित किया गया। डैनियल फर्नांडीस के क्राउड-वर्क स्पेशल टॉक टु मी आयरन मैन ने भारत में सबसे लंबे समय तक क्राउड इंटरैक्शन शो का रिकॉर्ड बनाया।

सायरन की आहट

थोड़ी सी हंसी और फिर गाली-गलौज, आप शो के बाद घर जाते हैं, सोशल मीडिया देखते हैं और वहां अपने बारे में एक मीम पाते हैं जिस पर कैप्शन लिखा होता है- कांग्रेस का कुत्ता। तो मेरे दोस्त, अब आप कॉमेडियन नहीं रह गए। आप अब ओपिनियन मेकर हो चुके हैं, एक ऐसा शख्स जिससे बहुत से लोग नफरत करना पसंद करते हैं। 

जाकिर खान

जाकिर खान

कुणाल कामरा ने जब 2018 में इंडियन एक्सप्रेस में यह लिखा, तो यह साल भर तक झेली उनकी कठिनाइयों का निचोड़ था। उन्होंने अपनी स्टैंड-अप कॉमेडी में राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर मजाक किया था जिसके बाद उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलीं, उनकी मकान मालकिन ने किराए का कमरा खाली करवा लिया और लंबे समय तक उन्हें शो नहीं मिले। कुणाल कामरा के साथ जो कुछ भी हुआ, वह स्टैंड-अप कॉमेडी के ठहरे हुए पानी में सूनामी उठने जैसा था। इसके बाद उन तमाम कॉमेडियनों ने खुद को सेंसर करना शुरू कर दिया जो पहले समाज और राजनीति पर लतीफे गढ़ते थे। कई ने तो खुलकर यह स्वीकार करना भी शुरू कर दिया कि वे डर के मारे नहीं बोल रहे हैं कि कहीं पुलिस न पकड़ ले जाए।

ज्यादातर स्टैंड-अप कॉमेडियन अच्छी नौकरी और संस्थान छोड़कर इस धंधे में आए थे और उन्हें राजनीतिक हकीकत का कोई अंदाजा नहीं था, तो यह घटना उनके लिए सदमे जैसी साबित हुई। कुणाल कामरा के अध्याय के बाद बीते पांच साल में स्टैंड-अप कॉमेडी और हास्य-व्यंग्य का समूचा परिदृश्य बदल गया। यानी जो विधा अभी गर्भ से निकली ही थी वह असमय पक्षाघात का शिकार हो गई। कॉमेडियनों को समाज और राजनीति की सच्चाई पर हास्य जगाते हुए बोलने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ रही थी, तभी देश में कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन लग गया। जो बंदिशें भीतर लोगों ने लगा रखी थीं, उनमें बाहरी बंदिशें भी जुड़ गईं। मुंह पर जाबी लगा दी गई। अब हंसना अकेले में ही था ताकि कोई संक्रमित न हो जाए। ऊपर से महामारी का खौफ और जीवन की असुरक्षा ने हंसने के मौके ही कम कर दिए।

यही वह समय था जब शर्मा जी का परिवार हर शनिवार और इतवार लोगों की जिंदगी में ताजा हवा का झोंका बनकर आया और सबके दिलों में छा गया।

नई हंसी

आखिर दर्जनों बेहतर, सुंदर और अंग्रेजीदां कॉमेडियनों की भीड़ में अकेले कपिल शर्मा को ही इतनी ऊंचाई क्यों हासिल हुई? इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे अहम कारण है वह दौर जब इस देश के लोग अपने बूते घरों में परिवार के साथ सहमे हुए बैठे थे और उन्हें बिना कोई ज्ञान दिए हंसाने के लिए परदे पर एक परिवार मौजूद था, शर्मा जी का परिवार। महामारी की दो लहरों के बीच फैली त्रासदी के दौरान कपिल शर्मा और उनकी टीम इस देश के लोगों के साथ सीधे संवाद कर रही थी क्योंकि स्टू्डियो में दर्शक नहीं होते थे। दो घंटे के पारिवारिक हंसी-मजाक में वे केवल एक हिदायत देते थे, मास्क लगाएं, हाथ धोते रहें और एक दूसरे से सुरक्षित दूरी बनाए रखें। न इससे एक शब्द ज्यादा, न कम।

इस दौर में लाफ्टर क्लबों पर ताला लगा था और ऑफलाइन शो संभव नहीं थे, तो ज्यादातर स्टैंड-अप कॉमेडियनों की दुकान बंद हो गई थी। करुणेश तलवार एकाध एपिसोड लेकर अमेजन प्राइम पर आ चुके थे, हालांकि उनके ऐक्ट में हमेशा की तरह लाउडनेस और दोहराव था। कुणाल कामरा जैसे कॉमेडियन से ओपीनियन मेकर बन चुके लोग ट्विटर पर राजनीति में जुट गए थे। स्टैंड-अप कॉमेडियनों के बीच सबसे संजीदा, विवेकवान और भाषा के मामले में अपेक्षाकृत सभ्य पुनीत पानिया ऑनलाइन गप के साथ-साथ विचारोत्तेजक ब्लॉग लिख रहे थे। दो साल पहले तक बेहद चर्चित महिला कॉमेडियन मल्लिका दुआ, सृष्टि श्रीवास्तव, कनीज सुरका आदि अचानक गायब हो गई थीं। मैदान में अकेले अपने शो के साथ कपिल शर्मा डटे हुए थे। बाकी, गांव-कस्बों  में खाली समय काटने के लिए लोग खुद छोटी-छोटी कॉमेडी रील बना रहे थे।

कपिल शर्मा की कामयाबी के पीछे अगर सही समय पर आया उनका शो था, तो उतना ही अहम उनका पारिवारिक फॉर्मेट था और उसे निभाने वाली टीम थी। दर्शकों के बीच कपिल की मां का होना देखने वालों के लिए शो को प्रामाणिकता प्रदान करने वाला तत्व था, जिससे तत्काल भावनात्मक जुड़ाव हो जाता था। विशुद्ध अराजनीतिक होते हुए भी यह शो इस मायने में राजनीतिक था कि इसने बहुत से लोगों को अलगाव और हताशा में जाने से बचा लिया। यह कॉमेडी की ताकत थी। यह ताकत जफर झटल्ली की तंज वाली ताकत से अलहदा थी। यह लाफ्टर थेरपी थी। यह हिंदुस्तानी समाज की नई हंसी थी।

महामारी बीतने के बाद आए द कपिल शर्मा शो के दूसरे सीजन में स्थितियां बदल चुकी थीं। गांव-कस्बे का आदमी खुद 90 सेकंड का कॉमेडियन बन चुका था। कुछेक उतार-चढ़ाव के दौर भी आए, मगर कपिल शर्मा ने जो लकीर खींची है, उसे अभी तक कोई छोटा नहीं कर सका है।

इसका एक और सामाजिक पक्ष है जिस पर चर्चा कम होती है। आम तौर से बीते दसेक साल में उभरे स्टैंड-अप कॉमेडियन अंग्रेजी पृष्ठभूमि के हैं जो बड़े संस्थानों से पढ़कर निकले हैं या कॉरपोरेट की नौकरी छोड़ कर आए हैं। हिंदी में कॉमेडी करने वाले भी ज्यादातर अंग्रेजी पृष्ठभूमि के ही हैं। उनका लक्षित दर्शक वर्ग भी उसी तबके का है। जाहिर है, लाफ्टर क्लब में 900 रुपये की टिकट खरीद कर कोई हिंदी बोलने वाला मध्यवर्गीय आदमी नहीं जाएगा। इसके उलट, कपिल शर्मा खुद अपनी अंग्रेजी का मजाक उड़ाते हैं। वे अपनी पंजाबी पृष्ठभूमि का ही ऐसे मजाक उड़ाते हैं कि वह फायदे में काम करता है। अंग्रेजीदां समाज और अमीरों के प्रति अकसर उनके तंज साफ समझ में आते हैं। इसके महीन राजनीतिक निहितार्थ हैं।

2016 में लागू हुई नोटबंदी, उसके बाद जीएसटी से समाज में एक किस्म का वर्गीय विभाजन मजबूत हुआ है। याद करें, भाजपा की नेता उमा भारती ने नरेंद्र मोदी को गरीबों का कार्ल मार्क्स बताया था। सरकारी माध्यमों में बार-बार यह प्रचार किया गया था कि काला धन रखने वालों की शामत आ जाएगी। पैसे वालों को नुकसान होगा पर गरीबों को कुछ नहीं होगा। एक किस्म का नकारात्मक सुख इस देश के मध्यर्गीय सवर्ण को मिला था जब उसने उच्च मध्यवर्गीय लोगों को भी लाइन में लगे हुए देखा। यह वर्गीय विभाजन दरअसल सरकारी प्रचार के कारण विद्वेषपूर्ण और अस्वस्थ था। कपिल शर्मा ने जो अंग्रेजी-विरोधी देसी कल्ट अपने शो के माध्यम से बनाया, वही मध्यवर्ग को अपील कर गया।

राधिका

 

राधिका

इसमें कोई दो राय नहीं कि कपिल शर्मा ने डूबते हुए लोगों को हंसा कर उबारने का काम किया, लेकिन राजनीतिक आस्थाओं के मामले में देखें तो उनके शो से निकले संदेश पूर्वाग्रहों और जड़ धारणाओं को मजबूत करने वाले ही रहे। बेशक, उनका काम धारणाओं को तोड़ना नहीं था, घोषित तौर पर वे कोई राजनीतिक काम नहीं कर रहे थे। लेकिन बिना शब्दों के हंसी की भी अपनी राजनीति होती है। वही राजनीति, जिसके बारे में रघुवीर सहाय ने लिखा है। हालांकि हंसी के कोलाहल में अर्थ गायब हो जाता है शब्दों से, विशुद्ध हंसी बच जाती है। यह हंसी मरते हुए को जिंदा तो कर सकती है, लेकिन उसे भीतर ही भीतर मारने वाले कीटाणुओं को और सक्रिय कर देती है।

वैकल्पिक स्वर

इसीलिए हम पाते हैं कि यह समाज इतना हंसने-हंसाने के बावजूद जस का तस बना हुआ है। हंसी कोई मानवीय मूल्य सृजित नहीं कर पाई है। जो लोग मूल्य से संचालित होकर समाज को जागरूक करने के लिए हास्य को माध्यम बनाए हुए हैं, वे लोकप्रियता के पैमाने पर कहीं नहीं हैं। उनकी उम्मीद अब टूट रही है। करीब साल भर बाद अपने ब्लॉग पर वापस आए कॉमेडियन पुनीत पानिया ने ताजा लेख ‘दि वायलेंट नेचर ऑफ एवरीथिंग’ में जो लिखा है, वह स्टैंड-अप कॉमेडी की वस्तुस्थिति का निचोड़ बयां करता है:

आप या तो पागलपन का हिस्सा होते हैं, बिना सोचे समझे खेलते रहते हैं या फिर जितना संभव हो सके उससे बाहर हो जाते हैं। जगत के कारखाने में किसी पहिये का अचेत दांता बन के जीना विकल्प नहीं है। क्रूरता का हर कृत्य सदियों तक सत्ता के दलालों द्वारा निभाई गई रंजिशों की शृंखला में गूंजता रहता है। मैं चाहूंगा कि भावनात्मक रूप से स्वस्थ  कोई भी आदमी इस दुष्चक्र में अपना योगदान न दे। किसी श्रेष्ठताबोध के चलते बाहर नहीं होना है, बल्कि विनम्रता के साथ, जो स्वाभाविक तौर पर एक स्वस्थ और महफूज दिमाग की उपज होती है।

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