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कानून बनने के 6 साल बाद भी हॉकरों को कानूनी संरक्षण देने में अधिकांश राज्य नाकाम, सीसीएस का अध्ययन

लॉकडाउन के दौर में परेशान श्रमिकों के हितैषी बनकर नेताओं ने खूब राजनीति की, लेकिन इन मजदूरों में से...
कानून बनने के 6 साल बाद भी हॉकरों को कानूनी संरक्षण देने में अधिकांश राज्य नाकाम, सीसीएस का अध्ययन

लॉकडाउन के दौर में परेशान श्रमिकों के हितैषी बनकर नेताओं ने खूब राजनीति की, लेकिन इन मजदूरों में से स्ट्रीट वेंडर यानी हॉकर के तौर पर रोजी-रोटी कमाने वालों को संरक्षण देने के लिए 6 साल पहले बने स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट को लागू करने में अधिकांश राज्य नाकाम रहे हैं। गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर सिविल सोसायटी (सीसीएस) ने इस सिलसिले में एक अध्ययन किया तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। कानून को लागू करने में अनेक राज्यों का प्रदर्शन बहुत खराब है। आंध्र प्रदेश ने सबसे अच्छा काम किया, जबकि उत्तराखंड और हरियाणा सबसे पीछे हैं। सीसीएस के प्रशांत नारंग और जयना बेदी ने केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करके राज्यों के प्रदर्शन की तस्वीर पेश की है।

सिस्टम नहीं समझता उनकी अहमियत

सीसीएस की इस साल की प्रोग्रेस रिपोर्ट के अनुसार स्ट्रीट वेंडर्स न सिर्फ असंगठित क्षेत्र के कामगारों में बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी बड़ा योगदान करते हैं। रोजमर्रा के जीवन में किफायती कीमत पर वस्तुएं खरीदने के लिए हम इन्हीं वेंडर्स के पास जाते हैं, फिर भी इनके प्रति सरकारों और स्थानीय निकायों का नजरिया आमतौर पर नकारात्मक ही रहा है। शहरों में सड़कों पर ट्रैफिक जाम, भीड़-भाड़ और गंदगी के लिए इन हॉकरों को जिम्मेदार मानकर उन्हें बड़ी आसानी से हटा दिया जाता है। कोई कानूनी संरक्षण न होने के कारण वे पुलिसिया उत्पीड़न, उगाही और रिश्वतखोरी के भी शिकार होते हैं। अनेक अदालती केसों के बाद आखिर 2014 में स्ट्रीट वेंडर एक्ट संसद से पारित हुआ। इसके बावजूद उन्हें संरक्षण और आजीविका चलाने का गरिमापूर्ण माहौल अभी तक नहीं मिल पाया है क्योंकि राज्य और स्थानीय निकायों ने इसके लिए अपने स्तर की जिम्मेदारियां नहीं निभाईं।

इंडेक्स में ये राज्य फिसड्डी रहे

कोविड-19 महामारी के दौर में असंगठित क्षेत्र के कामगार जिस तरह से संकट में आए हैं, ऐसे में यह कानून उनके लिए और अहम हो जाता है। सरकारें कल्याणकारी योजनाओं से उन्हें सीमित मदद ही कर सकती हैं। उन्हें वास्तविक दीर्घकालिक मदद तभी मिल सकती है, जब गरिमापूर्ण तरीके से आजीविका चलाने के उनके अधिकार को सरकारें संरक्षण प्रदान करें। लेकिन वास्तविकता अलग दिखाई देती है। कानून लागू करने के मानकों के आधार पर तैयार किए गए इंडेक्स में असम (24.44), उत्तराखंड (25.23), हरियाणा (32.48) और मध्य प्रदेश (35.60) सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं। सूचकांक में आंध्र प्रदेश सबसे ऊपर रहा है। उसने 100 में से 78.93 अंक हासिल किए। उत्तरी राज्यों की बात करें तो चंडीगढ़ (75) दूसरे, पंजाब (63.5) पांचवें, राजस्थान (61.82) सातवें, झारखंड (60.26) आठवें और उत्तर प्रदेश (59.79 फीसदी) नौवें स्थान पर रहे।

तेलंगाना और उत्तराखंड ने नियम ही नहीं बनाए

केंद्रीय कानून के छह साल बाद भी दो राज्यों तेलंगाना और उत्तराखंड ने नियमों की अधिसूचना ही जारी नहीं की है। छह राज्यों असम, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी और उत्तराखंड ने स्कीम की अधिसूचना जारी नहीं की है। संसद से पारित कानून के प्रकाश में राज्यों को स्कीम और उसके नियम बनाने हैं। हॉकरों की गणना के लिए सर्वे, सर्टिफिकेट देने के लिए पात्रता शर्तें और हॉकिंग जोन का निर्धारण किया जाना है। इसमें स्थानीय निकायों की भी बेरुखी दिखाई देती है। इसके लिए राज्य सरकारें ही उत्तरदायी हैं। सिर्फ 47 फीसदी शहरी स्थानीय निकायों ने अपने यहां वेंडिंग कमेटी में चुने गए वेंडरों को प्रतिनिधित्व दिया है। महाराष्ट्र, पुडुचेरी, तेलंगाना, त्रिपुरा में किसी भी वेंडिंग कमेटी में वेंडरों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है।

 नियम लागू करने में आंध्र प्रदेश सबसे अच्छा

इस कानून को लागू करने में आंध्र प्रदेश का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है। वहां सभी स्थानीय निकायों ने वेंडिंग कमेटियां बना दी हैं। वेंडरों के सर्वे के अलावा वेंडिंग प्लान के साथ वेंडिंग जोन भी तय कर दिए गए हैं। यह एक मात्र राज्य है, जहां 75 फीसदी चिन्हित वेंडरों को पहचान पत्र जारी किए जा चुके हैं। देश के चार फीसदी से कम यानी 131 स्थानीय निकायों ने ही वेंडरों के सर्वे, वेंडिंग जोन और पहचान पत्र निर्गम, वेंडिंग प्लान और हॉकरों के प्रतिनिधित्व के साथ वेंडिंग कमेटियों के गठन का काम पूरा किया है।

सभी वेंडरों की गणना नहीं की गई

देश भर के वेंडरों की गिनती भी पूरी नहीं की जा सकी है। देश के 1,000 से ज्यादा शहरी स्थानीय निकायों ने अभी तक वेंडरों को चिन्हित करने के लिए सर्वे ही शुरू नहीं किया है। अधिकांश राज्यों ने चिन्हित वेंडरों की जो संख्या बताई है, वह वास्तविक वेंडरों की संख्या के मुकाबले एक फीसदी भी नहीं है। सभी राज्यों के एक या ज्यादा नियम या तो मूल कानून के विपरीत और मनमाने हैं या फिर अस्पष्ट हैं।

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