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राम मंदिर: आस्था बनाम सियासत

इस राष्ट्र-राज्य और लोकतंत्र से भी पांच गुना पुराना राम मंदिर का विवाद 22 जनवरी को हो रही...
राम मंदिर: आस्था बनाम सियासत

इस राष्ट्र-राज्य और लोकतंत्र से भी पांच गुना पुराना राम मंदिर का विवाद 22 जनवरी को हो रही प्राण-प्रतिष्ठा के बाद खत्म होगा या नए सिरे से जिंदा, यह सवाल पूरे समाज को मथ रहा है, कहीं बेचैनी और कहीं भक्ति की लहर

बात 27 दिसंबर, 1987 की है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य और ऑर्गनाइजर में विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंहल की तस्वीर के साथ एक खबर छपी। खबर में लिखा था, रामभक्तों की जीत हुई और कांग्रेस शासन ने मंदिर निर्माण के आगे अपने घुटने टेक दिए और इसके लिए ट्रस्ट बन गया है। खबर में इसे राम मंदिर आंदोलन की कामयाबी बताया गया था। उसी दिन दिल्ली में संघ मुख्यालय केशव सदन, झंडेवालान में एक बैठक हुई, जिसमें संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस भी मौजूद थे। उन्होंने सबसे पहले अशोक सिंहल को तलब कर पूछा, तुम इतने पुराने स्वयंसेवक हो, तुमने इस योजना का समर्थन कैसे कर दिया? सिंहल ने जवाब दिया कि हमारा आंदोलन तो राम मंदिर के लिए ही था, यदि वह स्वीकार होता है, तो स्वागत करना ही चाहिए। इस पर संघ प्रमुख उन पर बिफर गए। इस देश में राम के आठ सौ मंदिर हैं, एक और बन ही गया तो आठ सौ एकवां होगा लेकिन यह आंदोलन जनता के बीच लोकप्रिय हो रहा था, जिसके बल पर हम दिल्ली में सरकार बना सकते थे। तुमने आंदोलन का ख्याल नहीं रखा है।  यह बात दिवंगत पत्रकार, जनमोर्चा के संस्थापक संपादक और बाबरी मस्जिद राम मंदिर विवाद समाधान के पक्षकार रहे शीतला सिंह ने अपनी किताब ‘अयोध्याः राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ में लिखी है। उनका दावा था कि यह बात उन्हें लक्ष्मीकान्त झुनझुनवाला ने बताई थी। अशोक सिंहल से देवरस ने कहा था कि राम मंदिर आंदोलन से महंत अवैद्यनाथ, जस्टिस देवकीनंदन अग्रवाल और तमाम स्थानीय और बाहरी नेताओं को बाहर निकाल देना चाहिए क्योंकि मंदिर निर्माण के प्रस्ताव का स्वागत उनके उद्देश्य की पूर्ति में बाधक होगा।

अब, जबकि राम मंदिर आंदोलन की पीठ पर सवार होकर भाजपा को दिल्ली की सत्ता में आए दस साल हो रहे हैं और मंदिर भी बनने वाला है, क्या यह कहा जा सकता है कि देवरस जिस उद्देश्य की बात कर रहे थे उसकी पूर्ति हो चुकी है? क्या राम मंदिर बनने के बाद भी इस मुद्दे में कुछ सियासी रस बाकी है?

साधु मिलनः श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास को सम्मानित करते योगी आदित्यनाथ

साधु मिलनः श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास को सम्मानित करते योगी आदित्यनाथ

अयोध्या जन्मभूमि विवाद में मुस्लिम पक्ष की तरफ से कोर्ट में पक्षकार रहे इकबाल अंसारी आउटलुक से कहते हैं, "22 जनवरी से एक नया दौर शुरू हो रहा है। प्राण-प्रतिष्ठा के बाद विवाद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। यह तारीख राष्ट्रीय हित में है क्योंकि यहां से विवाद का हमेशा के लिए निपटान हो जाएगा और दोनों समुदायों में स्थायी शांति बहाली होगी। ये तारीख इस बात का भी सुबूत होगी कि देश के मुसलमानों को भारत के लोकतंत्र पर कितना भरोसा है।"

कुछ और लोग ऐसा नहीं मानते। राजनीतिक विश्लेषक अपूर्वानंद आउटलुक से कहते हैं, "ये स्पष्ट है कि भाजपा चुनाव में इसका इस्तेमाल करेगी। प्राण-प्रतिष्ठा से पहले एक अभियान चलाया गया और अब एक इसके बाद चलाया जाएगा। देश में वोट अक्सर भावनात्मक मुद्दों पर पड़ता है। भाजपा ने 2019 में राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाया। इस बार वोट राम के नाम पर मांगे जाएंगे।"

राम मंदिर मुद्दे में कितनी जान बची है, यह आने वाले दिनों में देखने की बात होगी लेकिन एक बात से सब सहमत होंगे कि भारत में एक पुराना अध्याय आगामी 22 जनवरी को निर्णायक करवट लेने जा रहा है। ऐसे मौके पर यह देखना और याद कर लेना जरूरी है कि आखिर एक मुद्दा कैसे राष्ट्र-राज्य बनने से पहले और पचहत्तर साल बाद तक पांच हजार साल पुराने समाज को सालता रहा, पालता रहा और अपने हिसाब से ढालता रहा।

गहमागहमीः अयोध्या में बाहर से पहुंचते लोग

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दरअसल, विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सोलहवीं सदी के मध्य से जुड़ी है जब बाबर अयोध्या आया था। कहते हैं कि उसके आदेश पर उसके सेनापति मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। अवधवासी लाला सीताराम अपनी किताब ‘अयोध्या का इतिहास’ में इससे जुड़े तीन अलग-अलग आख्यान बताते हैं जिसमें किसी फकीर का जिक्र है। राम जन्मभूमि के मुकदमे में एक दौर वह भी आया था जब मुस्लिम पक्ष ने साफ कह दिया था कि 1800 से पहले के किसी दस्तावेज से अगर यह साबित हो जाता है कि मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई गई है, तो मुसलमान खुद ही राजी-खुशी मंदिर के लिए तैयार हो जाएंगे। दूसरी ओर, हिंदू पक्ष का हमेशा से मानना रहा है कि मंदिर तोड़कर ही मस्जिद बनाई गई। यह बात अलग है कि मस्जिद को तोड़ने का खयाल 1989 तक कहीं मौजूद नहीं था। विश्व हिंदू परिषद ने भी चंदा मंदिर बनाने के लिए मांगा था, मस्जिद तोड़ने के लिए नहीं।

आजादी से पहले

अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद के कानूनी इतिहास को भी देखें, तो हम पाते हैं कि 1858 से लेकर करीब सौ साल तक मस्जिद की जगह नहीं, बल्कि उसके पास किसी जगह पर मंदिर बनाने की बात बार-बार सामने आती रही है। दस्तावेजों के हिसाब से बाबरी मस्जिद बनने के बाद मुगल बादशाह अकबर के जमाने में एक चबूतरा बनवाया गया था, जिस पर ठाकुरजी विराजमान रहे। फिर 1855 में कुछ कट्टरपंथी हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ गए, तब मस्जिद और चबूतरे के बच एक पक्की दीवार खींच कर इस विवाद का समाधान करवाया गया। उसी वक्त यह तय पाया गया कि नमाज के वक्त पूजा और पूजा के वक्त नमाज नहीं हुआ करेगी। इसके बाद 1883 में फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर ने एक अर्जी मिलने पर चबूतरे के ऊपर मंदिर बनाने की अनुमति देने से इनकार कर देते हैं। 

जनवरी 1885 में कायदे से पहली बार मामला अदालत में जाता है, हालांकि यह न तो मस्जिद के खिलाफ था न ही मुसलमानों के विरोध में था। महंत रघुबर दास ने सब-जज अदालत में अपील की कि ठाकुरजी को सर्दी, गर्मी और बरसात से बचाने के लिए चबूतरे को मंदिर में बदलने की अनुमति दी जाए। रघुबर दास ने राम चबूतरे पर जो मंदिर बनाने का दावा किया था उसकी चौहद्दी में एक साइट प्लान दाखिल किया था। उसमें बाबरी मस्जिद को बाबरी मस्जिद ही दिखाया गया था और इस इबादतगाह पर कोई दावा नहीं किया गया था। बहरहाल, 24 दिसंबर को उनकी अर्जी खारिज कर दी गई और मुसलमान बाबरी मस्जिद में नमाज अता करते रहे। अंतः 1 नवंबर 1886 को अपील में अवध चीफ कोर्ट के जुडिशियल कमिश्नर ने रघुबरदास के मुकदमे को ही खारिज कर दिया। इसके बाद करीब छह दशक तक राम जन्मभूमि और अयोध्या का मुद्दा दबा ही रहा।

आजादी के बाद राम

देश आजाद हुआ, तो पहला विवाद 1949 में शुरू हुआ, जब 22-23 दिसंबर की दरमियानी रात मस्जिद के अंदर कुछ लोगों ने चुपचाप रामलला की मूर्ति लाकर रख दी। सवाल उठता है कि इतने साल बाद वे कौन सी परिस्थितियां थीं और कौन से लोग थे, जो इस अध्याय के औचक उभार और उससे उपजे एक ऐसे घटनाक्रम के केंद्र में रहे, जिसने आधुनिक भारत की तस्वीर बदल डाली। इसके लिए कांग्रेस पार्टी के भीतर की राजनीति को समझना जरूरी है। जहां एक ओर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के सेकुलर आदर्श थे तो दूसरी ओर हिंदू आस्थाओं की चिंता करने वाले गोविंद बल्लभ पंत जैसे नेता, जिन्होंने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए अयोध्या में राम-रावण का सियासी खेल चुनाव जीतने के लिए खेला। वह ऐतिहासिक चुनाव था।

आजादी के बाद आचार्य नरेंद्रदेव और उनके साथ 11 विधायकों और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और नैतिक आधार पर उत्तर प्रदेश की विधानसभा छोड़ दी। ये सभी 11 लोग जून-जुलाई 1948 में हुए उपचुनाव में खड़े हुए। जाहिर है, कांग्रेस ने इन सबको चुनाव हराने में पूरा जोर लगा दिया। इनमें से केवल एक नेता जीते। आचार्य नरेंद्रदेव तक चुनाव हार गए, जो सबसे बड़ा चेहरा थे। संयोग नहीं है कि वे फैजाबाद से सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से खड़े हुए थे। अयोध्या, फैजाबाद में ही आता है। नरेंद्रदेव को हराने के लिए कांग्रेस ने राम जन्मभूमि का कार्ड खुलकर खेला। यह सब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के कारण हुआ, जिन पर जवाहरलाल नेहरू की मुहर नहीं थी। क्योंकि नरेंद्रदेव और नेहरू दोनों अहमदनगर की जेल में एक साथ रह चुके थे और एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। इसी जेल में नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखी थी जिसमें उन्होंने आचार्य नरेंद्रदेव का आभार प्रकट किया था।

जगमगः सरयू तट का नया स्वरूप

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आचार्य नरेंद्रदेव को हराने के लिए कांग्रेस ने बरहज देवरिया के बाबा राघवदास को मैदान में उतार दिया। बाबा राघवदास महाराष्ट्रियन चितपावन ब्राह्मण थे और गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रह चुके थे। इसके अलावा वे कई धार्मिक संस्थाओं से जुड़े हुए थे। इस तरह फैजाबाद के उपचुनाव को धार्मिक बनाम नास्तिक के रूप में प्रचारित किया गया और बैनर-पोस्टर पर इसे राम-रावण की लड़ाई बताया गया। अयोध्या के तमाम संत महंत राघवदास के समर्थन में उतर आए। इस तरह आजादी के बाद पहली बार राम के नाम का इस्तेमाल कर कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा। इसके बाद राम नाम के राजनीतिकरण की कहानी ज्ञात इतिहास है।

बाबरी मस्जिद में मूर्ति तो दिसंबर 1949 में रखी गई, लेकिन माहौल खराब करने का काम पहले ही शुरू हो चुका था। यहां 13 नवंबर से कब्रिस्तानों की कब्रें खोदी जा रही थीं। इसकी सूचना बाकायदा सिटी मजिस्ट्रेट को धारा 145 के तहत दी जा चुकी थी लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि जब मूर्तियां रखी गईं और छह नामजद लोगों के अलावा पचास-साठ अज्ञात लोगों के खिलाफ तीन धाराओं में मुकदमा कायम किया गया, तब भी मूर्तियों को हटाने की कोई कार्रवाई नहीं की गई, जबकि प्रधानमंत्री नेहरू ने मुख्यमंत्री पंत को फोन और तार से संदेश तक भेजा था कि मूर्तियां हटवा दी जाएं। केंद्रीय गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी चिट्ठी लिखकर मूर्ति को रखना अनुचित बताया था। इसके जवाब में पंत ने नेहरू को बताया कि अगर मूर्तियां हटाई गईं, तो हालात बिगड़ जाएंगे और भीड़ को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। पंत ने यह भी बताया कि वे अयोध्या जाना चाहते थे लेकिन कलेक्टर के.के. नायर ने उन्हें वहां आने से यह कहते हुए मना कर दिया कि वे उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते। इसके बजाय नायर ने उन्हें कई किलोमीटर दूर अकबरपुर की हवाई पट्टी पर आने को कहा।

राज्य में कांग्रेस की सरकार की ओर से ढुलमुल रवैये ने अयोध्या में हिंदू पक्ष को मजबूत करने का काम किया। एक चुनाव के चक्कर में पंत ने जो राम कार्ड खेला था, अब वह उनके काबू से बाहर जा चुका था। उधर अयोध्या में 16 जनवरी 1950 को हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद ने इस मामले में मुकदमा दायर कर दिया। विशारद ने प्रांगण में प्रार्थना करने और पूजा करने के अधिकार के लिए प्रार्थना करते हुए पांच मुसलमानों, राज्य सरकार और फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट के खिलाफ मुकदमा दायर किया।  3 मार्च 1951 को सिविल जज फैजाबाद ने पूजा और दर्शन का अधिकार दे दिया और जिला प्रशासन ने मुसलमानों को वक्ती तौर पर 200 गज के भीतर आने की मनाही का आदेश दे दिया। इसके बाद कोर्ट के एक आदेश से विवादित पक्षों पर मूर्तियां हटाने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके नौ साल बाद 17 दिसंबर 1959 को निर्मोही अखाड़ा और 11 साल बाद सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड भी इस मामले में कूद गया।

करीब तीस साल तक यह मामला कानूनी फाइलों में बंद पड़ा रहा, हालांकि रामलला को आपराधिक ढंग से प्रकट कराने वाले और मूर्ति न हटाने वाले जिलाधिकारी नैयर कालांतर में भारतीय जनसंघ से बहराइच का लोकसभा चुनाव लड़े। इसी तरह, कई और अहम व्यक्ति जो चालीस के दशक के अंत और पचास के दशक में सक्रिय रहे, अलग-अलग संस्था्ओं और संगठनों में प्रमुख स्थान पा गए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भगवान राम के कटआउट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भगवान राम के कटआउट

करीब 1984 तक यह स्थिति थी कि विश्व हिंदू परिषद के काशी, मथुरा और अयोध्या के दावे को गंभीरता से नहीं लेता थी। शायद इसी वजह से परिषद ने इन धर्मस्थलों पर मंदिर बनाने के लिए कांग्रेस के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक से संपर्क साधा और अलग-अलग प्रस्ताव पारित किए। 1983 के अंत में पहली बार जब विहिप का प्रतिनिधिमंडल इंदिरा गांधी से मिलने गया, तब उन्होंने इससे साफ शब्दों में कथित रूप से यह कहा कि लोकतंत्र में अपनी मांगें मनवाने के लिए जनता को आंदोलन खड़ा करना होता है। इसके बाद ही राम मंदिर आंदोलन की औपचारिक नींव पड़ी। इंदिरा गांधी ने विहिप को नवंबर 1984 में दोबारा मिलने को कहा था, लेकिन 31 अक्टूबर को उनकी हत्या हो गई। ठीक उस दिन जब मिथिला से चला विहिप का राम-जानकी रथ वाया अयोध्या गाजियाबाद पहुंचा था और योजना दिल्ली पहुंचकर प्रचार अभियान शुरू करने की थी। इंदिरा की हत्या के बाद राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बन गईं कि सन चौरासी में भाजपा को अपने पहले चुनाव में महज दो सीटें मिलीं और वह विहिप की लाइन पकड़ने को बाध्य हो गई। भाजपा का गांधीवादी समाजवाद इंदिरा की हत्या के बाद ही हिंदुत्व की तरफ मुड़ा। निर्णायक मोड़ तब आया जब 1989 के लोकसभा चुनाव का आगाज करते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने फैजाबाद के कैंट मैदान में अपनी पहली चुनावी जनसभा से रामराज्य स्थापित करने का नारा उछाल दिया। भाजपा और विहिप को इसी की प्रतीक्षा थी। इसके बाद बाबरी को जमींदोज होने में बहुत वक्त नहीं लगा।    

अब, जबकि भाजपा का यह एजेंडा साकार होने के मुहाने पर है, राजनीतिक मुद्दे के रूप में इसकी अहमियत पर सवाल खड़े होते हैं, जिसकी बात बरसों पहले अशोक सिंहल से बाला साहेब देवरस ने की थी। इसकी एक बड़ी वजह विपक्ष के दलों, मुख्यतः कांग्रेस और शंकराचार्यों का प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन पर मुखर विरोध है, जिसकी चर्चा चारों ओर है। अगर राजनीतिक रूप से राम मंदिर का एजेंडा भाजपा के लिए इतने बरस तक लाभांश देता रहा है, तो किसी ने यह नहीं सोचा था कि अपने आखिरी चरण में आकर यह धार्मिक बहस में फंस जाएगा। जिस राम मंदिर का राजनीतिकरण कांग्रेस ने शुरू किया वह उसका लाभ कभी नहीं ले पाई लेकिन जिस भाजपा ने धार्मिक आवरण में लपेट कर इसे फैलाया, क्या वह भी धर्मशास्त्र में ही आकर फंस गई है?

 

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