कहावत है, प्यार और जंग में सब जायज है। लेकिन ऐसा लगता है कि हमारी राजनैतिक पार्टियां ‘चुनाव जीतने के लिए सब जायज’ के मंत्र का जाप कर रही हैं। यही वजह है कि 1 फरवरी को वित्त मंत्री पीयूष गोयल के अंतरिम बजट में वह सब कुछ है जो वोट बटोरने में मदद कर सके। यही नहीं, इसका नाम भर अंतरिम है। है तो यह पूरा बजट या चाहें तो आप इसे पूरे बजट की झांकी समझ सकते हैं। इस बजट से उम्मीद यही है कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनैतिक रास्ता थोड़ा आसान कर दे क्योंकि उनकी छवि और कामकाज पर ही लोकसभा का चुनाव लड़ा जाना है और उनकी पूरी कोशिश है कि सत्ता में वापसी की जाए। यानी अपनी पार्टी के नारे ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ को साकार करने में वे कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। यह अचानक नहीं हुआ है। इसके पीछे विपक्ष का सरकार पर लगातार जारी प्रहार और हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा का पांच राज्यों में सत्ता में न आ पाना है। इनमें तीन राज्यों में भाजपा की सरकार थी। इसलिए अंतरिम बजट 2019 को पूरे राजनैतिक संदर्भ में देखने की जरूरत है। इस बजट से एक नई परंपरा भी शुरू हुई है और वह है अंतरिम बजट में योजनाओं की घोषणा और प्रत्यक्ष करों के नए प्रस्ताव पेश करने की।
असल में इस समय लोकसभा चुनावों को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच दांव खेलने का दौर जारी है। चुनाव अप्रैल-मई में होने हैं। मई में आई नई सरकार जुलाई में पूरा बजट पेश करेगी। इसे तो बजट भाषण में गोयल ने भी माना, मगर वे नई परंपरा शुरू करने से नहीं हिचके और प्रत्यक्ष करों से जुड़ा प्रस्ताव पेश कर दिया। उनका तर्क है कि अप्रैल से नया वित्त वर्ष शुरू हो जाएगा। ऐसे में करदाताओं में टैक्स प्लानिंग को लेकर कोई अनिश्चितता न रहे, इसलिए पांच लाख रुपये तक की कर योग्य आय पर रिबेट दी गई। हालांकि उन्होंने इस आय को करमुक्त नहीं किया है और न ही कर छूट की सीमा बढ़ाई है, कर दरों के स्लैब में भी कोई बदलाव नहीं किया, बल्कि आय से जुड़े कई प्रावधानों में बदलाव किए हैं। उन्हें इस कदम के जरिए मध्य वर्ग के करीब तीन करोड़ करदाताओं को छू लेने की उम्मीद है, जो देश में आय करदाताओं की तादाद का सबसे बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग को खुश करना इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों के चलते इसी वर्ग पर सबसे प्रतिकूल असर पड़ा है और बेरोजगारी की बिगड़ती स्थिति से भी यही शहरी मध्य वर्ग सरकार से नाराज है। जाहिर है, उसकी नाराजगी को कम करने के लिए यह दांव चला गया है।
असल में पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार पर लगातार हमले किए। बजट के कुछ दिन पहले ही छत्तीसगढ़ की एक रैली में उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो देश के हर गरीब को न्यूनतम आय की गारंटी दी जाएगी। इस तरह का विचार देश में करीब दो साल से चल रहा है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने आर्थिक सर्वे में यह विचार रखा था कि देश में यूनिवर्सल बेसिक इनकम लागू होनी चाहिए। यानी देश के हर नागरिक को हर माह सरकार कुछ पैसा दे। इससे गरीबी उन्मूलन हो सकेगा और आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी। उनके पहले ब्रिटिश अर्थशास्त्री गॉय स्टेंडिंग यह विचार रख चुके हैं और मध्य प्रदेश के कुछ गांवों में इसका एक पायलट प्रोजेक्ट भी चलाया गया था। बजट के पहले यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि सरकार ऐसा कुछ कर सकती है। लेकिन खजाने की स्थिति देखते हुए यह व्यावहारिक नहीं लग रहा था। फिर कांग्रेस ने देश में किसानों की कर्जमाफी को अपना एजेंडा बनाकर भी सरकार को दबाव में ला दिया। हाल में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को पछाड़कर कांग्रेस की सरकार बनी तो कर्जमाफी पर अमल शुरू कर दिया है। कांग्रेस समूचे देश में इस वादे पर अमल करने की बात कर रही है।
जाहिर है, राजनैतिक रूप से संवेदनशील ये दोनों मसले सरकार के लिए चुनौती बन रहे थे। इस चुनौती का जवाब बजट में दिया गया। गरीबों के लिए वित्त मंत्री ने नई पेंशन योजना की घोषणा की। इसके तहत 60 साल की आयु के बाद असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को तीन हजार रुपये प्रति माह पेंशन मिलेगी। इसमें करीब दस करोड़ मजदूरों को कवर करने का अनुमान है। फिर किसानों को सीधे आर्थिक सहायता देने का ऐलान किया गया। सरकार दो हेक्टेयर तक की भूमि वाले लघु और सीमांत किसानों को साल में 6,000 रुपये देगी। इसकी पहली किस्त के लिए चालू वित्त वर्ष में ही 20 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान कर दिया गया है ताकि किसानों को दो हजार रुपये की पहली किस्त मार्च के पहले यानी लोकसभा चुनावों के पहले मिल जाए। अनुमान है कि इस कदम का 12 करोड़ से ज्यादा किसानों को फायदा होगा। इस तरह से देखा जाए तो इन तीन प्रस्तावों के जरिए वित्त मंत्री ने करीब 25 करोड़ परिवारों को छूने की कोशिश की है, जो किसी भी राजनीतिक दल के लिए बाजी पलटने के लिए काफी है। लेकिन क्या इसका राजनैतिक फायदा वैसा ही मिलेगा जैसी उम्मीद है। यही लाख टके का सवाल है। हालांकि संसद में बजट भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेज थपथपाने का जो अंदाज था, वह संकेत देता है कि मतदाताओं को लुभाने के लिए जो ट्रेलर वे दिखाना चाहते थे, वह उनके हिसाब से खरा है।
सरकार की साढ़े चार साल से ज्यादा की अवधि में तमाम दावों के बावजूद बजट प्रावधानों में किसानों के संकट की स्वीकारोक्ति भी है। वरना राहत देने के लिए सीधे खाते में पैसे नहीं डालने पड़ते। इसी का जवाब पिछले दिनों ओडिशा ने कालिया योजना के जरिए और तेलंगाना ने रायतु बंधु योजना के जरिए देने की कोशिश की है। लेकिन इन दोनों राज्यों ने किसानों के खाते में केंद्र सरकार के प्रावधान से दोगुना पैसे डालने की व्यवस्था की है। ओडिशा ने तो भूमिहीन ग्रामीण आबादी को भी सीधे खाते में पैसा देने का प्रावधान किया है। इन दोनों उदाहरणों को देखते हुए केंद्र की किसानों को करीब 17 रुपये रोज की यह मदद जले पर नमक छिड़कने जैसी है। यही वजह है कि इन आलोचनाओं के बाद अमेरिका में इलाज करा रहे अरुण जेटली कह रहे हैं कि इस मदद को बढ़ाया भी जा सकता है।
अब सवाल उठता है कि सरकारी खर्च पर जो बोझ डाला गया है, उसका इंतजाम कहां से होगा। बजट में खर्च के नए प्रावधान या आयकर राहत के प्रावधान तो जोड़े गए हैं लेकिन राजस्व जुटाने के मोर्चे पर यह लगभग खामोश है। दिलचस्प बात है कि इसके बावजूद वित्त मंत्री ने चालू साल में राजकोषीय घाटे के 3.4 फीसदी पर रहने का अनुमान लगाया है और अगले वित्त वर्ष के लिए भी 3.4 फीसदी राजकोषीय घाटे का ही प्रावधान किया है। वैसे जीएसटी के संग्रह, प्रत्यक्ष कर संग्रह, विनिवेश और दूसरी प्राप्तियों के मद्देजनर राजकोषीय घाटे का लक्षित स्तर पर रहना संभव नहीं लगता है। लेकिन यह तो अगली सरकार देखेगी। फिलहाल तो चुनाव की चिंता करनी है।
लेकिन सबसे बड़ी चुनौती बेरोजगारी है। देश में 45 साल में सबसे ऊंची बेरोजगारी दर को बताने वाली 2017-18 की रिपोर्ट के लीक होने के बाद आया बजट इसी मुद्दे पर सबसे कमजोर है। कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग से लेकर निर्यात जैसे मोर्चों पर भी लगभग चुप्पी है। अर्थव्यवस्था को 2030 तक 30 खरब डॉलर तक पहुंचाने का ख्वाब तो है लेकिन कोई ठोस एजेंडा नहीं है।
अंतरिम बजट को आम बजट की तरह पेश करने के साथ ही चुनाव के लिए बजट बनाने की परंपरा बखूबी कायम की गई है। जाहिर है, अब हर पांच साल में एक चुनाव बजट भी हुआ करेगा, जो इस सरकार की तरह अंतरिम के नाम पर पांच साल में छठा बजट हो सकता है। वैसे जब जीडीपी और रोजगार समेत तमाम आंकड़ों को लेकर ही संदेह पैदा होने लगे हैं तो फिर राजकोषीय घाटे को लेकर ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि जीडीपी के नए आंकड़े प्रतिशत में इसे बजट प्रावधानों से भी कम साबित कर दें।