महाभारत कथा में एक महायोद्धा शिखंडी है, जिसके सामने भीष्म पितामह ने अस्त्र उठाने से मना किया लेकिन उसके युद्ध कौशल ने पांडवों को लगभग विजय के कगार पर पहुंचा दिया। पांडवों की विजय के उस महानायक का चित्रण कथा में गौरवशाली है। प्राचीन ग्रंथों, महाकाव्यों, कथाओं में ऐसे चरित्रों के प्रति उपहास के संदर्भ मुश्किल से ही खोजे मिलते हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि आज समाज में ‘शिखंडी’ शब्द कापुरुषता का पर्याय बना दिया गया है। समाज के इस हिकारत भरे नजरिए का बड़ा आईना खासकर बॉलीवुड की फिल्मों से अधिक और क्या होगा? शोले का हर जुबान पर चढ़ा वह डॉयलाग याद कीजिए कि ‘ठाकुर ने हिजड़ाें की फौज बनाई है।’ या 2018 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चित्रा मुद्गल के उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203, नालासोपारा के नायक की तरह परिवार-समाज का दुत्कार, लांछन सहना पड़ता है और कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ भी जाएं तो हार मिलती है। उन्हें पहचान साबित करने के लिए आज कई-कई महाभारत लड़नी पड़ रही है। हालांकि देर से ही सही, थोड़ा-बहुत नजरिया बदला तो ट्रांसजेंडर बिरादरी से ऐसी शख्सियतें उभरीं, जिन्होंने हर बाधा को पार करके कामयाबी का पताका ऊंचे से ऊंचा लहरा दिया। जी, चौंकिए नहीं, जज, वकील, पायलट, मॉडल, एक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, ब्यूटी-क्वीन कोई भी ऐसा मुकाम नहीं बचा है, जहां इस बिरादरी ने अपनी गरिमामय मौजूदगी नहीं दर्ज की है। ऐसी ही शख्सियतों की बेहद संघर्षशील, मुश्किल और दर्द भरे सफर से हासिल उपलब्धियों की यह कहानी बताती है कि वे दमखम, प्रतिभा, लगन में किसी से कम नहीं, बल्कि विशेष सम्मान और समान अवसर की हकदार हैं। बेशक, अपने लगभग सामाजिक, ज्यादातर पारिवारिक बहिष्कार की शिकार यह बिरादरी सकारात्मक भेदभाव यानी आरक्षण की हकदार भी है, जिस पर नीति-निर्माताओं को शर्तिया गौर करना चाहिए।
अमेरिका की प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकता एलिशन रॉबिन्सन का कहना है कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों ने हमेशा समाज की सेवा की है, सेवा कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। लेकिन उन्हें समान व्यवहार, अवसर, सम्मान और पहचान की दरकार है। हालांकि सदियों से हाशिये पर धकेल दिया गया ट्रांसजेंडर समुदाय अब धीरे-धीरे शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून और मनोरंजन समेत सभी क्षेत्रों में अपना झंडा बुलंद कर रहा है। ये मिसालें थोड़ी हैं मगर समाज और सरकार की आंखें खोलने के लिए काफी हैं।
जरा गौर कीजिए। जोयिता मंडल लोक अदालत में देश की पहली ट्रांसजेंडर जज बनी हैं। लेकिन उनका यह सफर कितना मुश्किल भरा रहा है, यह उनकी जुबानी सुनिए, “मैं कुछ बड़ा करना चाहती थी या मर जाना चाहती थी। आज जिस मुकाम पर हूं, वहां पहुंचना आसान नहीं था। मैं बचपन में भीख मांगती थी और बस स्टैंड पर रात गुजारती थी। लेकिन इन सबके बावजूद कुछ कर गुजरने की जिद हमेशा मेरे अंदर बची रही और आज उसी वजह से मैं यहां खड़ी हूं।”
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में ट्रांस समुदाय की आबादी 4.88 लाख है। उन्हें लैंगिक, मानसिक उत्पीड़न और सामूहिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, 96 प्रतिशत ट्रांसजेंडरों को नौकरी से वंचित कर दिया जाता है और उन्हें आजीविका के लिए देह बेचने और भीख मांगने को मजबूर होना पड़ता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 92 प्रतिशत ट्रांसजेंडर देश में किसी प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में भाग नहीं लेते हैं और 50-60 प्रतिशत ट्रांसजेंडर भेदभाव के कारण कभी स्कूल भी नहीं गए।
ट्रांसजेंडरों के अधिकारों पर यह अब तक का पहला अध्ययन है। इससे पता चलता है कि मात्र एक फीसदी ट्रांसजेंडर का वेतन 25 हजार रुपये से ऊपर है। हालांकि तमाम आंकड़ों को धता बताते हुए श्रुति सिथारा जैसे लोग भी हैं जो अपने हौसले और लगन की बदौलत ऊंचाइयों को छू रहे हैं। श्रुति ने हाल ही मिस ट्रांस ग्लोबल 2021 का खिताब अपने नाम किया है। अपने ऑडिशन टेप में उन्होंने कहा था, “मैं दिखाना चाहती हूं कि हम लोग वह सब कुछ कर सकते हैं, जो हर सामान्य इनसान कर सकता है।”
और मिसाल देखिए। हाल ही तमिलनाडु के वेल्लोर में शहरी निकाय चुनाव जीतकर गंगा नायक ने ट्रांस समुदाय को बड़ा प्रतिनिधित्व दिया है। इसके अलावा सत्यश्री शर्मिला बार काउंसिल ऑफ तमिलनाडु ऐंड पुदुच्चेरी से जुड़कर देश की पहली ट्रांसजेंडर वकील बनी हैं। यही नहीं, हैरी एडम देश के पहले ऐसे ट्रांसमैन बने हैं, जिन्होंने प्राइवेट पायलट लाइसेंस प्राप्त किया है। इनके अलावा रुद्राणी छेत्री, नव्या सिंह, जिया दास, निताशा विश्वास, पद्मिनी प्रकाश, मनाबी बंदोपाध्याय, आर्यन पाशा और गजल धालीवाल जैसे लोग भी हैं जिनकी चाह ने उनकी राह को आसान बनाया है। इनकी दर्द भरी मगर कामयाब कहानियां अगले पन्नों पर उनकी जुबानी पढ़िए।
मुश्किल थी डगर ‘पनघट’ की
ट्रांसमदर ऑफ इंडिया नाम से विख्यात रीना रॉय, ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए भारत की पहली सौन्दर्य प्रतियोगिता मिस ट्रांसक्वीन इंडिया आयोजित करती हैं। आउटलुक से वे कहती हैं, “जब मैंने इसकी शुरुआत की तब मैं कई जगह मदद मांगने के लिए गई, लेकिन किसी ने मेरी मदद नहीं की। मैं जब किसी फैशन डिजाइनर के पास प्रतिभागियों के लिए कपड़े मांगने जाती थी, तो वे कहते थे कि अगर ये हमारे डिजाइन किए हुए कपड़े पहन लेंगी तो इसे कोई और नहीं खरीदेगा।” हालांकि रीना रॉय कहती हैं कि जितने भी ट्रांसजेंडर लोगों ने इस कॉन्टेस्ट में भाग लिया, उनका जीवन बदल गया है। जिन प्रतिभागियों के माता-पिता उन्हें स्वीकार नहीं करते थे, उन्होंने अपने बच्चों को फिर से अपना लिया है। मिस ट्रांसक्वीन होने के बाद कई प्रतिभागी डिजाइनरों के साथ काम करने लगी हैं और कुछ क्षेत्रीय फिल्मों में भी काम कर रही हैं।
ट्रांसजेंडर समुदाय का एक छोटा-सा वर्ग भले अपने संघर्षों के दम पर अपना नाम बना रहा हो, लेकिन समाज में स्थिति अब भी वही है जो पहले थी। अधिकतर ट्रांसजेंडर आज भी अपना पेट सेक्स वर्क, भीख मांगकर या बधाइयां देकर भरते हैं और कुछेक मामलों में आपराधिक कर्म से जुड़ जाते हैं। ऐसी कई कहानियां मिल जाएंगी कि उनकी टोलियों ने जबरन उगाही की। इससे उनकी कहानी दीगर नहीं होती।
देश की पहली ट्रांसजेंडर मॉडलिंग एजेंसी शुरू करने वाली रुद्राणी छेत्री आउटलुक से कहती हैं, “हमारा जेंडर हमें दूसरों से इतना अलग कर देता है कि लोग सोचते हैं हमें सामान्य खुशियों का भी हक नहीं है।” मॉडलिंग एजेंसी शुरू करने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली? वे कहती हैं, “2015 में दिल्ली में मुझे एक रेस्तरां में जाने से यह कहकर मना कर दिया गया कि आप जैसे लोगों को यहां एंट्री नहीं मिलती है। उस वक्त ही मैंने यह तय कर लिया कि मुझे अपनी कम्युनिटी के लोगों के लिए कुछ करना है ताकि वे खुद की पहचान को बोझ न समझें और वह उस पर गर्व कर सकें।”
देश में ट्रांसजेंडर समुदाय की दयनीय स्थिति का अंदाजा हमसफर ट्रस्ट की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। ट्रस्ट ने जून 2017 और मार्च 2018 की अवधि में देश के तीन बड़े शहरों पर किए अपने अध्ययन में पाया कि दिल्ली में ट्रांसजेंडर समुदाय के 57 प्रतिशत लोगों ने, मुंबई में 55 प्रतिशत लोगों ने और बेंगलूरू में 70 प्रतिशत लोगों ने हिंसा झेली है।
आज जितने भी ट्रांसजेंडर बुलंदियां छू रहे हैं, सभी का संघर्ष एक जैसा रहा है, बस नाम और किरदार बदल गए हैं। सावधान इंडिया जैसे धारावाहिक में काम कर चुकी नव्या सिंह का कहती हैं, “मेरा पूरा बचपन अवसाद और प्रताड़ना में गुजरा है। लोगों ने मुझे सिर्फ हिकारत भरी नजरों से ही देखा। मैं जब 16 साल की थी तब मेरे दोस्तों ने ही मेरा शारीरिक शोषण किया। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। मेरे गांव के लोग जो एक समय पर मुझे ताने मारते थे, आज जब घर जाती हूं तो वही लोग मेरे साथ तस्वीर लेने के लिए दौड़ते हैं।”
ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ भेदभाव इतना ज्यादा है कि फिल्मों में जो रोल ट्रांसजेंडर का होता है, वह भी उन्हें नहीं मिलता। नव्या कहती हैं कि बड़े-बड़े अभिनेता और अभिनेत्रियां अब भी किसी ट्रांसजेंडर का रोल करना पसंद नहीं करती हैं। अपनी फिल्म सीजंस ग्रीटिंग्स के जरिए बॉलीवुड में पहली बार किसी ट्रांसजेंडर को ब्रेक देने वाले राम कमल मुखर्जी, अपनी बॉलीवुड फ्रेटर्निटी को संदेश देते हुए कहते हैं, “हमारी तरह वे भी इनसान हैं और उनका भी दिल धड़कता है, उनके भी आंसू आते हैं, उन्हें भी खुशियां महसूस होती हैं और उनको भी दर्द होता है। वे हमसे अलग नहीं हैं। हमें यह ‘अलग’ शब्द हटा देना चाहिए क्योंकि उन्हें भी उतना ही हक है, जितना हमें है। मैंने उन्हें अपनी फिल्म में इसलिए जगह दी ताकि वे अपने समाज का प्रतिनिधित्व कर सकें।”
समाज बदल रहा है और मंथर गति से ही सही, ट्रांसजेंडर समुदाय की स्वीकार्यता भी बढ़ रही है। देश की पहली ट्रांसजेंडर जज जोयिता कहती हैं, एक वक्त था जब मैं घर से दूर रहती थी। लेकिन आज अपने घर की देखभाल मैं ही करती हूं। जब आप कुछ हासिल कर लेते हैं तो आप जैसे भी हों, समाज आपको स्वीकार कर लेता है। लेकिन इस बात से देश की पहली ट्रांसजेंडर इलेक्शन एंबेस्डर गौरी सावंत इत्तेफाक नहीं रखती हैं। वे कहती हैं, “मेरे पिता एसीपी थे, जिनकी मृत्यु एक साल पहले हुई है। इसकी खबर मुझे कई दिनों बाद मिली। मुझे घर में आज तक हिस्सा नहीं मिला है। मेरे सेलिब्रिटी बनने का क्या फायदा है? जब मेरे साथ यह हो रहा है तो चौराहे पर खड़े किन्नरों के साथ क्या होता होगा, जो भीख मांगते हैं?”
कानूनी हक की लंबी लड़ाई
ट्रांसजेंडर समुदाय को तीसरे जेंडर के रूप में पहचान दिलाने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (नालसा) ने 2012 में रिट याचिका दायर की। 2013 में किन्नर एसोसिएशन पूज्य माता नसीब कौर जी वुमेन वेल्फेयर सोसायटी ने भी याचिका दायर की। बाद में लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भी इसमें पक्षकार बनीं। जस्टिस के.एस. राधाकृष्णन और जस्टिस ए.के. सीकरी ने 15 अप्रैल 2014 को निर्णय सुनाया। कोर्ट ने कहा कि ट्रांसजेंडर भारतीय संविधान के दायरे में आते हैं और अनुच्छेद 14 के तहत वे रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और अन्य नागरिक अधिकारों के बराबरी के हकदार हैं। अनुच्छेद 19 के अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत वे अपनी मर्जी के मुताबिक कपड़े पहन सकते हैं, बोल सकते हैं और व्यवहार कर सकते हैं। कोर्ट ने ‘हिजड़ा’ को भी तीसरा जेंडर मानते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को उन्हें बराबरी का दर्जा देने को कहा।
सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर मामले में 2018 में निर्णय दिया कि जहां तक दो वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध- चाहे वह समलिंगी, विपरीत लिंगी या लेस्बियन के बीच हो- को दंडित करने की बात है तो वह आइपीसी की धारा 377 असंवैधानिक है।
हालांकि कोर्ट के इस फैसले के बाद भी हकीकत कुछ ज्यादा नहीं बदली है। यूं कहें कि सरकार के नियम-कानून ही न्यायपालिका के आदेशों की अवहेलना कर रहे हैं। नवंबर 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्रांसजेंडर समुदाय पर कहा था, “क्या आप सोच सकते हैं कि वे (ट्रांसजेंडर) कितनी उपेक्षा का सामना करते हैं? सरकार को उनके लिए ऐसा सिस्टम विकसित करना होगा जो इन्हें न्याय दिला सके। इसके लिए कानून व्यवस्था को बदलना होगा और नियमों को संशोधित करना होगा।” प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के करीब चार साल बाद, 19 जुलाई 2019 को तत्कालीन सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्री थावरचंद गहलौत ने लोकसभा में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) बिल, 2019 पेश किया। बिल में ट्रांसजेंडर को परिभाषित करते हुए उनके विरुद्ध होने वाले हर तरह के भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया। इसमें यह प्रावधान भी किया गया है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति को किसी भर्ती या पदोन्नति में भेदभाव का सामना न करना पड़े। हालांकि जिस दिन यह बिल पास हुआ, उस दिन को ट्रांसजेंडर समुदाय ने ‘जेंडर जस्टिस मर्डर डे’ के रूप में मनाया।
वजह यह है कि ट्रांसजेंडर अपनी पहचान खुद नहीं तय कर सकता है। पहचान साबित करने के लिए सरकारी प्रमाण पत्र की जरूरत है, जो डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट जारी करता है। ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट मानते हैं कि यह बिल कोर्ट के नालसा जजमेंट का उल्लंघन करता है, जिसमें मेडिकल सर्टिफिकेट या सेक्स-रीअसाइनमेंट सर्जरी के बिना ही ‘आत्मनिर्णय’ से कोई भी लिंग चुनने का अधिकार दिया गया है।
ट्रांसजेंडर बिल में ‘ट्रांसजेंडर’ की जो परिभाषा तय की गई है, उससे भी समुदाय के लोगों को दिक्कत है। बिल में ट्रांसजेंडर की जो परिभाषा तय की गई है उसमें क्या कमियां हैं, इस पर सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड कृतिका अग्रवाल कहती हैं, “मुख्य मुद्दा यह है कि यह ट्रांस व्यक्ति को पुरुष या महिला या कुछ और होने की आंतरिक भावना के अनुसार खुद को परिभाषित करने की स्वायत्तता नहीं देता है।”
हालांकि कुछ ट्रांसजेंडर लोगों का कहना है कि उनकी तकलीफें कुछ कम हुई हैं। किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी कहती हैं, अभी मील का पहला पत्थर रखा गया है और समाज के अंदर बदलाव का बिगुल बजाना बाकी है। वे कहती हैं कि कानूनी और कागजी लड़ाई हमने जीत ली है। लेकिन उस कानून में कई कमियां हैं, जिसको बदलने के लिए हम सरकार को सुझाव दे रहे हैं। अगली लड़ाई शादी के हक और एडॉप्शन के अधिकार को लेकर है।
बहरहाल, कामयाबियों की कहानी बताती है कि संघर्ष अभी लंबा है मगर नाउम्मीद नहीं, जैसा कुछ समय पहले तक लगता था। समाज और सरकार का नजरिया बदले तो ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग भी देश-समाज के विकास में भरपूर सहयोग देंगे। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उनके प्रति तिरस्कार, लांछन का भाव मिटे और सम्मान हासिल हो।
सबेरा अब दूर नहीं
श्रुति सिथारा, मिस ट्रांस ग्लोबल यूनिवर्स, 2021
कुछ कहानियां प्रेरक, साहसी और आशावाद से भरी होती हैं। मिस ट्रांस ग्लोबल यूनिवर्स, 2021 श्रुति सिथारा की कहानी यकीनन ऐसी ही है, जो कनाडा और फिलीपींस की प्रतिभागियों को पछाड़कर यह खिताब जीतने वाली देश की पहली प्रतिभागी बनी हैं। श्रुति के लिए यह सफर आसान नहीं रहा, लेकिन अपने जज्बे, जोश और जुनून की बदौलत वे हर बाधा पार करती गई हैं।
केरल की रहने वाली श्रुति लड़के के शरीर में पैदा हुई थीं, लेकिन उनकी आत्मा औरत की थी। उनके पास सिर्फ दो विकल्प थे। एक, पूरा जीवन लड़के के शरीर में ही जीकर गुजार दें और दूसरे, तमाम सामाजिक लांछन और दुत्कार की परवाह किए बगैर वह करें जो उनका दिल और दिमाग कह रहा हो। श्रुति ने अपनी आत्मा की सुनी और दुनिया के कटाक्ष और ताने की परवाह किए बगैर उन्होंने लड़की बनना स्वीकार्य किया। वे कहती हैं कि उनकी फैमिली ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। श्रुति अपने परिवार को सबसे बड़ी ताकत मानती हैं और कहती हैं कि मैं शुरू में घर में अपनी पहचान बताने में हिचक रही थी लेकिन मेरे बताने के बाद उन्होंने बिल्कुल वैसे ही स्वीकार किया, जैसी मैं थी।
श्रुति को बचपन में कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। वे कहती हैं कि हर ट्रांसजेंडर की तरह लोगों का मेरे प्रति व्यवहार भी धिक्कार भरा था। स्कूल और कॉलेज में मुझे साथियों का कटाक्ष झेलना पड़ा, जिसे मैं हंसकर टाल जाती थी। हालांकि मुझे ज्यादा दिनों तक घुट-घुटकर जीना मंजूर नहीं हुआ और आखिर एक दिन मैंने फेसबुक पर यह बात साझा कर दिया कि मैं हार्मोनल थेरेपी से गुजर रही हूं। श्रुति के मुताबिक, उनके जीवन में सबसे बड़ा मोड़ कोच्चि के एक इवेंट आया। वहां वे ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों से मिलीं और जान पाईं कि मैं जो महसूस कर रही हूं वह बिल्कुल नार्मल है।
श्रुति कहती हैं कि हर किसी को अपनी लैंगिक पहचान चुनने का अधिकार है। हमारे पास सबसे अच्छा संविधान है। यह हमें अपनी लैंगिक पहचान में जीने का अधिकार देता है। उनका मानना है कि अब ट्रांसजेंडर की स्थिति में सुधार आया है। वे कहती हैं कि हम पिछले 10 वर्षों से मौजूदा स्थिति की तुलना करेंगे तो पाएंगे कि समाज में ट्रांसजेंडर की स्वीकार्यता बढ़ी है। हालांकि अब भी ऐसे लोग हैं जो हमारे बारे में नहीं जानते हैं और सोचते हैं कि यह कोई बीमारी है, जिसे ठीक किया जा सकता है।
फिलहाल श्रुति एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों और उनके संबंधों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए अपने दोस्तों के साथ द केलाइडोस्कोप नामक एक ऑनलाइन अभियान चला रही हैं।