"तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था"
मजाज़ की ये नज्म हमने उस दौर में पढ़ी थी जब पहली बार उर्दू नज़्मों से वास्ता पड़ रहा था। नहीं जानती थी ये नज़्म मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन जायेगा। इन 50 सालों में जिन्दगी ने कितने आँचल को परचम बनते देखा।
शायद मानवता के इतिहास में पहला सुंदर क्षण रहा होगा जब अन्याय, शोषण, गैरबराबरी के खिलाफ औरतों ने अपने आंचल को परचम में बदला। सड़कों से मेरी दोस्ती पत्रकारिता के दिनों से थी। ये दोस्ती और गाढ़ी होती गयी, जब अन्याय के खिलाफ चल रहे आंदोलन में मैं हिस्सा बनने लगी। ये अचानक नहीं हुआ।
मेरी राजनीतिक विचारधारा ने मुझे दुनिया में गैरबराबरी के खिलाफ खड़ा होना सिखाया। कम्युनिस्ट पार्टी से मेरी निकटता ने मुझे वर्ग विभाजन और फ़िकापरस्ती की जानकारी और समझ दी। मुझे समझ में आया सत्ता कभी वंचित और कमज़ोर लोगों के साथ खड़ी नहीं होती। मुझे ये मालूम हुआ बिना जद्दोजेहद के वंचित तबके अपना हक़ नहीं पा सकते।
बिहार आंदोलनों की धरती रही है। यहां से उठी आंधी ने देश की सत्ता को उखाड़ फेंका है। बिहार में आंदोलनों का लंबा इतिहास है। हालाँकि, यहाँ मैं उन आंदोलनों का ही जिक्र करना चाहती हूं जो औरतों ने लड़ी। मेरा उनसे रिश्ता सिर्फ़ ज़हनी नहीं रहा बल्कि जज़बाती रहा है। मैंने उन औरतों को संघर्ष करते देखा है। उनकी कमज़ोर माने जाने वाली आवाज़ को अंगारे में बदलते देखा है।
मुज़फ़्फ़रपुर शेल्टर होम कांड की लड़ाई इसी सड़क पर लड़ी गई। यह कांड बिहार के लिए बदनुमा दाग है। अनाथ और बेसहारा लड़कियों को अमानवीय यातनाओं से गुजरना पड़ा। उन्हें देह व्यापार में धकेल दिया गया। विरोध करने वाली बच्चियों को वहीं मार कर दफ़ना दिया गया। इन सबके ख़िलाफ़ महिलाएं आग बरसाते सूरज की परवाह न करते हुए चिलचिलाती धूप में सड़कों पर निकल पड़ीं। कई घंटे तक राजधानी का चक्का जाम कर दिया।
सड़क की लड़ाई हम साथ मिलकर लड़ रहे थे। क़ानून की लड़ाई मैंने लड़ने की ठानी। जानती थी ये आसान नहीं होगा पर हम लड़े और जीते। मैंने उच्चतम न्यायलय में सरकार और सीबीआई के खिलाफ मामला दायर किया। फ़ैसला हमारे हक़ में हुआ। ये हमारे आंदोलन की जीत थी।
ये न्याय की पहली सीढ़ी है। अभी और कितनी बच्चियां न्याय के इंतजार में है। मैं जानती हूं कोई आंदोलन ज़ाया नहीं होता।
आज एक साल से किसान आंदोलन कर रहे थे। आखिर सरकार को झुकना पड़ा। मैंने उस आंदोलन को नज़दीक से देखा है। मैंने किसान औरतों को देखा। मेरे ज़हन में उनकी तस्वीरें बसी हैं। मुझे याद हैं वे दिन जब उनके बीच थी।
पौ फटने पर हवा के हल्के झोंके खाली सड़कों पर पंखा झल रहे थे। कहीं किसी पेड़ की परछाई तक नहीं थीं। मोटर और गाड़ियों का शोर काफी पहले से थम गया था। धूल की परत सूरज के सुनहरे आलोक से छनकर उन सड़कों पर छा गई थी, जहां औरतों और मर्दों की भारी भीड़ थी।
कहीं धीमी तो कहीं तेज़ आवाज और असंख्य जूतों की चाप से ये पता लगाना आसान नहीं था कि सिंघु बॉर्डर पर कुल कितने किसान जमा हैं। महिलाओं और बच्चों का हुज़ूम। हर उम्र की औरतें। तख्तियां , पोस्टर, किताबें लिए ये औरतें ज़िन्दगी के लिए लड रही थीं। बड़े से शामियाने में हजारों की तादाद में औरतें जमा थीं। मैं देख रही थी उन औरतों को जो अपना घर-बार छोड़कर सड़कों पर डटी थीं। वह थका देने वाला समय था। ठंडी और तेज़ हवा से बचने के लिए पुआल डालकर जगह-जगह तंबू बने थे जो इन औरतों का घर बन गया था।
मैं मिली हरजीत कौर से। चेहरे पर पड़ी झुर्रियां जैसे बीते समय का गवाह हो। अम्मा, आप कितने साल की हैं? वे बेालीं, पता नहीं बिटिया। कमबख्त जिन्दगी की इतिहास में कोई जगह नहीं है। जिस साल देश आजाद हुआ मैं दस साल की थी। तुम जोड़ कर पता कर लो मैं कितने साल की हूं। यहां क्यों आई हैं अम्मा? उनकी आंखें चमकती है। मेरा पोता यहां आ रहा था। हमने कहा, मुझे भी ले चलो। अपने खेत को हमें भी बचाना है। सरकार को बेचने नहीं देंगे देश।
अम्मा, सुप्रीम कोर्ट कहती है कि इस आंदोलन से बच्चों और बुजुर्गो को अलग करना है। वे पलट कर पूछती हैं, ये कौन हैं, हमें नसीहत देने वाले। हम तो यहीं रहेंगे, अगर किसान विरोधी बिल वापस नहीं हुआ तो यही मर जाएंगे बिटिया, लेकिन वापस नहीं जाएंगे। मैं उनकी लरजती आवाज सुन रही थी और सोच रही थी कि आजादी का ये एक और आंदोलन है।
अम्मा की उम्र की कई औरतें इस कड़ाके की ठंड में अपने हक़ के लिए लड़ रही थीं। मैं हैरान हूं। यही तो हैं असली किसान महिलाएं जिनके हाथों में देश की रोटी सुरक्षित है। शाम ढलने लगी, आसमान में तैरते उजाले अब खो गए हैं। पल-पल बढ़ती हुई तेज़ हवा ने भी इस उम्र में संघर्ष कर रही औरतों को सलाम किया। कई जोड़े हाथ हवा में लहराए - मुट्ठियां तनी - लड़ेंगे - जीतेंगे। दूर ढोलक की थाप पर गाने की आवाज आ रही है.... मैं स्वर लहरियों में डूब रही हूं।
हुण मैं अनहद नाद बजाया,
तैं क्यों अपणा आप छुपाया,
नाल महिबूब सिर दी बाज़ी,
जिसने कुल तबक लौ साजी,
मन मेरे विच्च जोत बिराजी,
आपे ज़ाहिर हाल विखाया।
हुण मैं अनहद नाद बजाया।
मैं खो गई हूं। गीत कानों में रह - रह कर बजते हैं। जानती हूं ये आंदोलन यों ही खत्म नहीं होगा। ये छोटे-छोटे पड़ाव हैं। पहले कभी आंदोलन करने वाली महिलाओं पर एफआईआर नहीं हुई। पहली बार बिहार में आंदोलन करने के जुर्म में प्राथमिकी दर्ज की गई। महिलाओं पर लाठियां चलीं।
ये औरतें जब जाग जाती हैं तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता। किसी बंदूक की गोली में ताकत नहीं की उन्हें लड़ने से रोक दे। हजारों रंग लथेड़ने पर भी इनके रंग जैसा मसाला तैयार नहीं कर सकेगी कोई सरकार। उनमें शफ़क़ की सी सुर्खी फूटने लगती है और पूरी सड़क उनके रंगों से भर जाती है, जब आंचल का परचम लहराता है।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)