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नए साल की नई चुनौतियां, क्या काबू में होंगी समस्याएं

“इस साल अनेक संभावनाओं के दरवाजे खुल सकते हैं तो आशंका और निराशा के काले बादलों के साए भी घने और...
नए साल की नई चुनौतियां, क्या काबू में होंगी समस्याएं

“इस साल अनेक संभावनाओं के दरवाजे खुल सकते हैं तो आशंका और निराशा के काले बादलों के साए भी घने और डरावने, किस मद में क्या है इसकी झोली में?”

हर साल अपनी झोली में संभावना-हताशा, आशा-निराशा, शगुन-अपशगुन की न जाने कितनी पोटलियां बांधे आता है। नया साल 2022 पहले ही दिन जम्मू में वैष्णो देवी दर्शन को जा रहे लोगों की भारी भीड़ में भगदड़ में 12 लोगों की मौत की खबर से सन्न कर गया। लेकिन उससे बड़ी दहशत कोविड-19 के नए वेरिएंट ओमिक्रोन की तीसरी लहर की है। हमारी परंपरा रही है कि अशुभ को अकाल मान लिया जाए और आशा तथा उम्मीद के साथ भविष्य की संभावनाओं को देखा जाए। हम पिछले साल की कुछ कड़ियां जोड़ें तो आशंकाएं रूह कंपाती हैं मगर संभावनाओं और उम्मीदों का कटोरा भी कम भरा नहीं है। तो, आइए संभावनाओं और आशंकाओं के इस संगम पर एक नजर डाली जाए और अंदाजा लगाया जाए कि किन नतीजों का किसके मद में क्या मतलब हो सकता है।

जहां तक महामारी का सवाल है तो ओमिक्रोन के बारे में अभी तक थोड़ी सुकून भरी खबर यही है कि इसे अधिक संक्रामक, मगर कम घातक माना जा रहा है। फिर भी पिछले साल दूसरी लहर की विकरालता को सोचकर रूह कांप उठती है। शायद इस वजह से भी पाबंदियों के आदेशों में तत्परता दिखाई देती है। हालांकि कुछ हलकों में इसकी दूसरी अपुष्ट वजहों का भी जिक्र है, जो बाजार और सियासत से जुड़ी हैं। अपशगुन या कहें आशंकाएं और भी हैं, जो देश और समाज की बेबसी को बढ़ा सकती हैं, इसके बावजूद उम्मीदों और आकांक्षाओं पर गौर करना जरूरी है।

पास-पड़ोस के मोर्चे पर तनाव घटने का कोई संकेत नहीं है। साल के पहले ही दिन गलवन घाटी में चीनी फौज ने बाकायदा झंडा फहराया और उसे पहले चीन के सोशल मीडिया पर ट्रेंड कराया गया, बाद में ट्विटर पर। मानो इतना ही काफी नहीं था, चीन सरकार ने अरुणाचल प्रदेश की 15 जगहों का नया नामकरण कर दिया। हमारे रक्षा मंत्रालय ने बयान जारी किया, ‘‘इससे चीन का दावा मजबूत नहीं होता।

अरुणाचल भारत का अभिन्न हिस्सा है और रहेगा।’’ इससे एक संकेत तो स्पष्ट है कि तनाव उत्तरी मोर्चे पर बदस्तूर हर जगह जारी है। यही नहीं, लंबे अरसे बाद पाकिस्तान भी सक्रिय हुआ और हरिद्वार के एक आयोजन में ‘कत्लेआम’ की बात पर अपनी आपत्ति प्रकट करने के लिए इस्लामाबाद में भारतीय दूतावास के एक अधिकारी को बुलाया। दूसरे अंतरराष्ट्रीय मोर्चों पर भी देश की स्थिति बहुत प्रशंसनीय नहीं लगती। उलझन यह है कि चीन-अमेरिका टकराव क्या करे।

अर्थव्यवस्था में बहाली के संकेत दिखने लगे हैं। लगातार दो तिमाहियों में उत्पादन क्षेत्र में इजाफा दिख रहा है और महामारी की वजह से फिर कोई तगड़ा झटका नहीं लगा तो सरकारी अनुमानों के मुताबिक अगले साल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 9-10 फीसदी की दर से बढ़ सकता है। हालांकि कई अर्थशास्त्री इन आंकड़ों पर संदेह जाहिर करते हैं और कुछ दूसरे कहते हैं कि सरकारी अनुमानों को मान लिया जाए तब भी 2020 से पहले की वृद्धि दर हासिल करने में ही अर्थव्यवस्था को कई वर्ष लग सकते हैं। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे ही सही, खस्ताहाली से बाहर निकलती है तो लोगों की स्थिति सुधरने की उम्मीद लगाई जा सकती है। अर्थव्यवस्था में सुधार से सरकारी राजस्व में भी वृद्धि होगी, जीएसटी संग्रह में इजाफा हो सकता है। लिहाजा, पेट्रोल-डीजल पर ज्यादा शुल्क वसूली की सरकारी निर्भरता घट सकती है। पेट्रोल-डीजल के दाम में लगातार बढ़ोतरी (हाल में चुनावों के मद्देनजर जरूर केंद्र और राज्यों ने अपने शुल्क घटा लिए हैं) का ही एक नतीजा बेलगाम महंगाई है, जो लोगों की कमर तोड़ रही है।

उम्मीदें पिछले साल की कुछ कड़ियों को जोड़ने से भी बंधती हैं। मसलन, लगभग 15 महीने चले किसान आंदोलन के बाद सरकार को तीन विवादास्पद कृषि कानून वापस लेने पड़े। उद्योग जगत और बड़े कारोबारी हलकों में भारी हिमायत के बावजूद क्रिप्टो करेंसी पर पाबंदी लगाने का विधेयक तैयार हुआ, पर पेश नहीं किया जा सका। यह संकेत है कि नीतियों के मामले में सरकार में कुछ पुनर्विचार चल रहा है। सूत्रों की मानें तो संकेत ये भी हैं कि इस साल बजट कुछ अलग तरह की नीतियों का संकेत दे सकता है। कयास दोनों तरह के हैं।

एक, सरकार अपने आर्थिक सुधार के एजेंडे की रफ्तार घटा सकती है। निजीकरण और सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश कार्यक्रम में भी कुछ सुस्ती आ सकती है। सरकार का सारा ध्यान महंगाई रोकने और रोजगार बढ़ाने पर लग सकता है। जन कल्याण के कार्यक्रमों में इजाफा हो सकता है। इसकी सियासी वजह तो हो ही सकती है क्योंकि इस साल से लेकर 2023 के अंत तक ऐसे राज्यों में चुनाव होने हैं, जहां से भाजपा के दो-तिहाई से ज्यादा सांसद चुनकर आते हैं और अधिकांश राज्यों में उसकी सत्ता भी है। भाजपा न राज्यों में सत्ता गंवाना झेल सकती है, न मोदी मैजिक को कमजोर होते देख सकती है। राज्यों में सत्ता गंवाने से राज्यसभा में उसकी संख्या घट सकती है और मोदी मैजिक घटने से 2024 में लोकसभा में फर्क दिख सकता है। इसलिए आर्थिक सुधारों के लिए हनीमून पीरियड अब समाप्त हो गया है।

हालांकि दूसरे कयास ये भी हैं कि आर्थिक सुधारों की दिशा में सरकार आगे तो बढ़ेगी, मगर सभी सार्वजनिक पैमानों का ख्याल रखेगी। जो भी हो, कारोना की तीसरी लहर अगर भारी तबाही नहीं मचाती है, तो संभावना यही है कि हालात में परिवर्तन तेजी से होगा। देश के सियासी हालात में परिवर्तन अगले दो-तीन महीनों में होने वाले पांच विधानसभा चुनावों से भी होना तय है। पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के चुनाव खास हैं क्योंकि इससे न सिर्फ समूचे हिंदी प्रदेशों की फिजा बदल सकती है, बल्कि केंद्र की सियासत और नीतियों में भी फर्क आ सकता है। अगर भाजपा इन चुनावों में ठीक-ठाक हालत में जीत जाती है तो केंद्र की सियासत अपने रंग और रफ्तार में आगे बढ़ती चल सकती है, यानी वह विपक्ष की परवाह किए बिना अपने एजेंडे पूरे कर सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो रंग-ढंग दोनों में बदलाव आ सकता है। ऐसे में महंगाई और बेरोजगारी पर काबू पाने के उपक्रम आगे बढ़ सकते हैं और कल्याण कार्यक्रमों पर जोर बढ़ सकता है।

जाहिर है, भाजपा अगर इन चुनावों में कमतर प्रदर्शन करती है तो उसका सीधा असर विपक्ष की खेमेबंदी पर पड़ सकता है। इधर, कई अहम प्रदेशों, खासकर पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की जीत ने विपक्ष में जान फूंक दी थी। अलबत्ता, अपने ही विरोधाभासों में उलझकर विपक्ष चुनौती देता नहीं लग रहा है। लेकिन आसन्न चुनावों के नतीजे ये स्थितियां दोनों हालत में बदल सकते हैं। अगर भाजपा हारती है या थोड़े-बहुत अंतर से जीतती है तो यह संदेश जाएगा कि अजेय भाजपा चुनावी मशीन को उन राज्यों में हराना मुश्किल नहीं है, जहां उसका जनाधार मजबूत होता गया है। इससे मोदी मैजिक पर भी गंभीर सवाल उठ सकते हैं। ऐसे में सुप्तप्राय विपक्ष के डैने फड़कने लग सकते हैं। उसमें एका की संभावनाओं पर नए सिरे से विचार उठ सकता है। इसकी वजह यह भी है कि हाल में ममता बनर्जी की बंगाल के बाहर पैर फैलाने की कोशिशों की सीमा दिखने लगी है। राकांपा के शरद पवार भी केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस की उपयोगिता पर बल देने लगे हैं। ऐसी स्थिति का असर दक्षिण के क्षत्रपों तेलंगाना के के.चंद्रशेखर राव और जगनमोहन रेड्डी पर भी पड़ सकता है। इनकी पार्टियां या ओडिशा में बीजद केंद्र में भाजपा को समर्थन देने के लिए शर्तें कड़ी कर सकते हैं।

लेकिन ये चुनावी नतीजे अगर भाजपा के पक्ष गए, जिसकी संभावना कम तो कतई नहीं लगती है, तो यह सारा गणित उलट-पुलट सकता है। इससे 'हारे को हरि नाम' की तर्ज पर विपक्ष एकजुट तो हो सकता है मगर उसमें वह दमखम नहीं होगा, जो विपरीत स्थिति में होता। इसका असर यह होगा कि भाजपा और केंद्र सरकार को अपनी रफ्तार से आगे बढ़ने के लिए और संजीवनी मिल जाएगी। इसका असर उसके सामाजिक एजेंडे पर भी और जोरदार ढंग से दिख सकता है, खासकर हिंदुत्व के एजेंडे पर। यह भी गौर करना जरूरी है कि 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन के सौ बरस पूरे हो रहे हैं, इसलिए भाजपा और संघ परिवार किसी भी मायने में अपनी राजनैतिक सत्ता को कम होते नहीं देखना चाहेंगे। इन तमाम वजहों से यह वर्ष और आने वाले वर्ष देश की सियासत और अर्थव्यवस्था के लिहाज से अहम होंगे।

इसके अलावा देश के सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से जुड़े अनेक सवाल हैं, जिनका जिक्र आप आगे के पन्नों में देखेंगे। क्या ई-लर्निंग और ई-कॉमर्स का व्यापार तेजी से बढ़ेगा या कोरोना संक्रमण का खतरा घटते ही इसमें गिरावट आ जाएगी? क्या देश के अमीरों में अंबानी घाराने को अडाणी घराना पीछे छोड़ सकता है? क्या यूनिकॉर्न का बाजार और इजाफा लेगा या यह एक और बुलबुला साबित होगा? फिल्म जगत का नजारा क्या होगा? खेल में क्या बदलाव आएंगे? लेकिन सबसे बढ़कर यह कि सामाजिक सौहार्द और ताने-बाने में कैसा फर्क दिखेगा? क्या नफरती बोल और आयोजन देश में जड़ जमाने में कामयाब हो जाएंगे? गौरतलब है कि पिछले वर्षों में नेहरू और नेहरूवाद निशाने पर था लेकिन अब गांधी को अपशब्द तक कहने की हिम्मत दिखने लगी है, जो भारी चिंता का सबब है क्योंकि हमारा सामाजिक सौहार्द और गांधी की अहमियत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यही नहीं, सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने की खातिर पहले ‘सुल्ली डील्स’ और अब ‘बुल्ली बाई’ ऐप पर वर्ग विशेष की महिलाओं को बदनाम करने की घिनौनी हरकतें भी चल पड़ी हैं।

लब्बोलुआब यह है कि यह वर्ष अपने गर्भ में अनेक संभावनाएं लिए हुए है तो आशंकाओं और दुश्चिंताओं के तत्व भी प्रचुर मात्रा में हैं। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि आशंकाओं पर विजय पाकर संभावनाओं का सूरज इस वर्ष अपने पूरे सबाब में चमके।

क्या भाजपा चुनौतियों से पार पा लेगी?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह

केंद्र और 18 राज्यों में अकेले या सहयोगी दलों के साथ सत्तारूढ़, भारतीय जनता पार्टी के लिए 2022 बड़ी चुनौती का साल साबित हो सकता है। इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव बताएंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ कैसा है। महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे तो हैं ही, एक साल से ज्यादा चले किसान आंदोलन के बाद तीन कृषि कानून वापस लिए जाने से यह संदेश भी गया है कि आंदोलन की राह सही हो तो सरकार को झुकाया जा सकता है।

इस साल शुरू में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने हैं। नवंबर और दिसंबर में हिमाचल प्रदेश और गुजरात की विधानसभा का कार्यकाल खत्म होगा। वैसे तो 2021 में भी पांच राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में चुनाव हुए। इनमें से असम में तो भाजपा वापसी करने में सफल रही लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अपने आप को अधिक मजबूत किया। हालांकि वहां भाजपा भी अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रही। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भाजपा की मौजूदगी पहले ही कम थी, इसलिए वहां पार्टी को अधिक उम्मीद भी नहीं थी।

लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव इस लिहाज से अलग होंगे कि इस साल जिन सात राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से छह राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकारें हैं। अगर भाजपा इन राज्यों में फिर सरकार बनाने में कामयाब हुई तो 2024 के आम चुनाव में उसके लिए राह असान हो सकती है।

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में साल की शुरुआत में ही चुनाव होने हैं और चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहे। उत्तर प्रदेश में 2017 में पार्टी को 39.7 फीसदी वोटों के साथ 77 फीसदी सीटें (304) मिली थीं। लेकिन उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में जिस तरह से प्रधानमंत्री की ताबड़तोड़ सभाएं की जा रही हैं, उससे भी पार्टी की बेचैनी झलकती है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी लगातार सभाएं कर रहे हैं। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री की 50 से अधिक सभाएं चुनाव के दौरान प्रस्तावित हैं। इससे पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश और पंजाब के नतीजों से यह भी पता चलेगा कि किसान आंदोलन से चर्चा में आए किसान नेताओं का आगे का रूप क्या होगा। पंजाब में कुछ किसान संगठनों के चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद पंचकोणीय मुकाबले की तस्वीर बन गई है। भाजपा यहां पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और पुराने अकाली नेताओं के साथ गठबंधन के बाद अपनी मौजूदगी बढ़ाने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसकी समस्या यह है कि कृषि कानूनों के खिलाफ सबसे ज्यादा पंजाब के लोग ही मुखर थे। गुजरात और उत्तराखंड में पार्टी ने सरकार विरोधी माहौल बदलने के लिए मुख्यमंत्री बदले हैं, देखना है कि जनता ने इस बदलाव को स्वीकार किया है या नहीं।

2024 में मोदी और भाजपा का भविष्य काफी हद तक 2022 के नतीजों पर निर्भर करेगा, इसलिए सरकार और विपक्ष के बीच 2021 में संसद के भीतर और बाहर जो कड़वाहट थी, वह 2022 में भी बने रहने के आसार हैं। इसकी एक झलक हाल ही खत्म हुए शीत सत्र में मिल चुकी है।

हिंदुत्ववादी संगठन भी सक्रियता बढ़ा रहे हैं। पिछले दिनों पहले हरिद्वार और फिर रायपुर में धर्म संसद और संत समाज के नाम पर लोगों ने जिस तरह की वाणी का प्रयोग किया, पार्टी के लिए उसका बचाव करना मुश्किल हो गया। हिंदुत्ववादी संगठनों के निशाने पर सिर्फ मुसलमान नहीं बल्कि ईसाई भी हैं। क्रिसमस के मौके पर अनेक जगहों पर प्रार्थना सभाएं रोकी गईं और ईसा मसीह की मूर्ति भी तोड़ी गई। 25 फीसदी ईसाई आबादी वाले गोवा में इसका असर दिख सकता है। चुनावों से पहले ध्रुवीकरण कोई नई बात नहीं, लेकिन देखना है कि यह पुराना आजमाया दांव अब भी कारगर है या नहीं।

क्या कांग्रेस विपक्ष की केंद्रीय भूमिका में आ पाएगी?

राहुल औ सोनिया गांधी

कांग्रेस के खिलाफ पिछले दिनों ममता की खेमेबंदी का एक बड़ा असर यह हुआ कि कांग्रेस में सक्रियता बढ़ गई। विपक्ष को साथ रखने की पहल करते हुए कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने 14 दिसंबर को कई दलों के नेताओं के साथ बैठक की। हालांकि तृणमूल और आम आदमी पार्टी के नेताओं को आमंत्रित नहीं किया गया था। सोनिया जिनसे मिलीं उनमें एनसीपी के शरद पवार के अलावा माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, डीएमके नेता टी.आर. बालू, शिवसेना के संजय राउत और नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला भी शामिल थे।

कांग्रेस इस समय अंदरुनी समस्या से ज्यादा ग्रसित दिख रही है। अध्यक्ष सोनिया बीमार रहती हैं और संगठन को पहले जितना समय नहीं दे पाती हैं। वास्तव में प्रियंका और राहुल गांधी ही फैसले ले रहे हैं। पार्टी के अनेक पुराने नेता उनकी कार्यशैली से असहमत बताए जाते हैं। इस साल पार्टी में संगठन चुनाव होंगे और सितंबर तक नया अध्यक्ष चुना जाएगा। संभव है कि सितंबर में राहुल गांधी फिर अध्यक्ष बनाए जाएं, जब पार्टी कार्यकारिणी के ऐलान के मुताबिक नए अध्यक्ष का चुनाव होना है। 2019 के आम चुनाव के बाद जब उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, तब नाम लिए बगैर कई पुराने नेताओं के प्रति अपनी नाराजगी जताई थी। उनके इस्तीफा देने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि वे पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण चाहते थे।

2003 में पार्टी 15 राज्यों में सत्ता में थी लेकिन अब सिर्फ तीन राज्यों में उसकी सरकार रह गई है। तीन अन्य राज्यों में वह सत्तारूढ़ गठबंधन में है। वैसे, इसे गठबंधन सरकारों का दौर भी कहा जा सकता है। भाजपा जिन 18 राज्यों में सत्ता में है, उनमें से 11 में उसकी गठबंधन की सरकारें हैं।

2019 के आम चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार खराब रहा है। पिछले साल केरल में एलडीएफ लगातार दूसरी बार सत्ता में आया, जबकि इससे पहले अभी तक एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूडीएफ बारी-बारी से सत्ता में आता रहा है। असम में उसे हार का सामना करना पड़ा तो बंगाल में वह और सिमट गई। 2022 के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन कितनी आसानी से होता है।

गोवा और उत्तराखंड में उसकी भाजपा के साथ सीधी टक्कर है। हालांकि गोवा में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के कुछ नेताओं को तोड़ा है, लेकिन इसका चुनाव के नतीजों पर कितना असर होगा यह देखने वाली बात होगी। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बता रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस की वापसी हो सकती है। हालांकि वहां भी दिनोदिन मुकाबला कड़ा होता जा रहा है। वहां अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद भी पार्टी में गुटबाजी चलती रही। प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की राह में रोड़ा अटकाने का कोई मौका जाने नहीं दे रहे हैं।

क्या विपक्ष एकजुट हो सकेगा?

विपक्ष की एकता पर संदेह

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के प्रमुख शरद पवार ने पिछले दिनों पुणे में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा, ‘‘आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को चुनौती देने वाला कोई नेता नहीं था। लेकिन विभिन्न पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा... आज देश में वही स्थिति है। विभिन्न पार्टियों को साथ आकर मोर्चा बनाने की जरूरत है।’’ देश के सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक और ‘आधुनिक चाणक्य’ को मात देने वाले पवार का यह बयान गैर-भाजपा दलों के लिए सूत्र वाक्य हो सकता है। गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने की कई कोशिशें 2021 में हुईं, लेकिन हर बार कहीं न कहीं दरार भी नजर आई।

बीते साल का सबसे महत्वपूर्ण क्षण निश्चित रूप से पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत था, जिन्होंने भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ लड़ते हुए पहले से भी अधिक बड़ी फतह हासिल की। लेकिन उसके बाद ममता अपने लिए राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका तलाश रही हैं। उनकी तृणमूल कांग्रेस पहली बार गोवा में चुनाव लड़ेगी। ममता, कांग्रेस की जगह विपक्षी दलों की धुरी बनना चाहती हैं। शायद इसलिए भी तृणमूल को राष्ट्रीय चेहरा देने की कोशिश की जा रही है। हालांकि शिवसेना, द्रमुक और राकांपा की तरफ से कांग्रेस को अलग रख कर विपक्षी एकता की संभावना से इनकार करने के बाद ममता ने अपनी चाल धीमी की है।

राकांपा ने 12 दिसंबर को पार्टी प्रमुख शरद पवार के 81वें जन्मदिन के मौके पर उन्हें 2024 के चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की बात कही। पार्टी के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल ने कहा, ‘‘पवार में अन्य राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलने की क्षमता है। उन्होंने महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी को साथ लेकर चलने का जो चमत्कार किया है वही चमत्कार उन्हें 2024 में दिल्ली में दिखाना चाहिए।’’

राकांपा नेताओं के इस बयान से चंद रोज पहले ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मुंबई में पवार और पार्टी के कई नेताओं से मिली थीं। तृणमूल कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में ममता को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करना चाहती है। विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या यह जान पड़ती है कि मोर्चे का अगुवा कौन होगा, क्योंकि वही प्रधानमंत्री का चेहरा भी होगा। ऐसे में गैर-भाजपा दलों को पुणे के कार्यक्रम में पवार की कही यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ‘‘चुनाव के समय मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं थे।’’ तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने भी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम.के. स्टालिन से मुलाकात की। कहा जा रहा है कि इसके पीछे भी भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की पहल है। अभी तक तो विपक्षी एकजुटता मुश्किल लग रही है।

क्या खत्म होगा कोरोनावायरस?

कोरोना वायरस

साल 2022 में हमारा प्रवेश काफी बेचैनी भरा रहा है। एक तरफ कोरोनावायरस अभूतपूर्व गति से फैल रहा है तो दूसरी तरफ वैज्ञानिक यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस साल यह वायरस खत्म हो जाएगा या मामूली फ्लू वायरस बनकर रह जाएगा। इस साल वायरस भले खत्म न हो, पर यह उम्मीद जरूर बंधने लगी है कि इसका असर इतना नहीं रह जाएगा कि हमारा जीवन प्रभावित कर सके।

इस समय भारत में इसकी तीसरी तो कुछ देशों में चौथी और पांचवीं लहर दस्तक दे रही है। वायरस का नया वेरिएंट ओमीक्रोन पिछले सभी वेरिएंट के मुकाबले ज्यादा तेजी से फैल रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार 22 से 28 दिसंबर के दौरान दुनियाभर में एक हफ्ते में रिकॉर्ड 65 लाख लोग संक्रमित हुए। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों में रोजाना नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। डब्ल्यूएचओ ने इसे ‘संक्रमण की सुनामी’ बताया। भारत में भी स्थिति अलग नहीं है। कुछ राज्यों में एक ही दिन में संक्रमित लोगों की संख्या दोगुनी हो रही है।

सालभर पहले कोरोना संक्रमण घटने के साथ लोगों की दिनचर्या धीरे-धीरे सामान्य की तरफ लौट रही थी। उसके बाद मार्च-अप्रैल आते-आते डेल्टा वेरिएंट ने मौत का न भुलाने वाला तांडव शुरू किया। लेकिन तब और अब में बड़ा फर्क है। आज वायरस से लड़ने के लिए कई वैक्सीन हैं। भारत में 5 जनवरी 2022 तक 148 करोड़ डोज से ज्यादा वैक्सीन लगाई जा चुकी थी। इनमें लगभग 62 करोड़ डबल डोज हैं। दूसरा फर्क यह है कि ओमीक्रोन वेरिएंट डेल्टा की तरह घातक नहीं है, भले ही वैक्सीन लगाने वाले और पहले संक्रमित हो चुके लोग दोबारा संक्रमित हो रहे हों।

कुछ डॉक्टर ओमीक्रोन को प्राकृतिक वैक्सीन भी बता रहे हैं। उनका कहना है कि यह वेरिएंट ज्यादा तेजी से फैल रहा है। घातक न होने की वजह से ज्यादा लोगों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो जाएगी। अतीत में आई फ्लू महामारी को देखें तो रूस में 1819 में आई फ्लू बीमारी तीन साल रही थी। उसकी तीन लहरें आई थीं और दूसरी लहर सबसे ज्यादा खतरनाक थी। 1918-20 के दौरान स्पैनिश फ्लू की तीन बड़ी लहर आई थी और उनमें भी दूसरी लहर ज्यादा बड़ी थी।

आम तौर पर वायरस पूरी तरह खत्म नहीं होते, उनका रूप बदलता रहता है। जीव अपने शरीर में संक्रमण या वैक्सीन के जरिए प्रतिरोधी क्षमता विकसित करते हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक कोविड-19 की गंभीर स्थिति 2022 में खत्म हो जाएगी, लेकिन कोरोनावायरस खत्म नहीं होगा। अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शस डिजीज के डायरेक्टर डॉ. एंथनी फॉची के अनुसार, “महामारी का पहला चरण उसका विकराल रूप होता है, धीरे-धीरे उस पर नियंत्रण का चरण आता है। अंत में उसके उन्मूलन का चरण भी संभव है।”

लेकिन अभी कई चुनौतियां बनी हुई हैं। डब्ल्यूएचओ महानिदेशक टेड्रोस अधनोम ने चेतावनी दी है कि जब तक असमानता बनी रहेगी, तब तक महामारी भी रहेगी। उनका आशय वैक्सीन के असमान वितरण से है। अमेरिका में 62 फीसदी नागरिकों को वैक्सीन की दो डोज लग चुकी है। वहां और यूरोप में तीसरा बूस्टर डोज लगाया जा रहा है, लेकिन अफ्रीका में तीन-चौथाई स्वास्थ्यकर्मियों को अभी तक एक भी वैक्सीन नहीं लग पाई है। इससे नए वेरिएंट के पनपने का खतरा बना हुआ है।

अच्छी बात यह है कि वैक्सीन सामान्य की तुलना में ज्यादा प्रभावी साबित हो रही हैं, लेकिन बुरी खबर यह भी है कि यह वायरस तेजी से बदलता है। फॉची के अनुसार, “कोविड-19 पूरी तरह खत्म न हुआ तो भी यह हमारे जीवन को प्रभावित नहीं करेगा। लेकिन इसके लिए पूरी दुनिया के लोगों को जल्दी वैक्सीन लगाने की जरूरत है।” वायरस को पूरी तरह काबू में करने के लिए कम से कम 90 फीसदी लोगों में इम्युनिटी जरूरी है। अमेरिका में 95 फीसदी लोगों में इम्युनिटी के बाद ही मीजल्स वायरस को नियंत्रित किया जा सका था। ओमीक्रोन वेरिएंट भले हल्का हो, लेकिन अभी कोरोनावायरस को हल्के में लेने का समय नहीं आया है क्योंकि यह अब तक पूरी दुनिया में 28 करोड़ से अधिक लोगों को संक्रमित और 54 लाख से अधिक की जान ले चुका है।

100 दिनों में बनेगी वैक्सीन

कोविड-19 वैक्सीन अब तक सबसे कम समय में तैयार की गई वैक्सीन हैं। आगे इससे भी कम समय में वैक्सीन बनने का रास्ता तैयार हुआ है। वैज्ञानिक 100 दिनों में ‘लैब टू जैब’ टाइमलाइन पर काम कर रहे हैं। आगे चलकर जीनोम सीक्वेंसिंग के बाद एक हफ्ते में वैक्सीन तैयार की जा सकती है और 30 दिनों में उसे दुनिया भर में उपलब्ध कराया जा सकता है। ऐसी वैक्सीन भी आ सकती है जो एक साथ कई वायरस को निष्प्रभावी करे।

कितना बढ़ेगा ड्रैगन का प्रभुत्व?

ड्रैगन का प्रभुत्व

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने वहां की संसद में पारित ‘उइगुर बंधुआ मजदूर विरोधी विधेयक’ पर 23 दिसंबर को दस्तखत करके उसे कानूनी रूप दे दिया। इससे चीन के जिनजियांग से कपास, टमाटर और सोलर पैनल में इस्तेमाल होने वाले पॉलीसिलिकॉन के आयात पर प्रतिबंध लग गया है। अमेरिका का कहना है कि चीन ने जिनजियांग में उइगुर मुसलमानों के लिए यातना शिविर बना रखे हैं, जिनसे बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। एक-दूसरे को पछाड़ने में लगे अमेरिका और चीन के बीच तनाव का यह नया उदाहरण है।

पिछले दिनों अमेरिकी पत्रिका द नेशनल इंटरेस्ट में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसके अनुसार, “अमेरिका की जगह चीन नया सुपर पावर बनना चाहता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और उसके मित्र देशों ने जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम की है, वह उसे भी तोड़ना चाहता है।” राष्ट्रपति बनने के बाद बाइडेन ने कहा था कि वे चीन को दुनिया का अग्रणी देश नहीं बनने देंगे।

आइएमएफ के अनुसार 2020 में चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी 10,582 डॉलर थी जबकि अमेरिका की 63,051 डॉलर। यानी छह गुना ज्यादा। इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के मुख्य अर्थशास्त्री साइमन बैपटिस्ट के मुताबिक चीन को अमेरिका के बराबर प्रति व्यक्ति जीडीपी स्तर तक पहुंचने में कम से कम 50 साल लगेंगे। अमेरिका की जीडीपी 22.6 लाख करोड़ डॉलर और चीन की 15.6 लाख करोड़ डॉलर की है। कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि 2030 से 2035 के बीच चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका से बड़ी हो सकती है। कोविड-19 महामारी के चलते चीन अपेक्षाकृत जल्दी अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। 2020 में अमेरिका की अर्थव्यवस्था 3.5 फीसदी घट गई थी लेकिन चीन में 2.3 फीसदी की वृद्धि हुई थी। बिलेनियर के मामले में भी चीन, अमेरिका के बहुत करीब है। फोर्ब्स की 2021 की सूची के अनुसार दुनिया में 2,755 अरबपति हैं, इनमें सबसे ज्यादा 724 अमेरिका में और उसके बाद 698 चीन में हैं।

चीन हाल के वर्षों में घरेलू खपत बढ़ाने पर अधिक ध्यान देने लगा है। उसने 2015 में ‘मेड इन चाइना 2025’ अभियान लांच किया था जिसका मकसद घरेलू सामान ज्यादा खरीदना और देश में ही ज्यादा से ज्यादा टेक्नोलॉजी विकसित करना था। इस तरह चीन ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि अन्य देशों पर भी निर्भरता कम की है। साल 2010 से पहले चीन की जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 35 फीसदी से अधिक था जो अब 20 फीसदी से भी कम रह गया है। चीन की रणनीति को देखते हुए पहले ट्रंप और फिर बाइडेन के शासनकाल में अमेरिका ने तथा यूरोप के अनेक देशों ने चीन से आयात कम करके उसके प्रतिस्पर्धी देशों जैसे मेक्सिको, वियतनाम, थाइलैंड से आयात बढ़ाया है।

द नेशनल इंटरेस्ट की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चीन अपनी ताकत बढ़ाने के लिए जासूसी का इस्तेमाल कर रहा है। इस जासूसी से अमेरिका को हर साल 200 से 600 अरब डॉलर की बौद्धिक संपदा का नुकसान होता है। रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका से आगे निकलने के लिए चीन को लगातार आर्थिक तरक्की के साथ टेक्नॉलॉजी में भी अमेरिका को पीछे छोड़ना पड़ेगा, लेकिन चीन खुद नवाचार करने के बजाए प्रौद्योगिकी की चोरी या नकल को तवज्जो देता है।

इन सबके बावजूद ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं कि चीन मौजूदा दशक में ही विश्व स्तर पर बहुत बड़ी शक्ति बन जाएगा और एशिया में अमेरिका के लिए दखल देना आसान नहीं होगा। अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता में एशिया नया ‘युद्ध क्षेत्र’ बनकर उभरा है। जब ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका एशिया में पांव समेट रहा था, तब चीन अपना विस्तार कर रहा था। लेकिन बाइडेन ने कई एशियाई विशेषज्ञों को अपनी प्रशासनिक टीम में शामिल किया है। ऐसे में दोनों देशों के बीच तनाव और बढ़ने के आसार हैं।

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